Wednesday 10 October 2012

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना/न होना तड़प का,सब कुछ सहन कर जाना- पाश





मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता-

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना

सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता


सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

- पाश

Monday 17 September 2012

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिये, हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिये....पाश

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिये
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिये.......
हम चुनेंगे साथी, जिंदगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कंधों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी.................
कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नजरों की कसम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी..................................
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले खुद नहीं सूंघते
कि सूजी आंखों वाली
गांव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता...........................
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाईयों का गला घोटने को मजबूर हैं
कि दफतरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर................
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की जरुरत बाकी है
जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी........................
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे.....................................................

Avtar Singh Paash

Wednesday 12 September 2012

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिसका वादा है -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है

जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां

रुई की तरह उड़ जाएँगे

हम महक़ूमों के पाँव तले

ये धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर

जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे


बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ायब भी है हाज़िर भी

जो मंज़र भी है नाज़िर भी

उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

Friday 24 August 2012

एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है...डॉ धर्मवीर भारती की लम्बी कविता"मुनादी"

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि-
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी
अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !

शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय !

जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?

आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं...
तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की !

क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें

अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए !

नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।

ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो

इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप !
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए !

बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुँछ जाए !

बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !


[तानाशाही का असली रूप सामने आते देर नहीं लगी। नवम्बर की शुरूआत में ही हुआ वह भयानक हादसा। जे.पी.ने पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी। हर उपाय पर भी लाखों लोग सरकारी शिकंजा तोड़ कर आये। उन निहत्थों पर निर्मम लाठी-चार्ज का आदेश दिया गया। अखबारों में धक्का खा कर नीचे गिरे हुए बूढ़े जे.पी.उन पर तनी पुलिस की लाठी, बेहोश जे.पी.और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ा कर चलते हुए जे.पी.। दो-तीन दिन भयंकर बेचैनी रही, बेहद गुस्सा और दुख...9 नवम्बर रात 10 बजे यह कविता अनायास फूट पड़ी] - धर्मवीर भारती

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धर्मवीर भारती (२५ दिसंबर, १९२६- ४ सितंबर, १९९७) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वे एक समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी थे। डॉ धर्मवीर भारती को १९७२ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. उनका उपन्यास गुनाहों का देवता सदाबहार रचना मानी जाती है. सूरज का सातवां घोड़ाको कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनायी, अंधा युग उनका प्रसिद्ध नाटक है। । इब्राहीम अलकाजी, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशको ने इसका मंचन किया है ।

Thursday 16 August 2012

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं -फैज़ अहमद फैज़ की गज़ल






फैज़ अहमद फैज़ की गज़ल-


ये दाग दाग उजाला, ये शब-गजीदा सहर,

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर

चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं

फ़लक के दश्त में तारों कि आखरी मंजिल


कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल

कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ए-गम-ऐ-दिल

जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से

चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े

दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख्‍वाब-गाहों से

पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे


बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख-ए-सहर की लगन

बहुत करीं था हसीना-ए-नूर का का दामन

सुबुक सुबुक थी तमन्ना , दबी दबी थी थकन


सुना है हो भी चुका है फिराक-ए-जुल्मत-ए-नूर

सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंजिल-ओ-गाम


बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर

निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ए-हिज़र-ऐ-हराम

जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन


किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं

कहाँ से आई निगार-ए-सबा , किधर को गई

अभी चिराग-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं


अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आई

नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई

चले चलो की वो मंजिल अभी नहीं आई

- फैज़ अहमद फैज़.