Thursday 30 July 2015

प्रेमचंद की प्रासंगिकता

31 जुलाई, जन्मदिवस पर


- वीणा भाटिया 


http://www.haribhoomi.com/news/literature/old-rice/premchand-birthday/28773.html

प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि राजनीति के आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्चाई है। साहित्य का क्षेत्र संपूर्ण जीवन है। वह जीवन को उसकी समग्रता में ग्रहण करता है और एक सामाजिक इकाई के रूप में व्यक्ति के जीवन और सामाजिक यथार्थ के जटिल व बहुआयामी स्वरूप को उद्घाटित करता है। साहित्य जीवन की पुनर्रचना है और इस पुनर्रचना में उसकी आलोचना निहित होती है। यही कारण है कि प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना बताया था।
 
प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य इस कसौटी पर खरा उतरता है। यही कारण है कि प्रेमचंद के साहित्य की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। आज भी प्रेमचंद का साहित्य सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है। देश ही नहीं, विदेशों में भी प्रेमचंद के पाठकों की कोई कमी नहीं है। प्रेमचंद के साहित्य की लोकप्रियता का प्रमाण है साल-दर-साल उनकी किताबों के नए संस्करणों का प्रकाशन।


अब तो प्रेमचंद की किताबों पर से कॉपीराइट समाप्त हो जाने से बहुतेरे प्रकाशक उनकी किताबों के सस्ते संस्करण प्रकाशित कर रहे हैं। यही नहीं, प्रेमचंद की रचनाओं के अनुवाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं में होने से हर पढ़ा-लिखा भारतवासी उनके नाम से परिचित है। स्कूल-कॉलेजों के सिलेबस में उनकी रचनाएं लगी होने से देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम जानता है। दुनिया की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में प्रेमचंद की कृतियों के अनुवाद उपलब्ध हैं।

प्रेमचंद आधुनिक भारत के प्रतिनिधि लेखक हैं। उनका लेखन बहुआयामी है। संक्षेप में कहें तो उनके लेखन में ‘भारत की आत्मा’ की अभिव्यक्ति हुई है। अपनी रचनाओं में प्रेमचंद अपने समय के मूलभूत सवालों से दो-चार होते हैं। युगीन यथार्थ को वे उसकी संपूर्णता में उद्घाटित करते हैं। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में समग्र और जटिल जीवन स्थितियों का चित्रण हुआ है। सभी पात्र वास्तविक और जीवंत हैं। कहीं भी कुछ आरोपित और गढ़ा हुआ नहीं है। फिर किस्सागोई की शैली ऐसी कि पाठक एक बार पढ़ना शुरू कर दे तो कहीं ऊब नहीं सकता। यह है प्रेमचंद की खासियत जो उन्हें विशिष्ट ही नहीं, कालजयी रचनाकार बनाती है।



प्रेमचंद ने लेखन की शुरुआत ऊर्दू में की। उनकी कहानियां मुंशी दयाराय निगम की पत्रिका ‘ज़माना’ में प्रकाशित होती थीं। पर जब उनकी कहानियों का पहला संग्रह ‘सोज़े वतन’ के नाम से आया तो औपनिवेशिक सरकार को इससे खतरा महसूस हुआ। प्रेमचंद सरकारी नौकरी में थे। जिला के हाकिम ने उन्हें बुलाकर लिखना बंद करने को कहा। ‘सोज़े वतन’ की सारी उपलब्ध प्रतियां जला दी गईं। उस समय वे नवाब राय नाम से लिखते थे। यह उनका वास्तिवक नाम था। पर लेखन पर सरकारी पाबंदी लग जाने के बाद मुंशी दयाराय निगम की सलाह पर उन्होंने नया नाम प्रेमचंद अपनाया और लिखना जारी रखा।

‘सोज़े वतन’ यानी देश का दर्द में एक कहानी है ‘दुनिया का अनमोल रतन’। इस कहानी का एक किरदार कहता है – ‘ख़ून का वो आख़िरी क़तरा जो वतन की हिफ़ाजत में गिरे दुनिया का अनमोल रतन है।‘ इसी पंक्ति से अंग्रेजों को खतरे की बू आई थी। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश और देशवासियों के दर्द को सामने लाना जारी रखा।


उनके समग्र साहित्य में औपनिवेशिक और सामंती उत्पीड़न से त्रस्त ग्रामीण भारत का दुख-दर्द सामने आया है। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति ‘गोदान’ भारतीय किसान के त्रासदीपूर्ण जीवन की महागाथा है। कर्ज में डूबे जिस भारतीय किसान के जीवन की जैसी विडंबनाएं वे सामने लाते हैं, आजादी के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी वे परिस्थितियां खत्म नहीं हुई हैं, बल्कि बदले हुए रूपों में और भी उग्र होकर सामने आई है। प्रेमचंद का किसान कर्ज में डूबा होने पर भी आखिरी दम तक संघर्ष करता रहता है, पर आज तो स्थितियां इतनी विकराल हो गई हैं कि किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्या कर रहे हैं और वो भी लाखों की संख्या में। इसी तरह, अपने उपन्यास ‘रंगभूमि’ में प्रेमचंद ने उद्योग स्थापित करने के लिए किसानों की जमीन छीनने, उनके विस्थापन और इसके विरोध में एक मामूली आदमी सूरदास के संघर्ष की कहानी लिखी। सूरदास आखिरी दम तक अपनी जमीन से कब्जा नहीं छोड़ता और संघर्षरत रहता है। आज सरकार द्वारा किसानों की जमीन का अधिग्रहण राजनीति का बड़ा मुद्दा बना हुआ है।

समझा जा सकता है कि प्रेमचंद ने अपनी गहरी अंतर्दृष्टि से आने वाले समय को समझ लिया था। उनका एक और महत्वपूर्ण उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ भी किसानों की जिंदगी और व्यापक सामाजिक बदलाव से जुड़े सवालों को उठाता है। प्रेमचंद ने भारतीय समाज की जातिवादी व्यवस्था के घृणित रूप को भलीभांति समझा था। तभी उन्होंने ‘कफन’ और ‘सद्गति’ जैसी कालजयी कहानियां लिखीं।

प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य उस दौर में लिखा गया जब औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के लिए देश में व्यापक संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष से प्रेमचंद इस हद तक जुड़े थे कि महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उनके आह्वान पर उन्होंने अंग्रेजी सरकार की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने ‘हंस’ मासिक और  ‘जागरण’ पाक्षिक का प्रकाशन शुरू किया। प्रेमचंद यह बात समझ चुके थे कि अंग्रेजों के भारत छोड़कर चले जाने से देश की समस्याएं नहीं सुलझेंगी। उन्होंने समाज व्यवस्था के सवाल को उठाया था। उनका मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता से कुछ नहीं हो सकता, जब तक सामाजिक और आर्थिक स्वाधीनता की स्थापना नहीं होती। उन्होंने साफ कहा था कि केवल जॉन की जगह गोविंद को बिठा देने से कुछ नहीं होने वाला, जब तक शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में मूलभूत बदलाव नहीं होता।

उनके लिए सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में बदलाव का सवाल सबसे महत्वपूर्ण था। ठीक यही बात भगत सिंह ने भी कही थी कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों के सत्ता में आ जाने से कुछ होने वाला नहीं। प्रेमचंद खुद को कलम का मजदूर मानते थे। उनका कहना था कि जिस दिन वे न लिखें, उन्हें रोटी खाने का अधिकार नहीं है। प्रेमचंद अपने जीवन के आखिरी दिन तक लिखते रहे।

1936 में जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई तो उन्हें उसकी अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया। उस सम्मेलन में प्रेमचंद ने जो भाषण दिया, वह आधुनिक साहित्य का घोषणापत्र बन गया।

उन्होंने कहा, ‘’साहित्य का काम केवल मन बहलाव का सामान जुटाना नहीं है। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”


     
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Friday 24 July 2015

हीरा मंडी लाहौर की एक शाम




                                          - जगतार


शाम की अज़ान हुई
कर इबादत ख़ादिमों ने
खिड़कियों में लटकते हैं
पंछियों के पिंजले
खिड़कियों के बाहर जग गई 
लालिमामय बत्तियां
शीशों के आगे तने हुए बदन
कर रहे आयु छिपाने के यत्न
सारंगी के सुर ने बिस्मिल्ला कही
जाग उठी शाम के होते ही हर गली।

मुंगेर और मोतियों की
खुश्बू गलियों में चली
पांचों वक़्त के नमाज़ी 
शराअ के पाबंद लोग
मुंह छिपा के चढ़ रहे हैं
सीढ़ियां बे-रोक टोक।
कह रहे हैं सुर सलाम

हो रहे हैं तमाशाई के जज़्बे बे-लगाम
सरक आए नतृकियों के उफनते उन्माद में 
धीरे-धीरे रंग, सुर, नख़रे तमाम
सूखाग्रस्त जिंदगी पर हो रही चांदी की बारिश
चोलियों की हर तनी के अंदर तनाव है
सीने के भीतर भी अजब उतार-चढ़ाव है
सुर में है हर एक बदन
पर बुझे हुए हैं मन

ठुमरियों के स्वरों पर
है दाग पीक-ए-पान के
झांझरों पर पड़ गए सुर्ख निशान
छप गए पैरों पे होंठ
इस तरह लगता है कि विलाप करती है सारंगी
थक गए चल-चल के जाम।
हो गई पागल शराब
लड़खड़ाती सीढ़ियों से
उतरती हुई थकान
भूल चुकी है आदाब

पलटते कदमों के नीचे फूल हैं मसले पड़े।
एक गली के किनारे 
हो रही गाली-गलौच
मुंह छिपा कर मोहतबर और पाक लोग
लड़खड़ाते पैर अपने 
रख रहे हैं सोच-सोच।

हर किसी दीए के अंदर 
नींद है पसरी हुई
फड़फड़ा रही है ज़ख्मी
पंछियों की तरह लौ
जिस्म की दुर्गंध लड़ने लग पड़ी है
ऊपरी खुशबुओं के साथ
खिड़कियों में बुझ रहे हैं 
धीरे-धीरे सब चिराग़
रात के अंधेरे में छिपते जा रहे हैं
मोहतबर लोगों के दाग।


Tuesday 21 July 2015

कुमार पाशी की नज़्म - सौगंधी

दुनिया में वेश्यावृत्ति को सबसे पुराना धंधा माना गया है। सभ्यता के विकास के साथ यह घृणित धंधा बढ़ता ही चला गया। वेश्याओं के दुखी और विडंबनापूर्ण जीवन पर विश्व साहित्य में एक से एक कृतियां सामने आई हैं। उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार मंटो ने कई कहानियां इनके जीवन पर लिखी हैं। उनकी एक कहानी है - हतक। जब यह कहानी छपी तो इसने सामान्य पाठकों से लेकर मशहूर शाइरों-अदीबों के दिलों को झकझोर डाला। इस कहानी के किरदार सौगंधी पर कई शाइरों ने नज़्में लिखीं। पेश है कुमार पाशी की नज्म।




इक मौसम मेरे दिल के अंदर
इक मौसम मेरे बाहर
इक रस्ता मेरे पीछे भागे
इक रस्ता मेरे आगे
बीच में चुपचाप खड़ी हूं, जैसे
बूझी हुई बुझारत
किसको दोष दूं : जाने मुझको
किसने किया अकारत

आईना देखूं, बाल सवारूं, लब पर हंसी सजाऊं
गला सड़ा वही गोश्त कि जिस पर
सादे रंग चढ़ाऊं
जाने कितनी बर्फ़ पिघल गई - बह गया कितना पानी
किस दरिया में ढूंढू बचपन
किस दरिया में जवानी

रात आए : मेरी हड्डियां जागें
दिन जागे : मैं सोऊं
अपने उजाड़ बदन से लग कर
कभी हंसूं, कभी रोऊं
एक भयानक सपना : आग में लिपटी जलती जाऊं
चोली में उड़से सिक्कों के संग पिघलती जाऊं


इक मौसम मेरे दिल के अंदर
इक मौसम मेरे बाहर
इक रस्ता मेरे पीछे भागे
इक रस्ता मेरे आगे
रस्ते बीच मैं खड़ी अकेली
पिया न संग सहेली
क्या जाने मुझ जनमजली ने क्या अपराध किया है
आखिर क्यों दुनिया का मैंने सारा ज़हर पिया है
मेरे साथ ज़माने
तूने अच्छा नहीं किया है

दूर खड़े मेरे आंगन द्वारे
पल पल पास बुलाएं
कहो हवाओं से अब - उनको दूर
बहुत ही दूर कहीं ले जाएं
झूट की यह तारों दीवारें
झूट की यह फ़र्श और छत है
झूट का बिस्तर, झूट के साथी
झूट की हर संगत है
झूट बिछाऊं, झूट लपेटूं
झूट उतारूं, पहनूं
झूट पहन कर जिस्म के वीराने में दौड़ती जाऊं
क्यों नहीं ज़हन की दीवारों से टकराऊं, मर जाऊं

शमा सरीखी पिघल रही हूं
ओझल कभी उजागर
इक मंज़र मेरे दिल के अंदर
इक मंज़र मेरे बाहर
मुझको ढूंढने कौन आए अब इन तनहा राहों पर
बोटी-बोटी कट गई मेरी रौशन चौराहों पर

अब गहरे सन्नाटे में किसको आवाज़ लगाऊं
कौन आएगा मदद को मेरी
क्या चीखूं, चिल्लाऊं
अपने गोश्त की मैली चादर
ओढ़ के चुप सो जाऊं
और अचानक नींदों के दलदल में गुम हो जाऊं
खुद को खुद में ढूंढने निकलूं
लेकिन कहीं न पाऊं...

Friday 10 July 2015

सवाल खड़े करने हैं : चेखव

-  वीणा भाटिया



विश्वविख्यात रूसी कथाकार और नाटककार अंतोन पाव्लोविच चेखव का जन्म दक्षिण रूस के तगानरोग में 29 जनवरी, 1960 को हुआ था। उन्होंने कथा साहित्य में एक नए युग की ही शुरुआत की थी। वह यथार्थवादी रचनाकार थे। चेखव पेशे से डॉक्टर थे। साहित्य रचना के साथ-साथ डॉक्टरी का पेशा उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। एक बार उन्होंने मजाक में कहा था - मेडिसिन मेरी लॉफुल वाइफ है और लिटरेचर मिस्ट्रेस।

चेखव ने परंपरागत कहानियों में आने वाले नैतिकतावादी आग्रहों को अस्वीकार कर दिया। उनका कहना था कि एक आर्टिस्ट का काम सवाल खड़े करना है, न कि उनका जवाब देना। चेखव के नाटक 'द सैगल', 'अंकल वान्या' और 'थ्री सिस्टर्स' विश्वप्रसिद्ध हैं। चेखव अपने नाटकों के मंचन में बहुत रुचि लेते थे और उनके रिहर्सल के दौरान खुद मौजूद रहते थे।

चेखव के समय में रूसी समाज भीषण उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। इस दौर में नया उभरता मध्यवर्ग नवीन आशाओं और आकांक्षाओं का वाहक था, पर उसके जीवन में भी विडम्बनाएं कम नहीं थीं। इसी मध्यवर्ग के जीवन की सच्चाइयों को सामने लाने का काम चेखव ने बहुत ही संवेदनशीलता के साथ किया।   

1879 में चेखव ने मॉस्को स्टेट मेडिकल यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। 1884 में उन्होंने मेडिकल परीक्षा पास कर ली और बतौर फिजिशियन काम शुरू किया। अगले ही साल चेखव बीमार पड़ गए। उन्हें लाइलाज बीमारी तपेदिक हो गई। लेकिन वे लगातार लिखते रहे। 1886 में उन्हें सेंट पीटर्सबर्ग के मशहूर अखबार 'नोवोया रेम्या' के लिए लिखने का आमंत्रण मिला। इसके अरबपति मालिक एलेक्सी सुवोरिन ने उन्हें उस समय के हिसाब से दोगुना पारिश्रमिक दिया। वे चेखव के आजीवन अभिन्न मित्र बने रहे। उसी दौरान रूस के बड़े साहित्यकारों के बीच उनकी पहचान बनी। 1887 में चेखव को प्रतिष्ठित पुश्किन प्राइज मिला। चेखव बहुत ज्यादा लिखते थे। कहा जाता है कि वे अपनी स्क्रिप्ट दोबारा नहीं पढ़ते थे।

चेखव अपने जीवनकाल में ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। रूस के तमाम बड़े लेखकों के साथ उनके प्रगाढ़ संबंध थे। टॉल्सटाय और गोर्की जैसे लेखक उनका काफी सम्मान करते थे। बीमारी के बावजूद चेखव कठिन परिश्रम करते थे। वे लगातार लेखन और अपने नाटकों के मंचन के सिलसिले में व्यस्त रहते थे। उनकी बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही थी। 15 जुलाई, 1904 को महज 44 साल की उम्र में इस महान लेखक का निधन हो गया।


जेम्स ज्वॉयस, वर्जिनिया वुल्फ, कैथरीन मैन्सफील्ड जैसे साहित्यकारों ने उनके लेखन के महत्त्व को रेखांकित किया। मशहूर नाटककार जॉर्ज बर्नाड शॉ ने उन्हें युग प्रवर्तक साहित्यकार बताया। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने उन्हें अद्वितीय नाटककार बताया। चेखव एक ऐसे मानवतावादी रचनाकार थे, जिन्होंने अपनी कृतियों में युगीन आकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया।