Friday 24 July 2015

हीरा मंडी लाहौर की एक शाम




                                          - जगतार


शाम की अज़ान हुई
कर इबादत ख़ादिमों ने
खिड़कियों में लटकते हैं
पंछियों के पिंजले
खिड़कियों के बाहर जग गई 
लालिमामय बत्तियां
शीशों के आगे तने हुए बदन
कर रहे आयु छिपाने के यत्न
सारंगी के सुर ने बिस्मिल्ला कही
जाग उठी शाम के होते ही हर गली।

मुंगेर और मोतियों की
खुश्बू गलियों में चली
पांचों वक़्त के नमाज़ी 
शराअ के पाबंद लोग
मुंह छिपा के चढ़ रहे हैं
सीढ़ियां बे-रोक टोक।
कह रहे हैं सुर सलाम

हो रहे हैं तमाशाई के जज़्बे बे-लगाम
सरक आए नतृकियों के उफनते उन्माद में 
धीरे-धीरे रंग, सुर, नख़रे तमाम
सूखाग्रस्त जिंदगी पर हो रही चांदी की बारिश
चोलियों की हर तनी के अंदर तनाव है
सीने के भीतर भी अजब उतार-चढ़ाव है
सुर में है हर एक बदन
पर बुझे हुए हैं मन

ठुमरियों के स्वरों पर
है दाग पीक-ए-पान के
झांझरों पर पड़ गए सुर्ख निशान
छप गए पैरों पे होंठ
इस तरह लगता है कि विलाप करती है सारंगी
थक गए चल-चल के जाम।
हो गई पागल शराब
लड़खड़ाती सीढ़ियों से
उतरती हुई थकान
भूल चुकी है आदाब

पलटते कदमों के नीचे फूल हैं मसले पड़े।
एक गली के किनारे 
हो रही गाली-गलौच
मुंह छिपा कर मोहतबर और पाक लोग
लड़खड़ाते पैर अपने 
रख रहे हैं सोच-सोच।

हर किसी दीए के अंदर 
नींद है पसरी हुई
फड़फड़ा रही है ज़ख्मी
पंछियों की तरह लौ
जिस्म की दुर्गंध लड़ने लग पड़ी है
ऊपरी खुशबुओं के साथ
खिड़कियों में बुझ रहे हैं 
धीरे-धीरे सब चिराग़
रात के अंधेरे में छिपते जा रहे हैं
मोहतबर लोगों के दाग।