Friday 14 August 2015

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?

       

  
- नागार्जुन 


किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है ?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है ?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है,
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है,
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है,
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है,
जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला,
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है,
उसी की जनवरी छब्बीस,
उसी का पंद्रह अगस्त है !

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है,
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है,
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है,
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा,
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है,
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है,
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है !

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है,
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है,
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है,
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है,
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है,
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है !
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है !
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है !
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है !
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो,
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है !

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है,
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है,
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है,
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है,
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है,
गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है,
धत तेरी, धत तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं,
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है,
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं,
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है,
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं,
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है,
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है !
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है !

कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है !
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है,
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है,
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है ।

Saturday 8 August 2015

भीष्म साहनी : जैसा जिया वैसा लिखा

जन्म शताब्दी पर विशेष

- वीणा भाटिया

http://www.haribhoomi.com/literature/old-rice/bheeshm-sahni-birth-centenary/29195.html#ad-image-3

विभाजन की त्रासदी पर ‘तमस’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले भीष्म साहनी प्रेमचंद की परंपरा के साहित्यकार हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी ने कथा साहित्य के अलावा नाटक, जीवनी, अनुवाद और बाल साहित्य में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। भीष्म साहनी का संपूर्ण लेखन आज के समय के यथार्थ के प्रमुख द्वंद्वों को सामने लाता है और प्रेमचंद ने जिसे साहित्य की कसौटी माना था, उस पर पूरी तरह खरा उतरता है।

प्रेमचंद ने लिखा था – “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।“ देश की आजादी के बाद जिन लेखकों ने युगीन यथार्थ और उसकी चुनौतियों को अपनी रचनाओं में सामने रखा, भीष्म साहनी उनमें प्रमुख हैं। भीष्म साहनी उन प्रगतिशील लेखकों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपने साहित्य में आम जन के जीवन और उसके संघर्षों को स्वर दिया।

अपने विपुल और बहुआयामी लेखन से भीष्म साहनी ने न केवल हिंदी, बल्कि विश्व साहित्य को समृद्ध किया है। भीष्म साहनी के लेखन का फलक काफी विस्तृत है। इसे उनकी कहानियों, उपन्यासों और नाटकों को पढ़कर आसानी से महसूस किया जा सकता है। उत्पीड़ित, शोषित और वंचित वर्ग की मुक्ति की आकांक्षा उनके लेखन का मूल स्वर है। अपनी रचनाओं में उन्होंने जहां शोषण और दमन पर आधारित समाज के कड़वे यथार्थ को परत-दर-परत उजागर किया है, वहीं शोषणमुक्त और स्वतंत्र समाज के निर्माण का चिर स्वप्न भी वहां संचित है। भीष्म साहनी ने स्वयं विभाजन के दर्द को झेला और महसूस किया था।

 भारत में ब्रिटिश राज की कुटिल नीतियों को समझने के साथ  ही उन्होंने यह महसूस कर लिया था कि वास्तविक आजादी तभी मिल सकती है, जब सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव हो। वे आजाद भारत के शासकों के छल-छद्म को भी भली-भांति समझते थे और जनसंघर्षों की दशा और दिशा को भी। आजादी के बाद महानगरों और शहरों में उभरने वाले मध्यवर्ग की औपनिवेशिक मानसिकता और संवेदनहीनता को भी उन्होंने देखा और महसूस किया था, तभी वे उन अमानवीय और विडंबनापूर्ण परिस्थितियों का चित्रण कर सके, जो उनकी कहानियों में दिखाई पड़ती हैं। ‘चीफ़ की दावत’, ‘वांड़्चू’, ‘ओ हरामजादे!’, ‘रामचंदानी’, ‘शोभायात्रा’, ‘मेड इन इटली’, ‘लीला नंदलाल की’, ‘गंगो का जाया’, ‘चीलें’ और न जाने कितनी कहानियों में यही कड़वा सच सामने आया है। सांप्रदायिक दंगों और उनकी त्रासदी, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव उन्होंने किया था, ‘अमृतसर आ गया है’ जैसी कहानियों में उभर कर सामने आई है।

सांप्रदायिकता के सवाल पर उन्होंने ‘कबिरा खड़ा बाज़ार में’ जैसा नाटक लिखा। भूलना नहीं होगा कि आज सांप्रदायिकता का सवाल भारतीय राजनीति के केंद्र में आ गया है और ऐसे हालात बनते जा रहे हैं, जिसमें आम आदमी घुटन, संत्रास और वंचना में जीने को मजबूर है। ऐसे में, भीष्म साहनी का साहित्य बहुत ही प्रासंगिक हो गया है।

भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त, 1915 को रावलपिंडी में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। वह अपने पिता हरबंस लाल साहनी तथा माता लक्ष्मी देवी की सातवीं संतान थे। 1935 में लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद पारिवारिक व्यवसाय संभालने के साथ ही वे एक कॉलेज में अवैतनिक प्राध्यापक भी हो गए।

थिएटर में रुचि होने के कारण वे भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) से जुड़कर काम करने लगे। उनके बड़े भाई प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी भी इप्टा से जुड़े थे। भीष्म साहनी ने विद्यार्थी जीवन से ही लिखना शुरू कर दिया था। उनकी पहली कहानी अबला इंटर कालेज की पत्रिका रावी में तथा दूसरी कहानी नीली आंखें अमृतराय के सम्पादकत्व में हंस में छपी। आजादी के बाद उनका परिवार भारत आ गया था। यहां इप्टा के साथ वे प्रगतिशील लेखक संघ और अफ्रो-एशियाई लेखक संघ से जुड़े। आगे चल कर वे अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के महासिचव भी बने।

भीष्म साहनी ने विदेशी भाषा प्रकाशन गृह, मॉस्को, सोवियत संघ में अनुवादक के रूप में 1957 से 1963 तक काम किया। इसके बाद भारत लौटने पर उन्होंने ऐतिहासिक दिल्ली कॉलेज में लंबे समय तक प्राध्यापन किया।  1965 से 1967 तक उन्होंने ‘नई कहानियां’ का संपादन भी किया।

उनकी प्रमुख कृतियां हैं – तमस, झरोखे, कड़ियां, बंसती, मैय्यादास की माड़ी, नीलू नीलिमा नीलोफर (उपन्यास), भटकती राख, भाग्यरेखा, पहला पाठ, पटरियां, वाड़्चू, प्रतिनिधि कहानियां (कहानी संग्रह), हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी, मुआवजे (नाटक)। इसके अलावा उन्होंने ‘मेरे भाई बलराज’, ‘अपनी बात’, ‘मेरे साक्षात्कार’ किताबें लिखीं। दुनिया के प्राय: सभी बड़े साहित्यकारों ने बच्चों के लिए जरूर लिखा है। भीष्म साहनी ने भी बच्चों के लिए वापसी और गुलेल का खेल जैसी किताबें लिखीं।

11 जुलाई, 2003 को अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले उन्होंने आज के अतीत नाम से आत्मकथा का प्रकाशन भी करवाया। 1986 में उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘तमस’ पर टेलीविजन सीरियल बना, जिसमें उन्होंने खुद अभिनय भी किया था। उन्होंने कुछ फिल्मों में भी अभिनय किया, जिनमें ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’ प्रमुख है। भीष्म साहनी को 1975 में ‘तमस’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1980 में उन्हें अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का लोटस अवॉर्ड मिला।1983 में उन्हें सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड और 1998 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

भीष्म साहनी गहन मानवीय संवेदना से भरपूर साहित्यकार थे। वे बहुत ही विनम्र और मृदुभाषी थे। नए लेखकों से बहुत ही प्रेम और उत्साह से मिला करते थे और हर संभव उनका सहयोग करते थे। भीष्म साहनी की सबसे बड़ी खासियत थी कि उन्होंने जैसा जीवन जिया, जिन संघर्षों को झेला, उसी का चित्रण किया। उनके लिए रचना कर्म और जीवन में कोई भेद नहीं था। भीष्म साहनी हमेशा शोषणविहीन समतावादी समाज की स्थापना के लिए संघर्ष के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध रहे और उनका रचना कर्म भी इसी उद्देश्य से प्रेरित रहा।

ईमेल -  vinabhatia4@gmail.com

मोबाइल-   9013510023

Sunday 2 August 2015

F-DAY SPECIAL : अच्छे मित्र बाजार में नहीं बिकते


 - वीणा भाटिया




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-    वीणा भाटिया
दो अक्षर के इस शब्‍द मित्र का मर्म जितना गहरा है, कर्म उतना ही कठिन है। जीवन यात्रा में हम आए दिन सैकड़ों लोगों से मिलते हैं और अब तो फेसबुक हमें हजारों दोस्‍तों के संपर्क में ला रहा है। उनसे हमारे संबंध विभिन्‍न स्‍तरों पर बनते हैं और बिगड़ते भी हैं। अपरिचित भी परिचित बन जाते हैं और कभी-कभी वक्‍त का तकाजा कहिए या परिस्थितियों का चक्‍कर कि परिचित भी अपरिचित-से लगने लगते हैं। संपर्क में आए सभी लोगों से हमारी एक-सी ही आत्‍मीयता, घनिष्‍ठता या मित्रता नहीं होती, यह संभव भी नहीं है।
       कई लोग मित्र बनाने में बहुत जल्‍दबाजी से काम लेते हैं। उनका परिचय तुरंत मित्रता में बदल जाता है और वे इसे अपनी विशेषता मानते हैं, लोकप्रियता मानते हैं। हो सकता है कि जल्‍दीबाजी में हुई आपकी इस घनिष्‍ठता ने आपको एक सच्‍चा मित्र दे दिया हो, पर यह अपवाद भी हो सकता है। और अपवादों से जीवन नहीं जिया जाता। ऐसा भी हो सकता है कि जल्दीबाजी में हुई आपकी मित्रता का सूत्र ढीला हो और बुनियाद खोखली। बाद में आपको लगे कि आप मित्र बनाने की कला में पारंगत नहीं हैं और धोखा खा गए। सच्‍चा मित्र पा लेने का मतलब जिंदगी की जंग जीत लेने जैसा ही होता है। कभी-कभी किसी के प्रति मन चुंबक की भांति आकर्षित होता है। जिस व्‍यक्ति को आप मित्र बनाना चाहते हैं, वह भी आपका मित्र बनने का उत्‍सुक होता है। कभी-कभी अपना मन भी साक्षी दे देता है और इंट्यूशन काम कर जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि आप स्‍वयं कितने ही अच्छे मित्र क्‍यों न हों, पर यदि आपका मित्र आपके प्रति निश्‍छल नहीं है तो आपका सारा प्रयास बालू में तेल निकालने के समान व्‍यर्थ साबित हो जाता है। अच्‍छा और सच्‍चा मित्र बनाने के इस गंभीर मसले को बड़ी गहराई और विवेक से हल करें। दूरदर्शिता और पैनी दृष्टि का सहारा लेकर यह मापने का प्रयत्‍न करें कि अमुक व्‍यक्ति की मित्रता आपके हक में ठीक है भी या नहीं? आपके मित्र आपके व्‍यक्तित्‍व के परिचायक होते हैं। आप कैसे लोगों से मिलते हैं, आपकी मित्रता कैसे लोगों से है, इससे लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि आप स्‍वयं किस प्रकार के व्‍यक्ति हैं। कहते है मित्रविहीन मनुष्‍य के लिए अपनी कठिनाइयों पर विजय पाना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए एक अच्‍छे मित्र का होना आवश्‍यक है, पर एक बुरे मित्र से मित्र का न होना ही बेहतर है, क्‍योंकि मित्र की अच्छी या बुरी संगति का असर पड़े बिना नहीं रह सकता।

      कई बार किसी अच्‍छे मित्र का नाम लेकर लोग मिसालें दिया करते हैं-दोस्‍त हो तो ऐसा, देखो भई दोस्‍ती इसे कहते हैं आदि-आदि। अच्‍छे मित्र के विशेष गुणों की व्‍याख्‍या से हमारे शास्‍त्र, वेद और पुराण भरे पड़े हैं। सज्‍जन लोगों ने अच्‍छे मित्रों के लक्षण बताते हुए कहा है कि एक अच्‍छा मित्र अपने मित्र के गुणों को प्रकाश में लाने का प्रयास करता है। एक अच्‍छा मित्र अपने मित्र को उसकी अच्‍छाइयों और बुराइयों के साथ अपनाता है। अच्‍छे मित्र पैदा नहीं होते, बनाए जाते हैं। मित्रता की बेल को सहयोग और सद्भावना से सींचते रहना पड़ता है। सबसे बड़ी बात है कि दो मित्रों का एक-दूसरे पर विश्‍वास हो और संवेदनशील दृष्टिकोण हो। एक सच्‍चा मित्र प्रतिशोध और प्रतिस्पर्द्धा की भावना कभी नहीं रखेगा। मित्र की सफलताएं उसके मन में ईर्ष्‍या और विद्वेष उत्‍पन्‍न नहीं करेंगी, बल्कि वह उन सफलताओं को अपनी सफलता मान कर स्‍वयं गौरवान्वित महसूस करेगा।

     एक अच्‍छा मित्र बनने के लिए बहुत जरूरी है अपने बड़प्‍पन, मान-सम्‍मान और धन-दौलत के सामने मित्र को कदापि छोटा नहीं महसूस होने देना। कृष्‍ण और सुदामा की मित्रता कुछ इसी संदर्भ में याद की जाती है। गलती इंसान से ही होती है, आपके मित्र से भी हो सकती है। हर छोटी-मोटी गलती को मुद्दा न बनाएं। कब मौन रह जाना है, कब कितना कहना है और कैसे कहना है, यदि आप जानते हैं तो आपकी यह खूबी आपकी मित्रता को रसमय बनाए रखेगी।

    मित्रता को 'टेकेन फार ग्रांटेड' जानकर मित्र की हर बात में इतनी दखलंदाजी न करें कि वह आपसे बोर हो जाए। हर संबंध की एक सीमा होती है, चाहे वह संबंध रिश्‍तेदारी का हो या मित्रता का। आपकी समझदारी और दूरदर्शिता इसी में है कि आप सीमाओं का उल्‍लंघन न करें। तभी आपकी मित्रता स्थिरता, प्रौढ़ता और  परिपक्‍वता पा सकेगी। कहीं ऐसा न हो कि आपकी नादानी से एक अच्‍छा मित्र बनने से रह जाए या सच्‍चा मित्र पाकर भी आप उसे खो दें। जरूरी नहीं कि दो मित्रों की रुचि या उनके सभी शौक एक से हों। आपमें कई बातों पर मतभेद हो सकते हैं, तकरार भी हो सकती है, पर यदि आपमें पारस्‍परिक अंतरंगता, एक-दूसरे के प्रति निष्‍ठा और स्‍नेह है, तो कुछ क्षणों के लिए भले ही लगे कि मित्रता की ग्रंथि कहीं लचक कर कट-सी गई, पर यह कसैला तनाव अधिक देर तक नहीं ठहर सकेगा और आपके व्‍यवहार में सहजता आ जाएगी।

   अच्‍छे मित्र बाजार में नहीं बिकते कि आप मुंहमांगा दाम देकर दुकानदार से उसके अच्‍छे-बुरे की पूछताछ और मोलभाव करके उसे खरीद कर ला सकें। अच्‍छा‍ मित्र बड़ी मुश्किल से मिलता है। और जब मिलता है तो वरदान की भांति मिलता है। उसकी महानता के आगे सब कुछ फीका लगता है। सच्‍ची मित्रता ऊंच-नीच, जात-पात, धनी-निर्धन और छोटे-बड़े के भेदभाव की परिधि से बाहर की चीज है। अंत में इतना ही  
     चिलचिलाती धूप में
         नीम का पेड़ हैं अच्‍छे दोस्‍त
         हाथ फैलाकर मांगी
         कितनी दुआओं का फल हैं
         अच्‍छे दोस्‍त।



mob no.  9013510023