Monday 28 September 2015

आएंगे, उजले दिन ज़रूर आएंगे


- वीरेन डंगवाल

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएंगे

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे

यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हंसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएंगे

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूं
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है

आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएंगे

आएंगे उजले दिन ज़रूर आएंगे

वीणा भाटिया की कविता : सफर में

साहि‍त्‍य

वीणा भाटिया की कविता : सफर में

By haribhoomi.com | Sep 27, 2015 |


image: http://www.haribhoomi.com/haribhoomi_cms/gall_content/2015/9/2015_9$largeimg227_Sep_2015_094545573.jpg
title=



ढेरों हैं खुशियां छिपीं
नहीं है अकेलापन
ना है उदासी
‘साए में धूप’ देगी ताजगी
 
बच्चों-सा चंचल है गर बनना
‘तोतोचान’ पढ़ ही लेना
 
सरकारी तंत्र को है जानना
‘राग दरबारी’ जरूर पढ़ना
देखोगे जीवन झुग्गी-झोपड़ी का
‘मुर्दाघर’ साथ ही रखना
 
हैरान हो जाओगे
जब जानोगे
‘आवारा मसीहा’ जीवनी थी
शरतचंद्र चटर्जी की
अमृता प्रीतम संपादक थीं
‘नागमणि’ की
वारिस शाह को झकझोरा था
अमृता प्रीतम ने ही
‘रसीदी टिकट’ थी उनकी ही जीवनी
तुम नहीं
ख़ुद को पढ़वा ले जाएगी पुस्तक
गोरख पांडेय ने ही लगाई थी गुहार
‘जागते रहो सोने वालो’ की
 
ऐसे क्षण जब लगें उबने
चिंताओं से जाएं घिर
या करना है लंबा सफर
साथ रखें पुस्तक
पुस्तकों से बड़ा नहीं कोई मित्र
मित्र की नहीं लगेगी टिकट
 
‘मां’, ‘सारा आकाश’, ‘गोरा’, ‘कितने पाकिस्तान’,
‘घुमक्कड़ शास्त्र’ पढ़कर जानो
घूमने से  क्या मिलता ज्ञान
 
‘वे दिन’, ‘कबिरा खड़ा बजार में’,  
‘माटी कहे कुम्हार से’,
‘एक गधे की आत्मकथा’,
‘फेसबुक में फंसे चेहरे’, ‘लेकिन दरवाज़ा’,
‘गोदान’, पाश ‘बीच का रास्ता नहीं होता’
हंस पत्रिका, ‘गुनाहों का देवता’
साहित्य में है रुचि बढ़ाता
 
पढ़ते-पढ़ते ही
लो आ गया ठिकाना
रखें स्नेह से सहेज कर
यही तो है हमारी धरोहर।
 

Read more at http://www.haribhoomi.com/literature/poem-by-vina-bhatiya/31397.html#Xvo8KXImDAGYT8qr.99

Sunday 27 September 2015

विचारधारा तो नहीं मरती : भगत सिंह




-    वीणा भाटिया/ मनोज कुमार झा 



शहीदे आजम भगत सिंह इस देश के ऐसे क्रांति-नायक रहे हैं, जिनका नाम बच्चा-बच्चा जानता है। अल्प आयु में ही भगत सिंह ने इस देश के क्रांतिकारियों को जैसा नेतृत्व प्रदान किया, वह दुनिया के इतिहास में अभूतपूर्व है। भगत सिंह एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने स्व को जन के लिए समग्रत: अर्पित कर दिया था। उन्होंने क्रांति की परिभाषा दी थी – प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा। आगे चल कर अपने प्रसिद्ध लेख बम का दर्शन में उन्होंने क्रांति के संबध में लिखा – क्रांतिकारियों का विश्वास है कि देश को स्वतंत्रता क्रांति से मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रांति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों तथा उनके पिट्ठुओं से क्रांतिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जाएं। क्रांति पूंजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार देने वाली प्रणाली का अंत कर देगी, यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी, उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा। क्रांति में सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मज़दूरों तथा किसानों का राज्य कायम कर उन सब अवांछित तत्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनीतिक शक्ति को हथियाए बैठे हैं। इससे स्पष्ट है कि भगत सिंह देश के लिए कैसी स्वतंत्रता चाहते थे। वे देश के लिए ऐसी स्वतंत्रता चाहते थे जिसमें देश के मज़दूर-किसान खुल कर सांस ले सकें। वे स्वतंत्र भारत में मज़दूरों-किसानों का राज स्थापित करना चाहते थे और एक शोषणविहीन समाज बनाना चाहते थे।


बहुत से लोग भगत सिंह को एक स्वप्नदर्शी रोमांटिक क्रांतिकारी मानते हैं जिन्होंने क्रांतिकारिता को महिमामंडित करने के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया। वैसे देखा जाए तो हर क्रांतिकारी स्वप्नदर्शी होता है। लेकिन भगत सिंह ने अपने देश के इतिहास के साथ दुनिया के इतिहास का भी गहन अध्ययन किया था और इससे उन्हें जो अंतर्दृष्टि मिली थी, उससे उन्होंने अपने समय और समाज के मूल अंतर्विरोधों को काफी गहराई से समझा था। आज़ादी से उनका मतलब देश से सिर्फ़ अंग्रेज़ों को भगाना ही नहीं था, वरन् एक ऐसी समाज व्यवस्था की नींव डालनी थी जिसमें वर्गीय शोषण का खात्मा हो सके। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था – भारत सरकार का मुख्य लार्ड रीडिंग की जगह यदि सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास हों, यदि लार्ड इरविन की जगह सर तेजबहादुर सप्रू आ जाएं तो जनता को इससे क्या फ़र्क पड़ेगा? तो राष्ट्रीय भावनाओं की अपील बिल्कुल बेकार है। उसे आप अपने काम के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते। आपको गंभीरता से काम लेना होगा और उन्हें (जनता को) समझाना होगा कि क्रांति उनके हित में है और उनकी अपनी है। उन्होंने लिखा था – क्रांति करना बहुत कठिन काम है। यह किसी एक आदमी के वश की बात नहीं है। और न ही किसी निश्चित तारीख को आ सकती है। यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को संभालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है। इस सबके लिए क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानियां देनी होती हैं। ...हम तो लेनिन के अत्यंत प्रिय शब्द पेशेवर क्रांतिकारी का प्रयोग करेंगे। पूरा समय देने वाले कार्यकर्ता, क्रांति के सिवाय जीवन में जिनकी और कोई ख्वाहिश ही न हो। जितने अधिक ऐसे कार्यकर्ता पार्टी में संगठित होंगे, उतने ही सफलता के अवसर अधिक होंगे।


भगत सिंह के लिए आज़ादी का मतलब था एक शोषणविहीन समाज की स्थापना और वे राष्ट्रवाद के भुलावे से दूर थे। अपने अध्ययन, चिंतन और मनन से उन्होंने समझ लिया था कि देश की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से संघर्ष और समझौते करने वाली पार्टी कांग्रेस का चरित्र क्या है? वे अच्छी तरह समझ चुके थे कि कांग्रेस आज़ादी के नाम पर देश में पूंजीपतियों के शासन की स्थापना करना चाहती है। इसीलिए भगत सिंह ने अपने लेखन में बराबर कांग्रेस की नीतियों की पोल खोली। उन्होंने बार-बार यह चेतावनी दी कि कांग्रेस के नेतृत्व में देश की मेहनतकश जनता को मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके लिए एक क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण पर उन्होंने शुरू से जोर डाला।


भगत सिंह ने लिखा – क्या यह अपराध नहीं है कि ब्रिटेन ने भारत में अनैतिक शासन किया? हमें भिखारी बनाया, हमारा समस्त ख़ून चूस लिया। एक जाति के लिहाज से हमारा घोर अपमान तथा शोषण किया गया है। क्या जनता अब भी चाहती है कि इस अपमान को भुलाकर हम ब्रिटिश शासकों को क्षमा कर दें। हम बदला लेंगे, जो जनता द्वारा शासकों से लिया गया न्यायोचित बदला होगा...हमारा युद्ध विजय या मृत्यु के फैसले तक चलता रहेगा। क्रांति चिरंजीवी हो।   
  

क्रांति से अपने अभिप्राय को और भी स्पष्ट करते हुए भगत सिंह ने लिखा कि इस शताब्दी में इसका सिर्फ़ एक ही अर्थ हो सकता है – जनता के लिए जनता की राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है क्रांति, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ़ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक वर्ग के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगारों को हटा कर जो उस व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं, आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लेकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयां एक स्वार्थी समूह की तरह एक-दूसरे का स्थान लेने को तैयार हैं।
 

अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों के लिए भगत सिंह की विचारधारा अत्यंत ही ख़तरनाक थी। यही कारण है कि आनन-फानन में अंग्रेज़ों ने भगत सिंह को फांसी के फंदे से लटका दिया और यह समझने लगे कि एक बड़े ख़तरे से वे मुक्त हो चुके हैं। लेकिन वे इस बात को भूल गए कि व्यक्ति को तो मारा जा सकता है, पर उसकी विचारधारा का कैसे अंत किया जाएगा? विचारधारा तो नहीं मरती। समय के साथ वह और भी मजबूत और प्रासंगिक होकर उभरती है।


आज़ादी मिलने के बाद हमारे देश के शासकों ने पूरी कोशिश की कि नई पीढ़ी को भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों के बारे में कम से कम बताया जाए। उनके असली विचारों को जनता से छिपाया जाए। शासक वर्ग ने भगत सिंह कोशहीदे आजम घोषित कर दिया और उनकी तस्वीरों पर फूलमाला चढ़ाई जाने लगी। उन्हें किसी अवतार की तरह स्थापित किया जाने लगा। पर विचारधारा को छुपाना या दबाना संभव नहीं है। विचारधारा तो एक ऐसी आग़ है जो निरंतर सुलगती रहती है। आज जब भगत सिंह से संबंधित तमाम दस्तावेज़ सामने आ चुके हैं, तो पता चलता है कि भगत सिंह की विचारधारा कितनी गहन और गंभीर थी तथा उतनी कम उम्र में उन्होंने कितना व्यापक अध्ययन और कितना गहरा चिंतन किया था।



भगत सिंह ने लिखा ही था कि क्रांति कोई आसान चीज़ नहीं है। उन्हें इस बात का अहसास जरूर रहा होगा कि क्रांतिकारी ताकतों की कमजोरी के कारण देश पर पूंजीपतियों का राज कायम हो जाएगा। गोरे अंग्रेज़ काले अंग्रेज़ों को सत्ता सौंप कर चले जाएंगे और भविष्य में उन्हें कैसे लूटना जारी रखें, इसका इंतज़ाम करके जाएंगे। हुआ भी यही। यहां से जाने से पहले अंग्रेज़ों ने देश का विभाजन कर दिया जो दुनिया के आधुनिक इतिहास की सबसे त्रासद घटना मानी जाती है। अपने लूट का साम्राज्य कायम रखने के लिए अंग्रेज़ों के लिए यह जरूरी था कि वे देश के दो टुकड़े कर दें। इसके लिए बाकायदा साजिश रची गई।


ब्रिटिश साम्राज्यवादी अपने मकसद में कामयाब हो गए। देश को आज़ादी नहीं मिली, वरन् सत्ता का हस्तांतरण हुआ। किसी तरह का कोई व्यवस्थगत बदलाव नहीं हुआ। सेना, पुलिस, अदालत, कानूनी ढांचा, सब पहले की तरह ही बरकरार रहा। अंग्रेज़ों ने इस देश को अंतिम हद तक लूटा था। उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को खोखला बना दिया था। परिणामत: आज़ादी मिलने के बाद देश के शासकों को कर्ज लेने के लिए अमेरिका और सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों के आगे हाथ फैलाना पड़ा। 
 

जनवाद के आवरण में जनता की लूट-खसोट जारी रही। गत सदी के आखिरी दशक में सोवियत संघ का अवसान हो जाने के बाद अमेरिका दुनिया भर में अपनी दादागिरी दिखाने लगा। उसने एकध्रुवीय विश्व की घोषणा कर दी। अमेरिका के दबाव में भारत के शासकों ने नई आर्थिक नीति अपना ली जो पूरी तरह साम्राज्यवादियों और बड़े पूंजीपतियों के पक्ष में थी। इस नीति के अपना लेने के बाद सरकार ने जनकल्याण की मामूली यानी ऊंट के मुंह में जीरे के समान योजनाओं से भी मुंह मोड़ लिया। हर चीज का निजीकरण किया जाने लगा। जनता के पैसे से खड़ी की गई पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को कौड़ियों के मोल देशी और विदेशी पूंजीपतियों के बेचा जाने लगा। देशी-विदेशी पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार ने किसानों की ज़मीन का जबरदस्ती अधिग्रहण करना शुरू कर दिया, जिसका भारी विरोध हुआ। देश की अपार खनिज संपदा पर विदेशी साम्राज्यवादी कंपनियों की नज़र लगी हुई थी। उस संपदा की लूट की खुली छूट उन्हें देने के लिए सरकार ने पहाड़ों और जंगलों से आदिवासियों को बेदखल करना शुरू कर दिया। इसका भारी विरोध हुआ और हो रहा है, पर सरकार दमन की नीति पर चल रही है। 


यह व्यवस्था अब इतनी सड़ांधपूर्ण हो चुकी है कि इसमें सारी चीजें बिकाऊ माल बन कर रह गई हैं। शिक्षा का खुला व्यापार हो रहा है। स्वास्थ्य सुविधाओं का भी वही हाल है। बड़े-बड़े अफ़सरों और मंत्रियों ने ग़रीब जनता का धन लूट कर अरबों रुपए बना लिए हैं। इस व्यवस्था में न्याय भी बिक रहा है। कृषि व्यवस्था इतनी बदहाल हो चुकी है कि देश के लाखों किसान कर्ज के मकड़जाल में फंस कर आत्महत्या कर चुके हैं। 


भगत सिंह ने तमाम समस्याओं की जड़ पूंजीवादी व्यवस्था को माना था। यह व्यवस्था भांति-भांति के मुखौटे लगा कर जनता को गुमराह करने की कोशिश करती है। यह स्वतंत्रता और जन कल्याण का झूठा राग अलापती है। पर वास्तव में, हृदयहीन और निर्मम होती है। भगत सिंह के विचारों से इस बात को समझा जा सकता है कि इस व्यवस्था में मनुष्यता का कोई भविष्य नहीं है।  

Wednesday 23 September 2015

स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की स्मृति में



-    - गोरख पांडेय




मरना आसान है, कठिन है जीना
कठिन है जीना कि एक मौत है भूख
जो कल-कारखानों से लेकर हरे-भरे मैदानों तक
अजगर की तरह पसरी है
दूसरी मौत है गुलामी
जिसे कायम रखने के लिए
पूरा का पूरा कारखाना है और तोपची है
सब कुछ को अपने अछोर अंधेरे के गाढ़े पर्दे में छिपाए
जो व्यवस्था कहलाती है
और फ़िर वह मौत तो है ही
जो कंगाल मुल्क में बार-बार महामारी बन जाती है

मरना आसान है, जीना है कठिन
लेकिन इस अछोर अंधेरे के गाढ़े पर्दे को
चीरते हुए तुम आते हो पैरों में सदा चप्पलें डाले
ढीले और चुस्त पाजामे में
माथे पर बल और निगाहों में चुनौती लिए
तुम आते हो, रोती हुई दुलहिनों के चुप कराते हो
सन्नाटा तोड़ने के लिए
काठ की घंटियों से कहते हो – बजो
जहां जाकर आदमी आसानी से खो जाता है
उस शहर से अपने गांव की ओर लौटते हो
और उस कच्ची सड़क की तलाश में भटकते हुए
जो जड़ों की ओर जाती है, तुम मौत को पहचानते हो
भूख और गुलामी के अछोर अंधेरे में फैली हुई
आदमी की और देश की, यानी हर वेश की
मौत को पहचानते हो

अब तुम कुआनो नदी के किनारे हो
जिसमें बाढ़ आ गई है
और सब कुछ डूब रहा है
मगर बाढ़ और कीचड़ का इतिहास पार करते हुए
अब तुम उस ज़मीन पर आ गए हो
जहां से जीवन के सोते फूटते हैं
जहां पत्थरों की छाती पर उग आती है अक्षत धूप
जहां से रोशनी की कोंपलें निकलती हैं

तुम आते हो अपने लोगों के पास
फटेहाल किसानों और मज़दूरों के पास
तुम अपने गांव लौटते हो, नक्सलबाड़ी
जो तुम्हारी तरह हम सबका गांव है
लुटी हुई मगर जो लूट का विरोध करने में जुटी हुई
हम सबकी बस्ती है

यहां तुम्हारे और सबके चेहरे एक हो गए हैं
और तुम अंधेरे पर हमला शुरू करते हो
दोस्तों को पुकारते
और सिर्फ़ शब्दों से दुश्मनों के छक्के छुड़ाते
आगे बढ़ते हो

भेड़ियों के खिलाफ़ जलाते हो मशाल
और मौत के खिलाफ़ अगली रणनीति तैयार करने में
शामिल होते हो, तुम हमारे बीच होते हो
अपने लोगों, अपनी लय, अपने संकल्प
और अपनी ताल के बीच होते हो
कि अचानक नहीं होते हो, हम सकते में आ जाते हैं
हमें छोड़ कर तुम ज़मीन हवा जल और रोशनी में मिल गए हो

हमें सदमा है कि अभी तो तुम्हें यहां होना था
हज़ार संभावनाओं के साथ, रोशनी और आज़ादी की
ख़ूबसूरत कविताओं और गीतों के साथ
मेहनती मगर सताए हुए लोगों की उम्मीदों,
सपनों और लड़ाइयों के साथ

तुम वहां से बहुत आगे निकल गए थे
जहां से चले थे, मगर तुम्हें अभी और आगे जाना था
अभी कल ही तो नागभूषण पटनायक से मिलना था
और मौत के खिलाफ़ उनकी लड़ाई में शामिल होना था
करने थे अभी सुख-दुख के हज़ार चरचे
घटनाओं को अपने विवेक के चरखे पर कातना था
बच्चों में बांटना था नए विचारों का पराग
पीड़ित लोगों में विद्रोह का राग बांटना था

लेकिन तुम नहीं हो
हमने अपना एक सेनापति खो दिया है
हमारी एक मशाल बुझ गई है
हमारे गीतों की एक प्यारी कड़ी टूट गई है

एक गहरे सदमे में तुम्हारी यादों से घिरे
हम यहां खड़े हैं
जहां दूर से आती हुई एक धीमी ललकार
सुनाई पड़ रही है
आगे बढ़ो दोस्तों, आख़िर इस तरह कैसे चल सकता है?
इतनी भूख है इतनी गुलामी है इतनी मौत है
जीवन को चारों ओर दबोचती इतनी मौत
आख़िर इस तरह कैसे चल सकता है?

दोस्तों, आगे बढ़ो कि यह अछोर अंधेरा हट जाए
कि ज़िंदगी जीते, मौत डर कर सामने न आ पाए
और कभी आए तो तुम्हारा आदेश लेकर आए
गरज यह कि जीना आसान हो
मरना कठिन हो जाए।

Monday 14 September 2015

गुर्राता है भेड़िया : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


-    वीणा भाटिया





भेड़िया गुर्राता है

तुम मशाल जलाओ

उसमें और तुममें

यही बुनियादी फर्क है

भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।




इन पंक्तियों से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के मर्म को समझा जा सकता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना नई कविता के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे हैं। अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित 'तीसरा सप्तक' में उनकी कविताएं प्रकाशित हुई थीं। इनके साथ ही केदारनाथ सिंह और विजयदेव नारायण साही की कविताएं भी प्रकाशित हुई थीं। 'तार सप्तक', 'दूसरा सप्तक' और 'तीसरा सप्तक' में ऐसे कई कवियों की रचनाएं प्रकाशित हुईं, जिन्होंने नई कविता आंदोलन को आगे चल कर लोकाभिमुख किया। कविता को जन से जोड़ा और अभिजनोन्मुख प्रयोगधर्मिता से अलग हट कर युगीन यथार्थ एवं चुनौतियों को सामने लाने का काम किया। 'तार सप्तक' के कवियों में मुक्तिबोध के बाद सर्वेश्वर दयाल सक्सेना प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के अग्रणी कवि हैं। इन्होंने कविता में जितने प्रयोग किए हैं, उतने प्रयोग उनकी पीढ़ी के शायद ही किसी कवि ने किए हों। जिस समय कविता गद्य के करीब होती चली जा रही थी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने उसे छंद से जोड़ा। साथ ही, उन्होंने अपनी कई कविताओं में लोकधुनों को शामिल किया और  लोक संगीत का तत्व उसमें जोड़ा। सर्वेश्वर गहन और जटिल अनुभूतियों के कवि हैं, पर उनमें जो सहजता और संप्रेषणीयता है, वह दुर्लभ है। उस दौर में सर्वेश्वर ने अपनी लोकधर्मी रचनाशीलता से आने वाली पीढ़ियों को एक नई दृष्टि दी। समय के साथ उनकी कविताएं ज़्यादा ही धारदार होती चली जाती हैं। उनमें व्यंग्य का तत्व उभर कर सामने आने लगता है।

 'व्यंग्य मत बोलो

काटता है जूता

तो सिर पर रखकर डोलो

व्यंग्य मत बोलो।'

ऐसी ही कई कविताओं में सर्वेश्वर का स्वर और भी तीखा होता चला जाता है। अपनी कविताओं में जहां वे व्यवस्था के विद्रूप को उजागर करते हैं, वहीं एक ऐसी दृष्टि भी देते हैं, जो क्रांति की ओर अग्रसर करती है। 70 के दशक में जब व्यवस्था ही नहीं, वाम राजनीति से भी युवाओं का मोहभंग होने लगा, पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत हुई। इसकी चिंगारी जल्दी ही देश के कई हिस्से में फैल गई। इस आंदोलन ने हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों-लेखकों और संस्कृतिकर्मियों पर गहरा असर डाला। नागार्जुन जैसे कवियों ने खुलकर इस आंदोलन का स्वागत किया। सर्वेश्वर भी इसके असर से अलग नहीं रह सके। उस दौरान लिखी कई कविताओं पर इस प्रभाव को महसूस किया जा सकता है। सर्वेश्वर ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी एक अलग ही राह बनाई। वे लीक पर चलने वाले रचनाकार नहीं थे। उन्होंने लिखा -

 "लीक पर वे चलें जिनके

चरण दुर्बल और हारे हैं ,

हमें तो जो हमारी यात्रा से बने

ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।"


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने कविता के साथ नाटक भी लिखे और इस विधा में भी नया प्रयोग किया। 'बकरी' इनका बहुत ही प्रसिद्ध नाटक है। प्राय: बड़े साहित्यकारों ने बाल साहित्य की रचना जरूर की है, चाहे प्रेमचंद हों या निराला। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बाल साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किया। 'बतू्ता का जूता', 'रानी रूपमती और राजा बाज बहादुर' और  'भौं भौं उनकी प्रसिद्ध बाल रचनायें हैं। 'पकौड़ी की कहानी' एक अद्भुत बाल कविता है। सर्वेश्वर बाल साहित्य की रचना को बहुत खास मानते थे। आगे चल कर उन्होंने सुप्रसिद्ध बाल पत्रिका 'पराग' का संपादन किया और बाल साहित्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का मानना था जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। 1964 में जब 'दिनमान' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो अज्ञेय के आग्रह पर उन्होंने लखनऊ रेडियो की नौकरी छोड़ दी और 'दिनमान' में काम करना शुरू किया। एक पत्रकार के रूप में इस क्षेत्र मे उन्होंने नये प्रतिमान स्थापित किए। 'दिनमान' में प्रकाशित होने वाला उनका स्तंभ 'चरचे और चरखे' बहुत ही लोकप्रिय हुआ। इसके अलावा, उन्होंने बहुत से राजनीतिक लेख, रिपोर्ताज और टिप्पणियां लिखीं। ऑल इंडिया रेडियो में सहायक संपादक के पद पर काम करने के पहले वे इलाहाबाद में एजी ऑफिस में डिस्पैचर के पद पर काम करते थे।


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म 15 सितंबर, 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में हुआ था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से उन्होंने एमए की शिक्षा हासिल की।


1983 में कविता संग्रह 'खूंटियों पर टंगे लोग' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। सर्वेश्वर की कई रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। 24 सितंबर,1983 को इनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। उस समय वे 'पराग' के संपादक थे।


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के प्रमुख कविता संग्रह हैं - 'काठ की घंटिया', 'बांस का पुल, 'एक सूनी नाव', 'गर्म हवाएं', 'कुआनो नदी', 'कविताएं-1', 'कविताएं-2', 'जंगल का दर्द', 'कोई मेरे साथ चले' और 'खूंटियों पर टंगे लोग'। सर्वेश्वर ने उपन्यास भी लिखे। 'सोया हुआ जल' और 'पागल कुत्तों का मसीहा' उनके लघु उपन्यास हैं। उन्होंने कहानियां भी लिखीं। 'अंधेरे पर अंधेरा' कहानी संग्रह है। 'कुछ रंग कुछ गंध' उनका यात्रा-वृत्तांत है। इसके साथ-साथ उन्होंने 'शमशेर' और 'नेपाली कविताएं' नामक कृतियों का संपादन भी किया।


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की लेखनी से शायद ही कोई विधा अछूती रही हो। उनका समस्त लेखन शोषण पर आधारित वर्तमान व्यवस्था पर प्रहार करता है और नये जीवन मूल्यों की स्थापना करता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उन साहित्यकारों में हैं जिन्होंने हिंदी कविता को एक नया ही स्वर दिया। उनकी कविताओं में लोक जीवन के रंग बिखरे पड़े हैं, साथ ही व्यवस्था पर मारक प्रहार भी है। इसके साथ ही आधुनिक युग में मनुष्य के अकेले पड़ते जाने का दर्द भी उनकी कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का व्यक्तित्व बहुत ही विराट था। वह सरल हृदय के थे। नए लेखकों-कवियों को उनसे काफी प्रेरणा मिलती थी। वे हर समय उनके सहयोग के लिए तत्पर रहते थे। उनके मन को हम इन काव्य पंक्तियों से समझ सकते हैं -



"कुछ धुआं

कुछ लपटें

कुछ कोयले

कुछ राख छोड़ता

चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूं,

मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!"

Sunday 13 September 2015

आज भी भारत पर राज कर रही है अंग्रेजी


- वीणा भाटिया


विडंबना ही कहेंगे कि पूरे देश में संचार की मुख्य भाषा होने के बावजूद आज भी हिंदी की स्थिति दोयम दर्जे की बनी हुई है। हर साल 14 सितंबर को लाखों-करोड़ों खर्च कर हिंदी दिवस मनाया जाता है, पर कुल मिला कर यह एक अनुष्ठान का रूप ले चुका है, जिसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता। हिंदी वह एकमात्र भाषा है जो एक अरब सत्ताइस करोड़ की आबादी वाले देश में सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती है। लगभग 70 फीसदी आबादी की यह मुख्य भाषा है। यह बाजार की भी भाषा है। बावजूद आज हिंदी ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी ही हावी है। जन-जन की भाषा होने के बावजूद हिंदी ज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है। ज्ञान की तमाम शाखाओं में अंग्रेजी का प्रभुत्व आज भी पहले की तरह ही बना हुआ है। हिंदी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा का संवैधानिक दर्जा तो हासिल है, पर संसद से लेकर न्यायालयों, सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी में ही काम होता है। खास बात यह है कि आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी अगर कोई अंग्रेजी में बोल-लिख नहीं सकता तो उसे शिक्षित नहीं माना जाता। उच्च शिक्षा हासिल करने और अच्छा रोजगार पाने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता आज भी बनी हुई है। स्थिति यह है कि ढंग से अंग्रेजी नहीं जानने के कारण छोटे शहरों और कस्बों के प्रतिभाशाली युवा उच्च शिक्षा और नौकरियों के क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं।


अंग्रेजी के प्रति समाज के हर तबके में आकर्षण इतना ज्यादा है कि आज हर छोटे-बड़े शहरों में कुकरमुत्तों की तरह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए हैं। आज अंग्रेजी बोलना समाज में प्रतिष्ठा पाने का परिचायक बन गया है। लोगों की इसी मानसिकता का फायदा उठाते हुए महानगरों और बड़े शहरों की तो छोड़ें, छोटे-छोटे कस्बों तक में अंग्रेजी बोलना सिखाने वाले न जाने कितने संस्थान खुल गए हैं।


उल्लेखनीय है कि जब अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा नीति बनानी शुरू की थी तो इस बात पर काफी बहस हुई थी कि शिक्षा का माध्यम क्या होगा। अंग्रेज नीति-निर्माताओं में एक तबका ऐसा भी था जिसका मानना था कि शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए, लेकिन साम्राज्यवाद के हित में इस नीति को स्वीकार नहीं किया गया और लॉर्ड मैकाले की वह नीति स्वीकार कर ली गई जिसके तहत उसने घोषणा की थी कि हमें ऐसे लोग तैयार करने हैं जो तन से भारतीय, पर मन से अंग्रेज हों और बाबूगीरी का काम कर सकें। उसकी यह नीति कामयाब रही और आज तक भी जारी है। यही कारण है कि आज की शिक्षा व्यवस्था भी थोक में बाबुओं को पैदा करने का काम कर रही है। स्वतंत्र विचार और मौलिक चिंतन की प्रेरणा आज की शिक्षा से नहीं मिल पा रही है।


भूलना नहीं होगा कि अंग्रेजी के प्रभुत्व के खिलाफ भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर प्रेमचंद और निराला जैसे लेखकों-कवियों ने संघर्ष किया। आधुनिक हिंदी के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा था – निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल। उन्होंने यह भी लिखा – अंग्रेजी पढ़ के यद्यपि सब गुण होत प्रवीण, पर निज भाषा ज्ञान के रहत हीन के हीन। इसी प्रकार, महात्मा गांधी ने हिंदी यानी जन-जन की भाषा हिंदुस्तानी के प्रसार के लिए अथक संघर्ष किया। महात्मा गांधी अंग्रेजी के प्रभुत्व के इतने विरोधी थे कि उन्होंने साफ कह दिया था – यह भूल जाओ कि मैं अंग्रेजी जानता हूं। उन्होंने हिंद स्वराज अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी थी। उनका कहना था कि हर क्षेत्र में कामकाज हिंदुस्तानी में होना चाहिए। हिंदुस्तानी का मतलब था वह हिंदी जो संस्कृत और अरबी-फारसी के प्रभावों से दूर हो और आम जनता को आसानी से समझ में आए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। आजादी मिलने के बाद भी हर क्षेत्र में अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रहा जो आज तक भी कम नहीं हुआ है। विख्यात आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने अंग्रेजी के प्रभुत्व और हिंदी की हीन दशा को लेकर यहां तक कहा था कि अंग्रेजी साम्राज्ञी है और हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएं दासी की भूमिका में हैं।



कहा जा सकता है कि देश में अंग्रेजी का वर्चस्व और हिंदी के दोयम दर्जे वाली स्थिति औपनिवेशिक दासता के अतीत के कारण है। यह अलग बात है कि देश को राजनीतिक तौर पर आजाद हुए दशकों गुजर गए, पर मैकाले की नीति ने मानसिक तौर पर गुलाम लोगों की ऐसी पीढ़ियां तैयार कर दी जो राजनीति से लेकर प्रशासन, उद्योग, उच्च शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में हावी रहीं। देश को राजनीतिक आजादी मिली, पर सांस्कृतिक तौर पर वह औपनिवेशिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो सका। राजनीति, प्रशासन, न्यायतंत्र, शिक्षा और सबसे बढ़कर सामाजिक-आर्थिक ढांचा औपनिवेशिक ही बना रहा। कोई मूलगामी परिवर्तन नहीं हुआ। इसी का परिणाम है कि आज अंग्रेजी पूरे तंत्र पर हावी है और इससे हिंदी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाएं भी पिछड़ी दशा में हैं। जब कभी हिंदी को लेकर संघर्ष की शुरुआत होती है, तो अंग्रेजी के समर्थक कहने लगते हैं कि भारत एक बहुभाषी देश है और हिंदी को किसी पर लादा नहीं जा सकता। 


यह ठीक है कि भारत एक बहुभाषी देश है, लेकिन इसे इतिहास ने साबित किया है कि हिंदी पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा है। लेकिन हिंदी किसी पर थोपी नहीं जा सकती, इस तर्क की आड़ में अंग्रेजी समर्थक औपनिवेशिक मानसिकता वाला सत्ताधारी सर्वशक्ति संपन्न वर्ग पूरे देश पर, हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं पर भी अंग्रेजी थोप देता है। क्या यह सही है? इस बात को कभी नहीं भूला जाना चाहिए कि अंग्रेजी का प्रभुत्व कायम रहना हिंदी के लिए ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के विकास में बाधक है। हिंदी के समर्थन का मतलब अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध है, न कि अन्य भारतीय भाषाओं का। सभी भारतीय भाषाओं का विकास तभी संभव है, जब अंग्रेजी शासन, राजकाज और शिक्षा की भाषा न रहे, बल्कि उसका स्थान भारतीय भाषाएं लें। हिंदी देश में सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती है, इसलिए स्वाभाविक है कि उसे राष्ट्रभाषा और राजभाषा का दर्जा मिला। लेकिन यह तो सिर्फ़ कहने के लिए है। वास्तव में अभी भी अंग्रेजी ही भारत पर राज कर रही है।