Sunday 13 September 2015

भगवत रावत : हिंदी की लोक परंपरा के प्रतिनिधि कवि

-    वीणा भाटिया




आंखें जब सब कुछ देखते हुए भी नहीं देखतीं
कान के पर्दे जब किसी आवाज़ पर नहीं कांपते
हाथ-पैर जब किसी घटना पर नहीं हिलते-डुलते
असर नहीं करती जब नथुनों पर चारों ओर फैली सड़ांध
दिल जब धड़कते-धड़कते किसी बात पर नहीं धड़कता
क्या इसी तरह नहीं होती आदमी की मौत
क्या यह सब किसी खास लम्हे में ही होता है
फ़िर किसका किया जा रहा है इंतज़ार
कब होगी मौत की घोषणा ?
-    भगवत रावत

इस कविता को पढ़ते हुए अनायास क्रांतिकारी कवि पाश की प्रसिद्ध कविता सबसे ख़तरनाक की पंक्तियां दिमाग में कौंधने लगती हैं। सवाल है, उपरोक्त कविता में कवि मौत की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए किसकी मौत की घोषणा के बारे में पूछ रहा है ? संघर्ष विमुख मध्यवर्गीय समाज पर इससे कड़ी और कोई टिप्पणी क्या संभव है ? पर सवाल का जवाब ढूंढना ज़रूरी है और इसके लिए ज़रूरी है भगवत रावत की कविताओं से साक्षात्कार करना।


भगवत रावत समकालीन हिंदी कविता में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। आज जब प्रगतिशीलता और जनवाद के नाम पर अधिकांश कविताएं जहां सपाटबयानी, जुमलेबाज़ी और कोरी भावुकता की अभिव्यक्ति मात्र रह गई हैं, भगवत रावत की कविता अपने कथ्य और रूप विधान में पूर्णत: यथार्थवादी है। इनकी रचनाशीलता का क्षेत्र अत्यंत ही व्यापक है। प्रकृति एवं समाज से कवि पूरी तरह एकात्म है। भाव-बोध के अत्यंत ही उच्च स्तर पर सृजित होने वाली उनकी कविताएं पाठकों-श्रोताओं को जटिल एवं संशलिष्ट यथार्थ के बहुविध पहलुओं से सामान्यीकृत कराती हैं। संवेदना के स्तर पर भगवत रावत की कविताएं पाठकों को झकझोरने के साथ ही उसके मन में बजती हैं। स्वयं कवि का कहना है कि जो कविताएं पाठकों के मन में नहीं बजे उन्हें कविता मानने में संदेह होता है। रावत की कविताओं में जहां चुप्पी है, वह भी कुछ न कुछ कहती है...काव्य पंक्तियों के बीच की खाली जगहें, संकेत-चिह्न...सब कुछ अभिव्यक्ति को गंभीर अर्थ प्रदान करने वाले हैं। स्पष्ट है कि कवि अद्भुत शिल्प-विधान की रचना करता है जो काव्य अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्रयोग के नए प्रतिदर्श बन जाते हैं। पर इससे यह समझना ग़लत होगा कि रावत शिल्प पर ज़ोर देते हुए पूर्णत: प्रयोगधर्मी कवि हैं, सच तो यह है कि इनकी कविता विचारों की सान पर धारदार होती चली गई है।


वैसे, कवि का मानना है कि लिखित होना आज कविता की नियति बन चुकी है, पर मूलत: यह उच्चरित ध्वनि है और अलग-अलग मन:स्थितियों में सुनने अथवा पढ़े जाने पर अलग छवियां दृश्यमान करती हैं। रावत कहते हैं, आज हिंदी कविता कुछ इतनी लिखित होती जा रही है कि धीरे-धीरे सामान्य मनुष्य की भाषा, उसकी प्रकृति, बोली-बानी और रूप-रंग से दूर होती जा रही है। स्पष्ट है कि आज कविता के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें काफी दोहराव और विवरणात्मकता है, जबकि कविता एक सूक्ष्म और जटिल विधा है। 


रावत यह भी कहते हैं, अपने समय की घटनाओं, दुर्घटनाओं, छल, प्रपंच, पाखंड, प्रेम, करुणा, षड्यंत्र, राजनीति आदि से विमुख होकर आज की कविता संभव नहीं है। यही कारण है कि आज की कविता मात्र संवेदना नहीं जगाती, वह आंखें भी खोलती है। वह करुणा और प्रेम में ही नहीं डुबाती, व्याकुल भी बनाती है। इसलिए वह समाज की सामूहिक चेतना की रचनात्मकता का प्रतीक है। मुक्तिबोध की शब्दावली में वह हमारी चेतना का रक्तप्लावित स्वर भी है। जीवन की तमाम जटिल अनुभूतियों और स्थितियों में जाते हुए वह कई बार जटिल भी हो जाती है। कविता को आवश्यकतानुसार इतना जटिल होने की छूट मिलनी चाहिए। बावजूद भगवत रावत की कविताएं मुक्तिबोध की कविताओं का भांति इतनी जटिल नहीं कि आम पाठकों के पल्ले ही न पड़ें। अधिकांश कविताएं सहज संप्रेषणीय हैं। पर जैसा कि पहले कहा गया है, अलग-अलग मन:स्थितियों में कविता में अलग-अलग अर्थ छवियां संप्रेषित होती हैं। भगवत रावत इस दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कवि हैं कि इनकी कविता पूरी तरह लोक से जुड़ी हुई है। लोकचेतना से इनकी कविता किस हद तक संपृक्त है, इसे हे बाबा तुलसीदास, बोल मसीहा, बुन्देली में चार कविताएं, ईसुरी और रजऊ के नाम, बैलगाड़ी, अथ रूपकुमार कथा और सुनो हिरामन जैसी लंबी कविताओं में देखा जा सकता है। वह मां ही थी, सोच रही है गंगाबाई, कचरा बीनती लड़कियां और भरोसा जैसी न जाने कितनी कविताएं हैं जो लोक से कवि की प्रतिबद्धता को दिखाती हैं।


वस्तुत: भगवत रावत हिंदी कविता की समृद्ध लोक परंपरा के श्रेष्ठ कवियों में एक हैं। काव्य की इस लोक परंपरा की जड़ें उत्तर मध्य काल के भक्ति आंदोलन में हैं। समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में कविता की लोकधारा उस जन से जुड़ जाती है जो कवि त्रिलोचन के शब्दों में भूखा है दूखा है कला नहीं जानता...। इस सांस्कृतिक परिवेश में कवि मानुष गंध की पहचान करने की कोशिश करता है। वह मानव संस्कृति को ख़तरे में डालने वालों से लोगों को सावधान करना ज़रूरी समझता है जो आयुधों के यान पर सवार हो कर आ रहे हैं। वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक परिवेश में श्रमजीवियों के जैविक अस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरों से क्षुब्ध हो कर वह यह कहने को मजबूर हो उठता है कि क्या इसी के लिए धारण की थी देह ?’ वहीं, अनेकानेक कविताओं में वह वर्तमान सभ्यता और संस्कृति के अंतर्विरोधों को बड़े ही सूक्ष्म स्तर पर उजागर करते हुए आज के उपभोक्ता समाज में जीवन की अर्थवत्ता पर सवाल खड़े करता है।


रावत की कविताओं में रूप-रंग-रस-गंध-नाद का वह निनाद है जो पाठकों को संतृप्त कर देता है। शमशेर की तरह रावत ध्वनि संकेतों से चित्र-रचना करते हैं। इस मायने में वे एक उच्च कोटि के कलाकार हैं। यह एक खास बात है कि रावत कविता को मूलत: एक श्रव्य माध्यम मानते हैं, ऐसा इसलिए कि वह लोक परंपरा के कवि हैं, उस सामाजिक परिवेश के कवि हैं, जिनमें त्रिलोचन की चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती। कम से कम शब्दों में यही कहा जा सकता है रावत हिंदी की लोक परंपरा के, जिसकी धारा भक्ति काल से चली आ रही है, प्रतिनिधि कवि हैं।


भगवत रावत का जीवन प्रारंभ से ही संघर्षशील रहा। झांसी से एमए, बीएड करने के बाद इन्होंने प्राइमरी स्कूल में अध्यापन कार्य किया। फिर 1983 से 1994 तक रीडर पद पर कार्य किया। दो वर्ष तक मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक रहे। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिंदी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष रहे। वे साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् के निदेशक भी रहे और मासिक पत्रिका साक्षात्कार का संपादन किया।


इनके प्रमुख कविता संग्रह हैं – समुद्र के बारे में (1977), दी हुई दुनिया (1981), हुआ कुछ इस तरह (1988), सुनो हिरामन (1992), सच पूछो तो (1996), हमने उनके घर देखे (2001), ऐसी कैसी नींद (2004)। 1993 में इनकी कविता का दूसरा पाठ शीर्षक से आलोचना की पुस्तक प्रकाशित हुई। इनकी रचनाएं मराठी, बांग्ला, उड़िया, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी एवं जर्मन भाषा में अनूदित हुईं।


इन्हें 1979 में दुष्यंत कुमार पुरस्कार, 1989 में वागीश्वरी पुरस्कार और 1997-98 का शिखर सम्मान प्राप्त हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में भी इनका उल्लेखनीय योगदान रहा। गुर्दे की बीमारी से पीड़ित भगवत रावत का निधन 26 मई, 2012 को भोपाल स्थित उनके घर पर हुआ। यह ठीक है कि भगवत रावत अब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी कविताएं हमें यह अहसास कराती रहेंगी कि वे हमारे आसपास ही मौजूद हैं।