Monday 14 September 2015

गुर्राता है भेड़िया : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


-    वीणा भाटिया





भेड़िया गुर्राता है

तुम मशाल जलाओ

उसमें और तुममें

यही बुनियादी फर्क है

भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।




इन पंक्तियों से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के मर्म को समझा जा सकता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना नई कविता के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे हैं। अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित 'तीसरा सप्तक' में उनकी कविताएं प्रकाशित हुई थीं। इनके साथ ही केदारनाथ सिंह और विजयदेव नारायण साही की कविताएं भी प्रकाशित हुई थीं। 'तार सप्तक', 'दूसरा सप्तक' और 'तीसरा सप्तक' में ऐसे कई कवियों की रचनाएं प्रकाशित हुईं, जिन्होंने नई कविता आंदोलन को आगे चल कर लोकाभिमुख किया। कविता को जन से जोड़ा और अभिजनोन्मुख प्रयोगधर्मिता से अलग हट कर युगीन यथार्थ एवं चुनौतियों को सामने लाने का काम किया। 'तार सप्तक' के कवियों में मुक्तिबोध के बाद सर्वेश्वर दयाल सक्सेना प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के अग्रणी कवि हैं। इन्होंने कविता में जितने प्रयोग किए हैं, उतने प्रयोग उनकी पीढ़ी के शायद ही किसी कवि ने किए हों। जिस समय कविता गद्य के करीब होती चली जा रही थी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने उसे छंद से जोड़ा। साथ ही, उन्होंने अपनी कई कविताओं में लोकधुनों को शामिल किया और  लोक संगीत का तत्व उसमें जोड़ा। सर्वेश्वर गहन और जटिल अनुभूतियों के कवि हैं, पर उनमें जो सहजता और संप्रेषणीयता है, वह दुर्लभ है। उस दौर में सर्वेश्वर ने अपनी लोकधर्मी रचनाशीलता से आने वाली पीढ़ियों को एक नई दृष्टि दी। समय के साथ उनकी कविताएं ज़्यादा ही धारदार होती चली जाती हैं। उनमें व्यंग्य का तत्व उभर कर सामने आने लगता है।

 'व्यंग्य मत बोलो

काटता है जूता

तो सिर पर रखकर डोलो

व्यंग्य मत बोलो।'

ऐसी ही कई कविताओं में सर्वेश्वर का स्वर और भी तीखा होता चला जाता है। अपनी कविताओं में जहां वे व्यवस्था के विद्रूप को उजागर करते हैं, वहीं एक ऐसी दृष्टि भी देते हैं, जो क्रांति की ओर अग्रसर करती है। 70 के दशक में जब व्यवस्था ही नहीं, वाम राजनीति से भी युवाओं का मोहभंग होने लगा, पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत हुई। इसकी चिंगारी जल्दी ही देश के कई हिस्से में फैल गई। इस आंदोलन ने हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों-लेखकों और संस्कृतिकर्मियों पर गहरा असर डाला। नागार्जुन जैसे कवियों ने खुलकर इस आंदोलन का स्वागत किया। सर्वेश्वर भी इसके असर से अलग नहीं रह सके। उस दौरान लिखी कई कविताओं पर इस प्रभाव को महसूस किया जा सकता है। सर्वेश्वर ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी एक अलग ही राह बनाई। वे लीक पर चलने वाले रचनाकार नहीं थे। उन्होंने लिखा -

 "लीक पर वे चलें जिनके

चरण दुर्बल और हारे हैं ,

हमें तो जो हमारी यात्रा से बने

ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।"


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने कविता के साथ नाटक भी लिखे और इस विधा में भी नया प्रयोग किया। 'बकरी' इनका बहुत ही प्रसिद्ध नाटक है। प्राय: बड़े साहित्यकारों ने बाल साहित्य की रचना जरूर की है, चाहे प्रेमचंद हों या निराला। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बाल साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किया। 'बतू्ता का जूता', 'रानी रूपमती और राजा बाज बहादुर' और  'भौं भौं उनकी प्रसिद्ध बाल रचनायें हैं। 'पकौड़ी की कहानी' एक अद्भुत बाल कविता है। सर्वेश्वर बाल साहित्य की रचना को बहुत खास मानते थे। आगे चल कर उन्होंने सुप्रसिद्ध बाल पत्रिका 'पराग' का संपादन किया और बाल साहित्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का मानना था जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। 1964 में जब 'दिनमान' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो अज्ञेय के आग्रह पर उन्होंने लखनऊ रेडियो की नौकरी छोड़ दी और 'दिनमान' में काम करना शुरू किया। एक पत्रकार के रूप में इस क्षेत्र मे उन्होंने नये प्रतिमान स्थापित किए। 'दिनमान' में प्रकाशित होने वाला उनका स्तंभ 'चरचे और चरखे' बहुत ही लोकप्रिय हुआ। इसके अलावा, उन्होंने बहुत से राजनीतिक लेख, रिपोर्ताज और टिप्पणियां लिखीं। ऑल इंडिया रेडियो में सहायक संपादक के पद पर काम करने के पहले वे इलाहाबाद में एजी ऑफिस में डिस्पैचर के पद पर काम करते थे।


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म 15 सितंबर, 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में हुआ था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से उन्होंने एमए की शिक्षा हासिल की।


1983 में कविता संग्रह 'खूंटियों पर टंगे लोग' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। सर्वेश्वर की कई रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। 24 सितंबर,1983 को इनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। उस समय वे 'पराग' के संपादक थे।


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के प्रमुख कविता संग्रह हैं - 'काठ की घंटिया', 'बांस का पुल, 'एक सूनी नाव', 'गर्म हवाएं', 'कुआनो नदी', 'कविताएं-1', 'कविताएं-2', 'जंगल का दर्द', 'कोई मेरे साथ चले' और 'खूंटियों पर टंगे लोग'। सर्वेश्वर ने उपन्यास भी लिखे। 'सोया हुआ जल' और 'पागल कुत्तों का मसीहा' उनके लघु उपन्यास हैं। उन्होंने कहानियां भी लिखीं। 'अंधेरे पर अंधेरा' कहानी संग्रह है। 'कुछ रंग कुछ गंध' उनका यात्रा-वृत्तांत है। इसके साथ-साथ उन्होंने 'शमशेर' और 'नेपाली कविताएं' नामक कृतियों का संपादन भी किया।


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की लेखनी से शायद ही कोई विधा अछूती रही हो। उनका समस्त लेखन शोषण पर आधारित वर्तमान व्यवस्था पर प्रहार करता है और नये जीवन मूल्यों की स्थापना करता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उन साहित्यकारों में हैं जिन्होंने हिंदी कविता को एक नया ही स्वर दिया। उनकी कविताओं में लोक जीवन के रंग बिखरे पड़े हैं, साथ ही व्यवस्था पर मारक प्रहार भी है। इसके साथ ही आधुनिक युग में मनुष्य के अकेले पड़ते जाने का दर्द भी उनकी कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का व्यक्तित्व बहुत ही विराट था। वह सरल हृदय के थे। नए लेखकों-कवियों को उनसे काफी प्रेरणा मिलती थी। वे हर समय उनके सहयोग के लिए तत्पर रहते थे। उनके मन को हम इन काव्य पंक्तियों से समझ सकते हैं -



"कुछ धुआं

कुछ लपटें

कुछ कोयले

कुछ राख छोड़ता

चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूं,

मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!"