Sunday 13 September 2015

आज भी भारत पर राज कर रही है अंग्रेजी


- वीणा भाटिया


विडंबना ही कहेंगे कि पूरे देश में संचार की मुख्य भाषा होने के बावजूद आज भी हिंदी की स्थिति दोयम दर्जे की बनी हुई है। हर साल 14 सितंबर को लाखों-करोड़ों खर्च कर हिंदी दिवस मनाया जाता है, पर कुल मिला कर यह एक अनुष्ठान का रूप ले चुका है, जिसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता। हिंदी वह एकमात्र भाषा है जो एक अरब सत्ताइस करोड़ की आबादी वाले देश में सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती है। लगभग 70 फीसदी आबादी की यह मुख्य भाषा है। यह बाजार की भी भाषा है। बावजूद आज हिंदी ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी ही हावी है। जन-जन की भाषा होने के बावजूद हिंदी ज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है। ज्ञान की तमाम शाखाओं में अंग्रेजी का प्रभुत्व आज भी पहले की तरह ही बना हुआ है। हिंदी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा का संवैधानिक दर्जा तो हासिल है, पर संसद से लेकर न्यायालयों, सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी में ही काम होता है। खास बात यह है कि आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी अगर कोई अंग्रेजी में बोल-लिख नहीं सकता तो उसे शिक्षित नहीं माना जाता। उच्च शिक्षा हासिल करने और अच्छा रोजगार पाने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता आज भी बनी हुई है। स्थिति यह है कि ढंग से अंग्रेजी नहीं जानने के कारण छोटे शहरों और कस्बों के प्रतिभाशाली युवा उच्च शिक्षा और नौकरियों के क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं।


अंग्रेजी के प्रति समाज के हर तबके में आकर्षण इतना ज्यादा है कि आज हर छोटे-बड़े शहरों में कुकरमुत्तों की तरह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए हैं। आज अंग्रेजी बोलना समाज में प्रतिष्ठा पाने का परिचायक बन गया है। लोगों की इसी मानसिकता का फायदा उठाते हुए महानगरों और बड़े शहरों की तो छोड़ें, छोटे-छोटे कस्बों तक में अंग्रेजी बोलना सिखाने वाले न जाने कितने संस्थान खुल गए हैं।


उल्लेखनीय है कि जब अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा नीति बनानी शुरू की थी तो इस बात पर काफी बहस हुई थी कि शिक्षा का माध्यम क्या होगा। अंग्रेज नीति-निर्माताओं में एक तबका ऐसा भी था जिसका मानना था कि शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए, लेकिन साम्राज्यवाद के हित में इस नीति को स्वीकार नहीं किया गया और लॉर्ड मैकाले की वह नीति स्वीकार कर ली गई जिसके तहत उसने घोषणा की थी कि हमें ऐसे लोग तैयार करने हैं जो तन से भारतीय, पर मन से अंग्रेज हों और बाबूगीरी का काम कर सकें। उसकी यह नीति कामयाब रही और आज तक भी जारी है। यही कारण है कि आज की शिक्षा व्यवस्था भी थोक में बाबुओं को पैदा करने का काम कर रही है। स्वतंत्र विचार और मौलिक चिंतन की प्रेरणा आज की शिक्षा से नहीं मिल पा रही है।


भूलना नहीं होगा कि अंग्रेजी के प्रभुत्व के खिलाफ भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर प्रेमचंद और निराला जैसे लेखकों-कवियों ने संघर्ष किया। आधुनिक हिंदी के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा था – निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल। उन्होंने यह भी लिखा – अंग्रेजी पढ़ के यद्यपि सब गुण होत प्रवीण, पर निज भाषा ज्ञान के रहत हीन के हीन। इसी प्रकार, महात्मा गांधी ने हिंदी यानी जन-जन की भाषा हिंदुस्तानी के प्रसार के लिए अथक संघर्ष किया। महात्मा गांधी अंग्रेजी के प्रभुत्व के इतने विरोधी थे कि उन्होंने साफ कह दिया था – यह भूल जाओ कि मैं अंग्रेजी जानता हूं। उन्होंने हिंद स्वराज अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी थी। उनका कहना था कि हर क्षेत्र में कामकाज हिंदुस्तानी में होना चाहिए। हिंदुस्तानी का मतलब था वह हिंदी जो संस्कृत और अरबी-फारसी के प्रभावों से दूर हो और आम जनता को आसानी से समझ में आए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। आजादी मिलने के बाद भी हर क्षेत्र में अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रहा जो आज तक भी कम नहीं हुआ है। विख्यात आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने अंग्रेजी के प्रभुत्व और हिंदी की हीन दशा को लेकर यहां तक कहा था कि अंग्रेजी साम्राज्ञी है और हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएं दासी की भूमिका में हैं।



कहा जा सकता है कि देश में अंग्रेजी का वर्चस्व और हिंदी के दोयम दर्जे वाली स्थिति औपनिवेशिक दासता के अतीत के कारण है। यह अलग बात है कि देश को राजनीतिक तौर पर आजाद हुए दशकों गुजर गए, पर मैकाले की नीति ने मानसिक तौर पर गुलाम लोगों की ऐसी पीढ़ियां तैयार कर दी जो राजनीति से लेकर प्रशासन, उद्योग, उच्च शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में हावी रहीं। देश को राजनीतिक आजादी मिली, पर सांस्कृतिक तौर पर वह औपनिवेशिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो सका। राजनीति, प्रशासन, न्यायतंत्र, शिक्षा और सबसे बढ़कर सामाजिक-आर्थिक ढांचा औपनिवेशिक ही बना रहा। कोई मूलगामी परिवर्तन नहीं हुआ। इसी का परिणाम है कि आज अंग्रेजी पूरे तंत्र पर हावी है और इससे हिंदी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाएं भी पिछड़ी दशा में हैं। जब कभी हिंदी को लेकर संघर्ष की शुरुआत होती है, तो अंग्रेजी के समर्थक कहने लगते हैं कि भारत एक बहुभाषी देश है और हिंदी को किसी पर लादा नहीं जा सकता। 


यह ठीक है कि भारत एक बहुभाषी देश है, लेकिन इसे इतिहास ने साबित किया है कि हिंदी पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा है। लेकिन हिंदी किसी पर थोपी नहीं जा सकती, इस तर्क की आड़ में अंग्रेजी समर्थक औपनिवेशिक मानसिकता वाला सत्ताधारी सर्वशक्ति संपन्न वर्ग पूरे देश पर, हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं पर भी अंग्रेजी थोप देता है। क्या यह सही है? इस बात को कभी नहीं भूला जाना चाहिए कि अंग्रेजी का प्रभुत्व कायम रहना हिंदी के लिए ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के विकास में बाधक है। हिंदी के समर्थन का मतलब अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध है, न कि अन्य भारतीय भाषाओं का। सभी भारतीय भाषाओं का विकास तभी संभव है, जब अंग्रेजी शासन, राजकाज और शिक्षा की भाषा न रहे, बल्कि उसका स्थान भारतीय भाषाएं लें। हिंदी देश में सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती है, इसलिए स्वाभाविक है कि उसे राष्ट्रभाषा और राजभाषा का दर्जा मिला। लेकिन यह तो सिर्फ़ कहने के लिए है। वास्तव में अभी भी अंग्रेजी ही भारत पर राज कर रही है।