Tuesday 8 September 2015

गुलामी की पीड़ा : भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रासंगिकता




-    वीणा भाटिया/मनोज कुमार झा


 

 
आवहु सब मिल रोवहु भारत भाई
हा! हा!! भारत दुर्दशा देखि ना जाई।

ये पंक्तियां आधुनिक हिंदी के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक भारत दुर्दशा की हैं। भारतीय नवजागरण और खासकर हिंदी नवजागरण के अग्रदूत के रूप में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पहली बार अंग्रेजी राज पर कठोर प्रहार किया था। इसके साथ ही, उन्होंने अंग्रेजों के सबसे बड़े सहयोगी सामंतों पर भी चोट की थी। भारतेंदु का समय भारतीय इतिहास में बहुत ही बड़े उथल-पुथल से भरा था। उनके जन्म के ठीक सात साल बाद अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ सबसे बड़ा जनविद्रोह हुआ था-1857 का ग़दर। इस ग़दर ने अंग्रेजों को भीतर से हिला दिया था और इसी के बाद अंग्रेज़ शासकों ने कुख्यात फूट डालो और राज करो की नीति अख़्तियार की थी, जिसका विघटनकारी प्रभाव आज तक बना हुआ है। 


भारतेंदु ने विदेशी शासन के दुष्प्रभावों और गुलामी की पीड़ा को बहुत ही गहराई से महसूस किया था। देश में आम जन की हालत बहुत ही बुरी थी। बार-बार पड़ने वाले अकालों ने किसानों की हालत खराब कर दी थी। वहीं, अंग्रेजों ने ग़दर के बाद बड़े पैमाने पर दमन चक्र चलाया था। यह देश की अस्मिता को कुचलने का प्रयास था। एक तरफ जहां लोगों में पस्तहिम्मती छाई थी, वहीं विद्रोही राजे-रजवाड़ों का दमन करने के बाद अंग्रेजों ने अपने पिट्ठू देशी शासकों को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था। उल्लेखनीय है कि सन् 1793 में ही लार्ड कार्नवालिस ने कृषि के क्षेत्र में स्थाई बंदोबस्त यानी परमनानेंट सेटलमेंट की व्यवस्था लागू कर देश में जमींदारों का एक नया वर्ग तैयार किया था, जो अंग्रेजों के साथ मिलकर ग़रीब किसानों को लूटने में लगा हुआ था। ऐसे में, पहली बार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्य में जन भावनाओं और आकांक्षाओं को स्वर दिया। पहली बार साहित्य में जन का समावेश भारतेंदु ने ही किया। उनके पहले काव्य में रीतिकालीन प्रवृत्तियों का ही बोलबाला था। साहित्य पतनशील सामंती संस्कृति का पोषक बन गया था, पर भारतेंदु ने उसे जनता की ग़रीबी, पराधीनता, विदेशी शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण और उसके विरोध का माध्यम बना दिया। अपने नाटकों, कवित्त, मुकरियों और प्रहसनों के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजी राज पर कटाक्ष और प्रहार किए, जिसके चलते उन्हें अंग्रेजों का कोपभाजन भी बनना पड़ा।


भारतेंदु के समय में हिंदी का वर्तमान स्वरूप विकसित नहीं हो पाया था। राजकाज और संभ्रांत वर्ग की भाषा फारसी थी। वहीं, अंग्रेजी का वर्चस्व भी बढ़ता जा रहा था। साहित्य में ब्रजभाषा का बोलबाला था। फारसी के प्रभाव वाली उर्दू भी चलन में आ गई थी। ऐसे समय में भारतेंदु ने लोकभाषाओं और फारसी से मुक्त उर्दू के आधार पर खड़ी बोली का विकास किया। आज जो हिंदी हम लिखते-बोलते हैं, वह भारतेंदु की ही देन है। यह अलग बात है कि उस समय से अब तक हिंदी का काफी विकास हो चुका है, पर इसकी आधारशिला भारतेंदु ने ही रखी। यही कारण है कि उन्हें आधुनिक हिंदी का जनक माना जाता है। सिर्फ़ भाषा ही नहीं, साहित्य में उन्होंने नवीन आधुनिक चेतना का समावेश किया और साहित्य को जन से जोड़ा। भारतेंदु की रचनाओं में अंग्रेजी शासन का विरोध, स्वतंत्रता के लिए उद्दाम आकांक्षा और जातीय भावबोध की झलक मिलती है। सामंती जकड़न में फंसे समाज में आधुनिक चेतना के प्रसार के लिए लोगों को संगठित करने का प्रयास करना उस ज़माने में एक नई ही बात थी। उनके साहित्य और नवीन विचारों ने उस समय के तमाम साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को झकझोरा और उनके इर्द-गिर्द राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत लेखकों का एक ऐसा समूह बन गया जिसे भारतेंदु मंडल के नाम से जाना जाता है।


भारतेंदु का जन्म बनारस के एक समृद्ध व्यवसायी परिवार में 9 सितंबर,1850 को हुआ था। उनके पिता गोपीचंद भी ब्रजभाषा में गिरिधर दास नाम से कविता लिखते थे। इस तरह, साहित्यिक संस्कार उन्हें घर में ही मिले। भारतेंदु ने बहुत ही कम उम्र में ही काव्य रचना शुरू कर दी थी और जल्दी ही साहित्यिक समाज में लोकप्रिय हो गए। बहुत ही कम उम्र में उनके माता-पिता का निधन हो गया था। उच्च शिक्षा के लिए उनका नामांकन बनारस के प्रसिद्ध क्वीन्स कॉलेज में कराया गया, पर परंपरागत शिक्षा पद्धति में उनका मन नहीं लगता था। यद्यपि कॉलेज की शिक्षा उन्होंने पूरी की, पर स्वाध्याय से अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू और अन्य कई भाषाएं सीखी। उन दिनों बनारस में एक बड़े विद्वान और लेखक राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद थे, जिनके संपर्क में वे लगातार रहे, पर भाषा संबधी उनके विचारों से उनके मतभेद भी थे। भारतेंदु एक ऐसी भाषा के पक्षधर थे जो आम जनता से जुड़ी हो और आसानी से उसे समझ में आए। वे लोकभाषाओं के बहुत बड़े समर्थक थे। अपनी अंतर्दृष्टि से उन्होंने समझ लिया था कि लोकभाषाओं के आधार पर ही हिंदी को एक आधुनिक भाषा के रूप में विकसित किया जा सकता है। 


पंद्रह वर्ष की उम्र से ही भारतेंदु ने लेखन शुरू कर दिया था। उसी समय उन्होंने जनता की चेतना के विकास में पत्रकारिता के महत्त्व को समझ लिया था। महज अठारह वर्ष की उम्र में उन्होंने कविवचनसुधा नामक पत्रिका निकाली जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। उनकी प्रतिभा को नज़रअंदाज करना अंग्रेज शासकों के लिए संभव नहीं था। बीस वर्ष की उम्र में वे ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए। लेकिन राष्ट्रवादी विचारों के कारण उन्होंने यह पद जल्दी ही छोड़ दिया और साहित्य रचना में लग गए। 1868 में 'कविवचनसुधा' का प्रकाशन करने के बाद 1873 में उन्होंने हरिश्चन्द्र मैगजीन' का प्रकाशन किया। उस ज़माने में जब स्त्रियों की शिक्षा और उनके उत्थान के प्रति किसी का ध्यान नहीं था, भारतेंदु ने  1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाला बोधिनी' नामक पत्रिका निकाली। साथ ही, उन्होंने कई साहित्यिक संस्थाओं का भी गठन किया। भारतेंदु की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही थी। देश भर के विद्वानों और लेखकों से उनका संपर्क स्थापित हो चुका था। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें 'भारतेंदु` की उपाधि प्रदान की।


भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभासंपन्न लेखक थे। कम समय में इतने विपुल साहित्य की रचना शायद ही किसी दूसरे साहित्यकार ने की होगी। उनकी किताबों की सूची बहुत ही लंबी है। भारतेंदु ने हिंदी में नाट्य लेखन की शुरुआत की जो उनका खास योगदान है। इसके साथ ही, उन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी से भी नाटकों का अनुवाद किया। काव्य के क्षेत्र में भी उन्होंने विपुल रचना की। यह अलग बात है कि कविता में उन्होंने खड़ी बोली का प्रयोग नहीं किया। भारतेंदु ने गद्य लेखन भी किया और साथ ही शिक्षा एवं समाज सुधार के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया। भारतेंदु अंग्रेजों के शोषण तंत्र को भली-भांति समझते थे। अपनी पत्रिका कविवचनसुधा में उन्होंने लिखा था – जब अंग्रेज विलायत से आते हैं प्राय: कैसे दरिद्र होते हैं और जब हिंदुस्तान से अपने विलायत को जाते हैं तब कुबेर बनकर जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अंग्रेज ही हैं। यही नहीं, 20वीं सदी की शुरुआत में दादाभाई नौरोजी ने धन के अपवहन यानी ड्रेन ऑफ वेल्थ के जिस सिद्धांत को प्रस्तुत किया था, भारतेंदु ने बहुत पहले ही शोषण के इस रूप को समझ लिया था। उन्होंने लिखा था – अंगरेजी राज सुखसाज सजे अति भारी, पर सब धन विदेश चलि जात ये ख्वारी। अंग्रेज भारत का धन अपने यहां लेकर चले जाते हैं और यही देश की जनता की ग़रीबी और कष्टों का मूल कारण है, इस सच्चाई को भारतेंदु ने समझ लिया था। कविवचनसुधा में उन्होंने जनता का आह्वान किया था – भाइयो! अब तो सन्नद्ध हो जाओ और ताल ठोक के इनके सामने खड़े तो हो जाओ देखो भारतवर्ष का धन जिसमें जाने न पावे वह उपाय करो। 


प्रख्यात आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है, भारतेंदु और उनके साथियों की नीति अंग्रेज शासकों की नीति से बिल्कुल उल्टी थी। अंग्रेज हिंदी को दबाते थे, भारतेंदु उसके अधिकारों के लिए लड़े थे। अंग्रेज हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालकर अपना राज कायम करना चाहते थे, भारतेंदु ने इनके एक होने की अपील की थी। अंग्रेज भारत को खेतिहर देश बनाकर उसे लूटना चाहते थे, भारतेंदु ने इस लूट का पर्दाफाश किया था और देश में कौशल और मशीन संबंधी शिक्षा की मांग की थी। डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि भारतेंदु युग का साहित्य हिंदीभाषी जनता का जातीय साहित्य है, वह हमारे जातीय नवजागरण का साहित्य है। उस दौरान सिर्फ़ भारतेंदु ही नहीं, बल्कि उनसे प्रेरित होकर कई साहित्यकार सामने आए जिनमें बालकृष्ण भट्ट, राधाचरण गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुंद गुप्त प्रमुख हैं, जिन्होंने अपने लेखन के माध्यम से और पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कर देश में नवीन चेतना जागृत करने की कोशिश की, जिसका मूल स्वर सामंतवाद और उपनिवेशवाद विरोधी था। भारतेंदु मंडल के इन लेखकों ने व्यंग्य को अपना मुख्य माध्यम बनाया और अंग्रेजी शासन के साथ-साथ सामंती कुरीतियों पर भी कड़ा प्रहार किया। भारतेंदु ने स्वयं कई प्रहसन लिखे जिसमें अंधेरनगरी बहुत ही लोकप्रिय है। यह आज भी प्रासंगिक है। इसका प्रमाण यह है कि आज भी इस प्रहसन का मंचन होता है। भारतेंदु ने अंग्रेजों की नीति का खुलासा करते हुए लिखा था –

भीतर भीतर सब रस चूसै, बाहर से तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन? नहिं अंग्रेज।।

ये तो एक उदाहरण है। अंग्रेजों की शिक्षा नीति किस तरह युवाओं को अपनी जड़ों से काटने वाली थी, किस तरह उन्हें परमुखापेक्षी बनाने के साथ बेरोजगारी की ओर धकेलने वाली थी, इस पर भी भारतेंदु ने लिखा है। भारतेंदु लोक साहित्य का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। उन्होंने लिखा था, भारतवर्ष की उन्नति के जो अनेक उपाय महात्मागण आजकल सोच रहे हैं, उनमें एक और उपाय होने की आवश्यकता है। इस विषय के बड़े-बड़े लेख और काव्य प्रकाश होते हैं, किंतु वे जनसाधारण के दृष्टिगोचर नहीं होते। इसके हेतु मैंने यह सोचा है कि जातीय संगीत की छोटी-छोटी पुस्तकें बनें और वे सारे देश, गांव-गांव में साधारण लोगों में प्रचार की जाएं। मेरी इच्छा है कि मैं ऐसे गीतों का संग्रह करूं और उनको छोटी-छोटी पुस्तकों में मुद्रित करूं। जाहिर है, भारतेंदु साहित्य को जन से जोड़ना चाहते थे।


भारतेंदु ने साहित्य के प्रकाशन और उसके प्रचार-प्रसार में अपना काफी धन खर्च किया था। उनका एक सपना था देश में हिंदी के एक बड़े विश्वविद्यालय की स्थापना करना। लेकिन धन की कमी के कारण उनका यह सपना पूरा नहीं हो पाया। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उनके जन्म के डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा बीत जाने के बावजूद हिंदीभाषी समाज उनके सपने को पूरा कर पाने में समर्थ नहीं हो सका है। 


भारतेंदु के संपूर्ण लेखन का मूल स्वर साम्राज्यवाद-सामंतवाद विरोधी है। जिन सवालों से भारतेंदु दो-चार होते हैं, जिन मुद्दों को उठाते हैं, वे आज भी बने हुए हैं। भारत की दुर्दशा कम नहीं हुई है, बल्कि बढ़ती ही जा रही है। देश राजनीतिक तौर पर भले ही आजाद है, पर पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण के मकड़जाल से मुक्ति नहीं मिली है। किसानों का शोषण अंग्रेजी राज में जितना होता था, उससे कम आजाद भारत में नहीं हो रहा है। सांप्रदायिकता के जिस ख़तरे के प्रति भारतेंदु ने आगाह किया था, वह आज और भी उग्र रूप में सामने है। ऐसे में, भारतेंदु का लेखन आज और भी प्रासंगिक हो गया है। 


विपुल मात्रा और अनेक विधाओं में सृजन करने वाले भारतेंदु की मृत्यु महज 35 वर्ष की उम्र में 6 जनवरी 1885 को हो गई। भारतेंदु अपने समय से बहुत ही आगे थे। साहित्य में भी और राजनीतिक विचार में भी। उल्लेखनीय है कि जिस वर्ष उनका निधन हुआ, उसी वर्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, पर उस समय उसका स्वर साम्राज्य समर्थन का था, जबकि भारतेंदु ने बहुत पहले ही ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषण का हर स्तर पर प्रतिरोध किया था।
उनके निधन पर सही ही कहा गया – प्यारे हरीचंद की कहानी रह जाएगी।