Monday 26 October 2015

समय से मुठभेड़ : अदम गोंडवी



-    वीणा भाटिया

http://www.haribhoomi.com/literature/poetry-of-adam-gondvi/32481.html#ad-image-0


हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए।
अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िए।
हममें कोई हूण कोई शक कोई मंगोल है।
दफ़्न है जो बात अब उस बात को मत छेड़िए।

अदम गोंडवी की यह गज़ल आज के समय में पूरी तरह मौजू है। यही नहीं, अपनी रचनाओं के माध्यम से वे हमारे समय की उन चुनौतियों से दो-चार होते हैं, जो आने वाले समय में मानवता के भविष्य को तय करेंगी। दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी वे पहले शायर हैं, जिन्होंने जनता से सीधा संवाद स्थापित किया। वे कबीर की परंपरा के कवि हैं, फक्कड़ और अलमस्त। कविता लिखना उनके लिए खेती-किसानी जैसा ही सहज कर्म रहा। अदम गोंडवी उन जनकवियों और शायरों में अग्रणी हैं, जिन्होंने कभी प्रतिष्ठान की परवाह नहीं की और साहित्य के बड़े केंद्रों से दूर रहकर जनता के दुख-दर्द को स्वर देते रहे, अन्याय और शोषण पर आधारित व्यवस्था पर प्रहार करते रहे। लगभग ढाई दशक पहले एक साहित्यिक पत्रिका में इनकी चंद ग़ज़लें प्रकाशित हुई थीं।
काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में।
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत।
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।
 
हिंदी ग़ज़ल में  यह एक नया ही स्वर था। सीधी-सीधी खरी बात, शोषक सत्ताधारियों पर सीधा प्रहार। प्राइमरी तक शिक्षा प्राप्त और जीवन भर खेती-किसानी में लगे अदम गोंडवी ने ज्यादा तो नहीं लिखा, पर जो भी लिखा वह जनता की ज़बान पर चढ़ गया। प्रसिद्ध आलोचक डॉ. मैनेजर पांडेय ने उनके बारे में लिखा है, कविता की दुनिया में अदम एक अचरज की तरह हैं। अचरज की तरह इसलिए कि हिंदी कविता में ऐसा बेलौस स्वर तब सुनाई पड़ा था, जब कविता मज़दूरों-किसानों के दुख-दर्द और उनके संघर्षों से अलग-थलग पड़ती जा रही थी। नागार्जुन-त्रिलोचन-केदार जैसे जनकवियों ने जो अलख जगाई थी, उस परंपरा को आगे बढ़ाने का काम अदम गोंडवी और गोरख पांडेय जैसे कवियों ने ही किया।

अदम गोंडवी के लिए कविता एक ऐसे अनिवार्य कर्म की तरह थी जो मनुष्य होने की अर्थवत्ता का अहसास करा सके। खास बात यह है कि जनता के शोषण के तंत्र को उन्होंने मार्क्सवाद की किताबों के माध्यम से नहीं समझा था, बल्कि अपने आसपास महसूस किया था। नीची जातियों पर सामंती अत्याचारों को उन्होंने स्वयं देखा था जो आज भी रोज ही गांवों-कस्बों में वंचित लोग झेल रहे हैं। तभी उनकी प्रसिद्ध नज़्म लिखी गई चमारों की गली, जिसने साहित्य की दुनिया में हलचल पैदा कर दी। आज भी निम्न जातियों के लोगों को रोज ही अपमान का सामना करना पड़ रहा है, स्त्रियों को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया जा रहा है, भूख और बेबसी उनकी नियति बन चुकी है। ऐसे में, अदम गोंडवी ने लिखा –
भूख के अहसास को शेरों सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो।
अदम ने वक़्त की चुनौती को साफ-साफ पहचाना और लिखते हैं –
ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में
मुसलसल फ़न का दम घुटता है इऩ अदबी इदारों में।
अदीबो, ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुल्लमे के सिवा क्या है फ़लक के चांद-तारों में।

अदम गोंडवी को जो दृष्टि मिली थी और उनका जो वर्ग-बोध था, वह किताबी नहीं, वास्तविक जीवन की स्थितियों से उत्पन्न था। उन्होंने अभाव, वंचना, भूख की पीड़ा और गरीबों पर धनिकों द्वारा किए जाने वाले जुल्म को अपनी आंखों से देखा और महसूस किया था। उनका सच कबीर की तरह आंखिन देखी था, कागद की लेखी नहीं। आज की राजनीतिक व्यवस्था के छल-छद्म को समझना उनके लिए कठिन नहीं था। सत्ता के लिए होने वाली साजिशों और वंचित वर्ग के संघर्षों को भटकाने वाली ताकतों की दुरभिसंधियों का उन्होंने खुलकर पर्दाफाश किया। उन्होंने लिखा –
ये अमीरों से हमारी फैसलाकुन जंग थी
फिर कहां से बीच में मस्जिद व मन्दर आ गए
जिनके चेहरे पर लिखी है जेल की ऊंची फसील
रामनामी ओढ़कर संसद के अन्दर आ गए।

आज की राजनीतिक परिस्थितियों में ये पंक्तियां पूरी तरह सच का बयान है। यह सच अदम गोंडवी के समग्र लेखन में बिखरा हुआ है, जो जनता को आगाह करता है और शोषक सत्ताधारियों को खुली चुनौती देता है। अदम की राजनीतिक चेतना अत्यंत ही प्रखर है। सत्ता में बैठे लोगों का चरित्र वे खोलकर सामने रखते हैं। उन्होंने लिखा है –
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे।
ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे।

आज जो विकास की बातें कहकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं और जनता को झांसापट्टी देना चाहते हैं, उनके चरित्र को अदम ने ग़ज़ल-दर-ग़जल उजागर किया है। उनके बारे में उन्होंने लिखा है –
मुफ़लिसों की भीड़ को गोली चलाकर भून दो
दो कुचल बूटों से औसत आदमी की प्यास को।
मज़हबी दंगों को भड़का कर मसीहाई करो
हर क़दम पर तोड़ दो इन्सान के विश्वास को।

अदम गोंडवी क्रांति के कवि हैं, इंकलाब के कवि हैं। पाश की तरह ही इनके लिए कोई ‘बीच का रास्ता’ नहीं है। तभी तो ये कहते हैं –
‘जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत
ये बात कह रहा हूं मैं होशो हवास में।’

अदम गोंडवी का जन्म उत्तर प्रदेश के गोंडा में 22 अक्टूबर, 1947 को हुआ था। मां-पिता ने इनका नाम रामनाथ सिंह रखा। शायर के रूप में अदम गोंडवी के नाम से विख्यात हुए। निधन 18 दिसंबर, 2011 को हुआ। इनकी कुल तीन कृतियां सामने आईं – ‘गर्म रोटी की महक’, ‘समय से मुठभेड़’ और ‘धरती की सतह पर’। सम्मान भी मिला – दुष्यंत कुमार सम्मान और मुकुट बिहारी सरोज सम्मान। पर जनता के दिलों में इन्होंने अपनी जो जगह बनाई और जो सम्मान पाया, वह किसी भी साहित्यिक सम्मान से बड़ा है।

Monday 12 October 2015

बांटो और राज करो : दादरी हत्याकांड


-    वीणा भाटिया  

 

बीसवीं सदी हत्या से होकर गुजर रही है
अपने अंत की ओर
इक्कीसवीं सदी की सुबह
क्या होगा अखबार पर
खून के धब्बे या कबूतर?




गोरख पांडेय की कविता यकायक याद आना स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश के दादरी में गोमांस रखने और खाने की अफवाह के बाद अखलाक नाम के एक व्यक्ति को पीट-पीट कर मार दिया जाना एक ऐसी घटना है जिसने मध्ययुगीन बर्बरता की याद दिला दी है। यह ऐसी दिल दहला देने वाली घटना है, जिसने पूरे देश के संवेदनशील लोगों को हिला कर रख दिया है। इसका पूरे देश में व्यापक विरोध हो रहा है। पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया पर इस घटना के विरोध में लगातार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। इस घटना के बाद देश के अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई है।



नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों के लोग, साध्वियां और संत-महंत समय-समय पर जैसे बयान देते रहे हैं, उससे देश के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को धक्का पहुंचता जा रहा है। सामाजिक सौहार्द ख़तरे में पड़ा दिखाई दे रहा है और समुदायों के बीच परस्पर विश्वास और भरोसा टूटने लगा है। यह स्थिति देश के जनतांत्रिक ढांचे के लिए सही नहीं कही जा सकती।


अखलाक की हत्या एक सुनियोजित साजिश का परिणाम थी, यह इससे साबित होता है कि पहले दादरी के बिसहाड़ा गांव के मंदिर में माइक से घोषणा करवाई गई कि अखलाक ने गोकशी की है और उसके यहां गोमांस है। इसके बाद सैकड़ों की भीड़ ने उसके घर पर हमला बोल दिया और ईंट-पत्थर मार-मार कर अखलाक की हत्या कर दी। इस हमले में उनका बेटा भी बुरी तरह घायल हुआ। यह घटना 28 सितंबर को हुई। बिसहाड़ा गांव के लोगों का कहना है कि यहां हिंदू-मुसलमानों के बीच कभी भी विवाद नहीं हुआ। दोनों समुदाय के लोग सद्भाव के साथ रहते रहे। एक-दूसरे का सहयोग करते रहे। दुख-सुख में सहभागी बनते रहे। ग्रामीणों का कहना है कि जब गांव की मस्जिद टूटी तो उसे बनवाने में हिंदुओं ने भी सहयोग किया। मृतक अखलाक के सभी लोगों से अच्छे संबंध थे, फिर सवाल उठता है कि ईंट-पत्थरों से मारकर हत्या करने वाले वे लोग कौन थे जो सैकड़ों की तादाद में वहां जुट गए थे। 


मंदिर के जिस पुजारी ने अखलाक के घर गोमांस रखे होने की घोषणा की थी, उसने यह स्वीकार किया कि उसे इसके बारे में कुछ पता नहीं था और उससे जबरदस्ती यह घोषणा करवाई गई। सुखीराम नाम का यह पुजारी अब लापता है। गोमांस रखने और खाने की अफ़वाह उड़ा भीड़ को उकसा कर ऐसा हमला करवाना सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने की सोची-समझी साजिश ही कही जा सकती है। भाजपा के नेता इसके लिए उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। अखिलेश सरकार ने मृतक अखलाक के परिवार के लिए 20 लाख रुपए के मुआवज़े की घोषणा की। यह ठीक है कि किसी की मौत की भरपाई कितनी भी बड़ी रकम के मुआवज़े से नहीं की जा सकती, लेकिन इस पर भी भाजपा के नेताओं ने आपत्ति जताई।  भाजपा विधायक संगीत सोम ने तो यहां तक कहा कि मुस्लिम मरेगा तो 20 लाख दिए जाएंगे और हिंदू मरेगा तो 20 हजार भी नहीं दिए जाएंगे।


इससे समझा जा सकता है कि ऐसे नेताओं की नीयत क्या है और वास्तव में वे चाहते क्या हैं। यह ठीक है कि यूपी की अखिलेश सरकार दंगों की रोकथाम कर पाने में सफल नहीं रही, पर केंद्र में मोदी सरकार के आने के पहले मुजफ्फरनगर में जो भयानक दंगे हुए, उनके पीछे किसकी भूमिका थी। आज भी गोमांस खाने की अफवाह उड़ाकर जिस तरह एक निर्दोष व्यक्ति की नृशंस हत्या की गई, उसके पीछे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही एकमात्र उद्देश्य समझ में आता है। कहा जा रहा है कि उस इलाके में पिछले दो-तीन महीने से कुछ नामालूम-से संगठनों की गतिविधियां चल रही थीं। पीड़ित परिवार का कहना है कि कई बार उन्हें धमकी दी गई थी। यह भी सुनने में आया कि कुछ लोग कह रहे थे कि इसे दूसरा मुजफ्फरनगर बना दिया जाएगा। 


राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस तरह की घटनाओं से भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है, ताकि चुनावों में उसे जीत हासिल हो सके। जहां तक गोकशी और गोमांस खाने का सवाल है, यह भूलना नहीं होगा कि भारत बड़े पैमाने पर गोमांस का निर्यात करता है। 



जहां तक इतिहास का सवाल है, भारत में मुगल शासन की स्थापना करने वाले बाबर ने लिखा था कि यहां के लोग गाय को पवित्र मानते हैं, इसलिए उसका वध नहीं किया जाना चाहिए। यही बात महान मुगल शासक अकबर ने भी कही थी। पर बाबर के नाम पर बनी मस्जिद का विध्वंस कर और बड़े पैमाने पर दंगे भड़काकर सत्ता में आने वाली भाजपा और उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता यह क्यों समझना चाहेंगे। उनका विश्वास समुदायों के बीच घृणा को बढ़ावा देने में है, ताकि अंग्रेजों की कुख्यात नीति ‘बांटो और राज करो’ को अमली जामा पहनाया जा सके।

Thursday 8 October 2015

8 अक्टूबर, प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर


                                 


"सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है। हम आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं, हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है, लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिंदू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।"

Thursday 1 October 2015

महात्मा गांधी के जन्मदिवस पर




                






जब जीवन का सरोवर सूख जाए, तब तुम करुणा के बादलों के साथ उमड़-घुमड़ कर आना।

-    रवीन्द्र नाथ टैगोर

वर्ष 1932 में गांधी ने अंग्रेज़ों की साम्प्रदायिक नीति के विरुद्ध उपवास किया। यह उपवास गांधी ने टैगोर के चरण छू कर तोड़ा और उन्हें गुरुदेवकहा।