Saturday 14 November 2015

तेरी याद बहुत आती है - वीणा भाटिया




   



देश के नील गगन पर
संकट की जब घटा छाती है
ऐसे में नेहरू चाचा
तेरी याद बहुत आती है।

वो तेरा ओजस्वी चेहरा
वो तेरी ओजस्वी वाणी
परीक्षा की अग्नि में तप कर
निखर गए थे तुम सेनानी।

जब इतिहास की स्वर वीणा
तेरे गीतों को गाती है
ऐसे में नेहरू चाचा
तेरी याद बहुत आती है।

समय करोड़ों पृष्ठ बदल कर
नई दिशाएं अपनाएगा
पर ऐसे मानवतावादी को
यह विश्व कहां पाएगा।

अहिंसा के सीने पर जब-जब
हिंसा गोली बरसाती है
ऐसे में नेहरू चाचा
तेरी याद बहुत आती है।

Thursday 12 November 2015

पूंजीवादी समाज के प्रति / गजानन माधव मुक्तिबोध



इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि

इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति

इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध

इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।

छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध

देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध

तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र

तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।

मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक

तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

Sunday 8 November 2015

राजसत्ता के खिलाफ : नागार्जुन





- वीणा भाटिया

‘प्रतिबद्ध हूं

आबद्ध हूं

संबद्ध हूं’

हिंदी की प्रगतिशील काव्य-धारा में नागार्जुन जैसे कवि कम ही दिखाई पड़ते हैं, जिन्होंने आजीवन शोषित-उत्पीड़ित जनता की आवाज को स्वर दिया। राजसत्ता के खिलाफ जन आंदोलनों में सक्रिय रहे, मारक प्रहार किए , पुलिस की लाठियां खाईं और जेल भी गए।

नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की त्रयी ने जन कविता को श्रव्य माध्यम बना दिया, लेकिन जहां तक शास्त्रीयता का सवाल है, इस क्षेत्र में भी ये किसी से पीछे नहीं रहे। इन्होंने हिंदी कविता को नई अंतर्वस्तु और नया रूप विधान दिया।

“नये गगन में नया सूर्य

जो चमक रहा है

यह विशाल भूखंड आज

जो दमक रहा है

मेरी भी आभा है इसमें…”

यह आभा है श्रम की, मेहनतकश की जिसे प्रतिष्ठापित करने का काम नागार्जुन और उनके समानधर्मा कवियों ने किया।

नागार्जुन कबीर, भारतेंदु और निराला की परंपरा के कवि हैं। इनकी कविताओं में शोषकों-शासकों और उनके चाटुकारों के प्रति इतना गहरा व्यंग्य है कि आलोचकों ने इन्हें ‘आधुनिक कबीर’ कहना शुरू कर दिया। सच पूछा जाए तो नागार्जुन ने कविता में व्यंग्य की जो धार पैदा की, वैसा शायद ही कोई कवि कर पाया। यह व्यंग्य व्यवस्था की विद्रूपताओं और उसके प्रति आक्रोश से उत्पन्न होता था।

नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र है। इनका जन्म एक मैथिल ब्राह्मण परिवार में सन् 1911 में बिहार के मधुबनी जिले के सतलरवा गांव यानी ननिहाल में हुआ था। इनका अपना घर दरभंगा जिले के तरौनी गांव में था। जन्म के तीन वर्ष बाद इनकी माता का निधन हो गया। इनके पिता फक्कड़ और घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे।

परंपरागत ढंग से पहले इनकी शिक्षा घर पर हुई। बाद में इन्हें वजीफ़ा मिल गया और      अध्ययन के लिए वे कलकत्ता चले गए। वहां उन्होंने संसकृत, पालि और प्राकृत में विशेषज्ञता हासिल की। थोड़े दिनों के लिए सहारनपुर में शिक्षक भी रहे, पर इनका झुकाव बौद्धमत की ओर होने लगा। बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए वे श्रीलंका चले गए और वहां सिंहली भाषा सीखी। त्रिपिटकों का अध्ययन किया और बौद्ध संन्यासी बन गए। इसके बाद ये मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रभाव में आ गए। इन्होंने मार्क्सवादी साहित्य का व्यापक अध्ययन किया और 1938 में किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती के ‘समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स’ में शामिल हुए। महापंडित राहुल सांकृत्यायन की तरह इन्होंने भी किसान आंदोलन में भाग लिया । 1939 से 1942 के बीच इन्होंने दो बार जेल यात्रा की। लेखन की शुरुआत इन्होंने 1930 के दशक के प्रारंभ में ही कर दी थी। ये मैथिली में ‘यात्री’ नाम से लिखते थे। नागार्जुन अपनी कविताओं की छोटी-छोटी किताबें छपवा कर उन्हें ट्रेनों में गा-गाकर बेचा करते थे। कम्युनिस्ट पार्टी से भी ये जुड़े रहे, पर जब कम्युनिस्ट पार्टी में वैचारिक-सैद्धांतिक ठहराव आ गया तो पार्टी की राजनीति से इनका मोहभंग हो गया, लेकिन आखिरी सांस तक ये मार्क्सवादी विचारधारा एवं दर्शन से जुड़े रहे और ‘प्रतिबद्ध’ रहे।

पश्चिम बंगाल में जब नक्सलवादी आंदोलन का उभार हुआ और उसका देश के अन्य हिस्सों में प्रसार हुआ तो ये एक नये उत्साह से भर उठे और नई पीढ़ी के संघर्ष में आस्था प्रकट की। नई पीढ़ी के प्रति लगाव को उनकी कविता ‘मैं तुम्हारा चुंबन लेता हूं’ में देखा जा सकता है। नक्सलवादी आंदोलन पर उन्होंने ‘भोजपुर’ शीर्षक से कविता लिखी जो काफी चर्चित हुई।

नागार्जुन की रचनाओं का फलक काफी विस्तृत है। इन्होंने कई उपन्यास भी लिखे हैं। मूलत: मैथिली में लिखा गया उनका उपन्यास ‘बलचनमा’ प्रेमचंद के ‘गोदान’ की परंपरा का उपन्यास माना जाता है। इसके अलावा ‘रतिनाथ की चाची’, ‘बाबा बटेसरनाथ’, ‘वरुण के बेटे’ आदि भी महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में हैं। कविता के क्षेत्र में नागार्जुन ने कथ्य और शिल्प की नवीनता के साथ नये-नये प्रयोग किए हैं। ‘कालिदास सच-सच बतलाना’ से लेकर ‘बादल को घिरते देखा है’ जैसी शास्त्रीय कविताएं और ‘मंत्र कविता से लेकर ’राजीव गांधी का नर्सरी राइम’ तक व्यंग्य की मारकता से भरपूर कविताएं। भारतीय सत्ताधारियों के साम्राज्यवाद के प्रति समर्पण पर उपजे आक्रोश को ‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहर लाल की’ में देखा जा सकता है। नागार्जुन ने जयप्रकाश नारायण के साथ मिल कर देश पर इंदिरा गांधी द्वारा थोपी गई इमरजेंसी का विरोध भी किया था । इस संदर्भ में उन्होंने एक व्यंग्यात्मक कविता लिखी थी –

“इंदुजी इंदुजी क्या हुआ आपको?

सत्ता के मद में भूल गईं बाप को?”

इस कविता को जब वे मंच पर नाच-नाच कर सुनाते थे तो समां बंध जाता था।

नागार्जुन का रचना संसार अत्यंत ही विशाल है। कविताओं में भांति-भांति के रंग हैं, श्रमशील जनता के जीवन के चित्र हैं, अभिजात्य पर कड़ा प्रहार है और आत्मालोचना का स्वर भी जो ‘वे हमें चेतावनी देने आए थे’ जैसी कविता में उभर कर सामने आता है। ‘यह सिंदूर तिलकित भाल’ शीर्षक कविता दाम्पत्य प्रेम पर लिखी सर्वश्रेष्ठ कविताओं में एक है। नागार्जुन की कुछ रचनाएं संस्कृत में भी हैं। दुनिया की पहली समाजवादी सोवियत क्रांति के महानायक लेनिन पर उन्होंने संस्कृत में ‘लेनिन शतकम्’ काव्य की रचना की। नागार्जुन ने आजीविका के लिए कभी कोई नौकरी नहीं की और पूर्णत: मसिजीवी रहे। वे फक्कड़ और अलमस्त स्वभाव के थे। एक जगह टिक कर रहना उनके लिए संभव नहीं था।

नागार्जुन के प्रमुख कविता संग्रह हैं  – पत्रहीन नग्न गाछ (मैथिली), युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियां, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, हज़ार-हज़ार बांहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुब्बारे की छाया में, प्रतिनिधि कविताएं आदि। इनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं – रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, उग्रतारा, नयी पौध, वरुण के बेटे, कुंभीपाक। पारो, नवतुरिया और बलचनमा की रचना नागार्जुन ने मैथिली में की। नागार्जुन कई भारतीय भाषाएं जानते थे।

मैथिली कविता संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए इन्हें 1969 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1983 में उत्तर प्रदेश सरकार ने भारत-भारती पुरस्कार दिया। इन्हें सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड भी मिला। इस बहाने उन्हें सोवियत संघ की यात्रा करने का मौका मिला और उन्होंने समाजवाद का ‘सच’ अपनी आंखों से देखा। इसका संक्षिप्त वर्णन उन्होंने राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और नामवर सिंह द्वारा संपादित ‘आलोचना’ के नागार्जुन विशेषांक में मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिये गए साक्षात्कार में किया। 1994 में इन्हें साहित्य अकादमी के फेलो के रूप में सम्मानित किया गया। गरीबी की हालत में लंबी बीमारी के बाद 1998 में 87 वर्ष की उम्र में इनका निधन हुआ। नागार्जुन का साहित्य सिर्फ हिंदी ही नहीं, विश्व साहित्य की थाती है। ऐसे साहित्यकार युगों में पैदा होते हैं।


Wednesday 4 November 2015

नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम






  - शलभ श्रीराम सिंह

नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब - २

जहाँ आवाम के ख़िलाफ़ साज़िशें हो शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
जहाँ पे लब्ज़े-अमन एक ख़ौफ़नाक राज़ हो
जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज़ हो
वहाँ न चुप रहेंगे हम
कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
इन्क़लाब इन्क़लाब -२

यक़ीन आँख मूँद कर किया था जिनको जानकर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर
उन्ही की सरहदों में क़ैद हैं हमारी बोलियाँ
वही हमारी थाल में परस रहे हैं गोलियाँ
जो इनका भेद खोल दे
हर एक बात बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली क़िताब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब

वतन के नाम पर ख़ुशी से जो हुए हैं बेवतन
उन्ही की आह बेअसर उन्ही की लाश बेकफ़न
लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके
करें तो क्या करें भला जो जी सके न मर सके
स्याह ज़िन्दगी के नाम
जिनकी हर सुबह और शाम
उनके आसमान को सुर्ख़ आफ़ताब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब -2

तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल सोच और सोचकर सवाल कर
किधर गए वो वायदे सुखों के ख़्वाब क्या हुए
तुझे था जिनका इन्तज़ार वो जवाब क्या हुए
तू इनकी झूठी बात पर
ना और ऐतबार कर
के तुझको साँस-साँस का सही हिसाब चाहिए
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
जवाब-दर-सवाल है के इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद,
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब

नफ़स-नफ़स, क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए
जवाब दर-सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब
जहाँ आवाम के ख़िलाफ साज़िशें हों शान से
जहाँ पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
वहाँ न चुप रहेंगे हम, कहेंगे हाँ कहेंगे हम
हमारा हक़ हमारा हक़ हमें जनाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
ज़िन्दाबाद इन्क़लाब


(5 नवंबर को कवि के जन्मदिवस पर)