Thursday 22 September 2016

Tuesday 2 August 2016

महाश्वेता अब कौन होगा जंगल का दावेदार, कोई बुनेगा बिरसा की कहानी - वीणा भाटिया


 mahashweta

महाश्वेता देवी का जीवन और लेखन एक जलती मशाल की तरह है। महाश्वेता देवी सिर्फ़ एक रचनाकार ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता भी रही हैं। शोषितों-उत्पीड़ितों और वंचित तबकों के साथ संघर्ष के मोर्चे पर उनके साथ आवाज उठाने वाले ऐसे साहित्यकार कम ही हुए हैं।

महाश्वेता देवी ने रवीन्द्रनाथ से लेकर प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए समकालीन युवा साहित्यकारों से भी लगातार संवाद बनाए रखा और उनकी रचनाशीलता को धार देने में भूमिका निभाई। अपनी कृतियों में महाश्वेता देवी ने आधुनिक भारत के उस इतिहास को जीवंत किया है, जिसकी तरफ कम साहित्यकारों का ध्यान गया। वह है देश का आदिवासी समाज।

आदिवासी समाज के ऐतिहासिक संघर्षों की गाथा लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने उनके बीच अपना काफी समय बिताया। महाश्वेता देवी मानती हैं कि धधकते वर्ग-संघर्ष को अनदेखा करने और इतिहास के इस संधिकाल में शोषितों का पक्ष न लेनेवाले लेखकों को इतिहास माफ नहीं करेगा। असंवेदनशील व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश और एक समतावादी शोषणविहीन समाज का निर्माण ही उनके लेखन की प्रेरणा रही।

आदिवासियों का जीवन देखने पहुंची छत्तीसगढ़ (तब मध्य प्रदेश) 
अपने प्रसिद्ध उपन्यास अरण्येर अधिकार जो हिंदी में जंगल के दावेदार के नाम से प्रकाशित हुआ है, लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने काफी लंबा समय रांची और उसके आसपास के इलाके में बिताया। तथ्य संग्रह करने के साथ ही उन्होंने वहां के आदिवासियों के जीवन को नजदीक से देखा और उनके संघर्षों से जुड़ गईं। उन्होंने साहित्य के माध्यम से जन-इतिहास को सामने लाने का वह काम किया जो उनके पहले नहीं हुआ था।

जब आदिवासियों ने साहित्यकार के लिए मनाया जश्न 
जंगल के दावेदार उनकी ऐसी कृति है, जिसे 1979 में जब साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला तो आदिवासियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी। जगह-जगह ढाक बजा कर आदिवासियों ने कहा था कि उन्हें ही साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है। किसी लेखक से लोगों का ऐसा जुड़ाव दुर्लभ है। जंगल के दावेदार के बारे आलोचक कृपाशंकर चौबे ने लिखा है, यह उपन्यास आदिवासियों के सशक्त विद्रोह की महागाथा है जो मानवीय मूल्यों से सराबोर है।



महाश्वेता ने मुख्य मुद्दे पर उंगली रखी है। मसलन बिरसा का विद्रोह सिर्फ अंग्रेजी शासन के विरुद्ध नहीं था, अपितु समकालीन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भी था। बिरसा मुंडा के इन पक्षों को सहेज कर साहित्य और इतिहास में प्रकाशित करने का श्रेय महाश्वेता को ही है।ज्ज् महाश्वेता देवी सिर्फ आदिवासियों के विद्रोह पर ही लिख कर नहीं बैठ गईं, बल्कि उनके जीवन के सुख-दुख में शामिल हुईं। उनके हक-हकूक के लिए उनके साथ खड़े हो कर उन्होंने आवाज बुलंद की। यही बात उन्हें दूसरे लेखकों से अलग और विशिष्ट बनाती है।

रवींद्र के सानिध्य में महाश्वेता
 महाश्वेता देवी का जन्म 14 जनवरी, 1926 को ढाका में हुआ था। साहित्यिक संस्कार बचपन से उन्हें मिले। 12 वर्ष की उम्र में ही वे बांग्ला के श्रेष्ठ साहित्य से परिचित हो चुकी थीं। अपनी दादी की लाइब्रेरी से किताबें लेकर पढ़ने का जो चस्का उन्हें बचपन में लग गया था। उनकी मां भी उन्हें साहित्य और इतिहास की चुनिंदा किताबें पढ़ने को देती थीं। बचपन में ही जब वे शान्तिनिकेतन शिक्षा प्राप्त करने के लिए गईं तो उन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर के साक्षात्कार का मौका मिला।

सातवीं कक्षा में गुरुदेव ने उन्हें बांग्ला में एक पाठ पढ़ाया। 1936 में शान्तिनिकेतन में बंकिम शतवार्षिकी समारोह में उन्हें रवीन्द्रनाथ का व्याख्यान सुनने का मौका मिला। उस समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वहां हिन्दी पढ़ाते थे। ऐसे माहौल में महाश्वेता देवी के साहित्यिक संस्कार विकसित होते गए। बाद में पारिवारिक कारणों से शान्तिनिकेतन उन्हें छोड़ना पड़ा और वे कलकत्ता चली गईं। वहां उन्होंने छन्नहाड़ा नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली। 

फिल्मकार ऋत्विक घटक थे चाचा
महाश्वेता देवी के पिता मनीष घटक भी साहित्यकार थे। उनकी माँ धारित्री देवी भी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। चाचा ऋत्विक घटक महान फिल्मकार हुए। कहने का मतलब पूरा परिवार ही साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ा हुआ था। ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि में महाश्वेता देवी ने बहुत कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था।

उपन्यास लिखने के लिए की असल जगहों की यात्रा
उनका पहला उपन्यास झाँसी की रानी 1956 में प्रकाशित हुआ। इसे लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने झांसी और 1857 की जनक्रान्ति से जुड़े इलाकों की यात्रा की और गहन शोध किया। उन्होंने झांसी. जबलपुर, ग्वालियर, कालपी, पूना, ललितपुर की यात्रा की और तमाम दस्तावेजों की छानबीन कर, पुराने लोगों की यादों को जुटा कर उपन्यास लिखा।

इसे 1857 की जनक्रान्ति का साहित्यिक दस्तावेज कहा जा सकता है। कोई रचना लिखने के लिए संबंधित इलाके की यात्रा करना, तथ्य जुटाना और वहां के लोगों से जीवंत संपर्क कायम करना महाश्वेता देवी की अपनी विशेषता रही है। यही कारण है कि इनके उपन्यास इतिहास की थाती बन चुके हैं और उनसे आने वाली पीढ़ियों को अपने इतिहास को समझने में मदद मिलेगी।

मास्टर साहब में उकेरा क्रांतिकारी का जीवन
महाश्वेता देवी ने लेखन की शुरुआत कविता से की थी, पर बाद में कहानी और उपन्यास लिखने लगीं। अग्निगर्भ, जंगल के दावेदार, 1084 की मां, माहेश्वर, ग्राम बांग्ला सहित उनके 100 उपन्यास प्रकाशित हैं। बिहार के भोजपुर के नक्सल आन्दोलन से जुड़े एक क्रान्तिकारी के जीवन की सच्ची कथा उपन्यास के रूप में उन्होंने मास्टर साहब में लिखी। इसे उनकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति माना गया।

महाश्वेता देवी वामपंथी विचारधारा से जुड़ी रहीं, पर पार्टीगत बंधनों से अलग ही रहीं। महाश्वेता देवी ने हमेशा वास्तविक नायकों को अपने लेखन का आधार बनाया। च्झांसी की रानीज् से लेकर जंगल के दावेदार में बिरसा मुंडा और भोजपुर के नक्सली नायक पर आधारित उपन्यास मास्टर साहब में इसे देखा जा सकता है। 1084 की मां उनका बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जिस पर फिल्म भी बनी।

दुर्लभ है महाश्वेता जैसा रचियता मिलना
यह दरअसल, संघर्ष और विद्रोह की वह कहानी है जिसे इतिहास-लेखन में भी स्थान नहीं मिला। कहा जा सकता है कि महाश्वेता देवी का समग्र लेखन उत्पीड़ित-वंचित तबकों के संघर्षों को सामने लाने वाला है, उसमें वह इतिहास-बोध है जो संघर्षों की दिशा को तय करने वाला है। महाश्वेता देवी के लिए उनका लेखन कर्म जीवन से पूरी तरह आबद्ध है। यही कारण है कि वे लेखन के साथ ही सामाजिक आन्दोलनों में एक कार्यकर्ता की तरह शामिल होती रहीं। कार्यकर्ता-लेखक का एक नया ही रूप महाश्वेता देवी में दिखता है, जो आज के समय में दुर्लभ ही है। 

घुमंतू पत्रकार की भूमिका में रही सक्रिय
महाश्वेता देवी ने शान्तिनिकेतन से बीए करने के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री ली और अंग्रेजी की व्याख्याता के रूप में काम किया। साथ ही, लगातार यात्रा करते हुए उन्होंने घुमंतू पत्रकार की भूमिका भी निभाई और बांग्ला अखबारों-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग करती रहीं। महाश्वेता देवी के काम का क्षेत्र बहुत व्यापक रहा है। उन्हें 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पर ऐसी लेखिका के लिए पुरस्कार कोई मायने नहीं रखते। दरअसल, महाश्वेता देवी ज़मीनी लेखिका रही हैं, जो हमेशा किसी भी तरह के प्रचार और चकाचौंध से दूर लेखन और आन्दोलनात्मक गतिविधियों से ही जुड़ी रहीं।

Friday 24 June 2016


गुलबानो : अजीत कौर / वीणा भाटिया

 vina bhatia


अजीत कौर पंजाबी की उन लेखिकाओं में हैं जिनका नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। अजीत कौर के लेखन के बारे में एक पँक्ति में कहा जा सकता है कि वह अपनी पहचान खोते जा रहे उन तबकों के जीवन-संघर्षों को सामने लाता है, जिनकी नियति में पराजय लिख दिया गया है। अपने लेखन में अजीत कौर ने इन्हीं वंचित तबकों के जीवन-यथार्थ को उकेरने की कोशिश की है, जिनमें वंचित महिलाओं का आना स्वाभाविक ही था। इनकी रचनाओं में स्त्री का संघर्ष और परिवार एवं समाज में उसकी हीन दशा के विविध पहलुओं का चित्रण हुआ है। यही नहीं, उनके लेखन में राजनीति के लगातार जनविरोधी होते जा रहे चरित्र का खुलासा होने के साथ उस पर प्रहार भी है।
अन्य पंजाबी लेखकों की तरह अजीत कौर पर भी भारत-विभाजन का गहरा प्रभाव पड़ा। विभाजन ने उनके दिल में ऐसा घाव पैदा कर दिया जो कभी भरा नहीं जा सकता। दुनिया की इस सबसे बड़ी त्रासदी की पीड़ा उनके लेखन में प्रमुखता से जाहिर हुई है और आज भी संभवत: उनके मन को सालती रहती है। यही कारण है कि उन्होंने दक्षिण एशियायी देशों के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की एकता को लेकर काम किया और आठ देशों के लेखकों का एक संगठन बनाया, जिसका समय-समय पर सम्मेलन होता है। सार्क देशों के लेखकों के इस संगठन ने आपसी विचार-विनिमय और मिलने-जुलने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है। इस संगठन के जरिए दक्षिण एशियायी देशों के लेखक-कलाकार आपस में मिलते हैं और विचार साझा करते हैं। यह एक बड़ी बात है जिसे अजीत कौर ने अपनी पहल से सम्भव किया है।
अजीत कौर को फेमिनिस्ट कहा जाता है। पर वे परम्परागत अर्थों में फेमिनिस्ट नहीं हैं। उनका कहना है कि वे फेमिनिस्ट तो हैं, पर बात-बात पर आन्दोलन करने वाली फेमिनिस्ट नहीं हैं। स्त्री के दुख-दर्द को सामने लाना और उसके जीवन की पड़ताल करना यदि फेमिनिज्म है तो वे फेमिनिस्ट हैं। पर भूलना नहीं होगा कि उनकी कहानियों-उपन्यासों में जो महिला क़िरदार आती हैं, वे निम्न मध्यवर्गीय और निम्न वर्ग की हैं। स्त्री की स्वतंत्रता उनके लिए न्यायपरक और शोषण से मुक्त समाज में ही सम्भव है। यह देखते हुए कहा जा सकता है कि उनका वैचारिक फ़लक काफ़ी विस्तृत है। खास बात है कि अजीत कौर सिर्फ़ लेखन में ही नारी स्वत्रंता का सवाल नहीं उठातीं, बल्कि इसके लिए वे सामाजिक स्तर पर भी सक्रिय रही हैं। इन्होंने दिल्ली में सार्क एकेडमी ऑफ आर्ट एंड कल्चर नाम की संस्था बनाई है। यहाँ गरीब लोगों, झुग्गियों के बच्चों और स्त्रियों को भी आने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस तरह अजीत कौर सिर्फ़ लेखन ही नहीं, व्यवहारिक स्तर पर भी आम लोगों, खासकर वंचित तबकों को रचनात्मक गतिविधियों से जोड़ती हैं। जाहिर है, ऐसा करने वाले लेखक बहुत ही कम हैं।
1934 में लाहौर में जन्मी अजीत कौर ने पढ़ाई के दौरान ही लेखन की शुरुआत कर दी थी। उनकी पहली कहानी इंटर कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित और पुरस्कृत हुई थी। अजीत कौर का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उनके लेखन में भी संघर्षों की गाथा सामने आई है। अजीत कौर के लेखन को व्यापक पहचान मिली। देश ही नहीं, विदेशों में भी उनकी कृतियाँ लोकप्रिय हुईं। उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं – कसाईबाड़ा, गुलबानो, बुतशिकन, मौत अली बाबेदी, न मारो, नवम्बर 84, काले कुएँ, दास्तान एक जंगली राज की। उपन्यासों में धुप्प वाला शहर और पोस्टमार्टम प्रमुख हैं। आत्मकथा इन्होंने दो खंडों में लिखी – खानाबदोश और कूड़ा-कबाड़ा। कच्चे रंगा दा शहर लंदन नाम से इन्होंने यात्रा वृतांत भी लिखा है। तकीये दा पीर नाम से संस्मरणों की भी एक पुस्तक सामने आई है। आत्मकथा खानाबदोश का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। कई कहानियों पर टेलीविजन सीरियल भी बने।
अजीत कौर ने होश संभालते ही देश का विभाजन देखा। भयानक दंगे और रक्तपात। बड़े पैमाने पर विस्थापन। इस त्रासदी का उनके मन पर गहरा असर पड़ा। इसके बाद 1984 में सिखों का जो कत्लेआम हुआ, उसने उनकी आत्मा को झकझोर दिया, विदीर्ण कर दिया। उन्होंने लिखा – “वह औरत जिसने इस देश पर इतने वर्षों से शासन किया, जिसने अमृतसर में हरमंदिर साहब पर अहमद शाह अब्दाली की तरह हमला बोला और इस देश को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति समझा।” 1984 में सिखों के कत्लेआम को वह चंगेज खान, अब्दाली और नादिर शाह के क्रूर कृत्यों के समान मानती रहीं। गुजरात में 2002 में हुए दंगों की भी उन्होंने खुल कर निंदा की और इसे मानवता पर एक बड़ा धब्बा कहा।
आज 82 साल की उम्र में भी वे सक्रिय हैं। पिछले दिनों उनकी किताब ‘लेफ्टओवर्स’ आई थी और अब आ रही है ‘यहीं कहीं होती थी जिन्दगी’। साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित अजीत कौर आज भी नये लेखकों को प्रोत्साहित करने के साथ हर तरह से उनकी मदद को तैयार रहती हैं। अजीत कौर की रचनाओं को जितनी बार पढ़ा जाए, उतनी बार लगता है जैसे पहली बार पढ़ रहे हैं। यही तो महान रचनाओं का गुण है।

Tuesday 7 June 2016

जानिए क्यों हिंदी की लोक परंपरा के प्रतिनिधि कवि थे भगवत रावत/वीणा भाटिया

 vina bhatia
भगवत रावत समकालीन हिंदी कविता में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। आज जब प्रगतिशीलता और जनवाद के नाम पर अधिकांश कविताएं जहां सपाटबयानी, जुमलेबाज़ी और कोरी भावुकता की अभिव्यक्ति मात्र रह गई हैं, भगवत रावत की कविता अपने कथ्य और रूप विधान में पूर्णत: यथार्थवादी है। इनकी रचनाशीलता का क्षेत्र अत्यंत ही व्यापक है। प्रकृति एवं समाज से कवि पूरी तरह एकात्म है। भाव-बोध के अत्यंत ही उच्च स्तर पर सृजित होने वाली उनकी कविताएं पाठकों-श्रोताओं को जटिल एवं संशलिष्ट यथार्थ के बहुविध पहलुओं से सामान्यीकृत कराती हैं। संवेदना के स्तर पर भगवत रावत की कविताएं पाठकों को झकझोरने के साथ ही उसके मन में ‘बजती’ हैं। स्वयं कवि का कहना है कि जो कविताएं पाठकों के मन में नहीं ‘बजे’ उन्हें कविता मानने में संदेह होता है।


रावत की कविताओं में जहां चुप्पी है, वह भी कुछ न कुछ कहती है...काव्य पंक्तियों के बीच की खाली जगहें, संकेत-चिह्न...सब कुछ अभिव्यक्ति को गंभीर अर्थ प्रदान करने वाले हैं। स्पष्ट है कि कवि अद्भुत शिल्प- विधान की रचना करता है जो काव्य अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्रयोग के नए प्रतिदर्श बन जाते हैं। पर इससे यह समझना ग़लत होगा कि रावत शिल्प पर ज़ोर देते हुए पूर्णत: प्रयोगधर्मी कवि हैं, सच तो यह है कि इनकी कविता विचारों की सान पर धारदार होती चली गई है।


सूक्ष्म और जटिल विधा है कविता : वैसे, कवि का मानना है कि लिखित होना आज कविता की नियति बन चुकी है, पर मूलत: यह उच्चरित ध्वनि है और अलग-अलग मन:स्थितियों में सुनने अथवा पढ़े जाने पर अलग छवियां दृश्यमान करती हैं। रावत कहते हैं, “आज हिंदी कविता कुछ इतनी लिखित होती जा रही है कि धीरे-धीरे सामान्य मनुष्य की भाषा, उसकी प्रकृति, बोली-बानी और रूप-रंग से दूर होती जा रही है।” स्पष्ट है कि आज कविता के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें काफी दोहराव और विवरणात्मकता है, जबकि कविता एक सूक्ष्म और जटिल विधा है।


सामूहिक चेतना जगाती है : कविता रावत यह भी कहते हैं, “अपने समय की घटनाओं, दुर्घटनाओं, छल, प्रपंच, पाखंड, प्रेम, करुणा, षड्यंत्र, राजनीति आदि से विमुख होकर आज की कविता संभव नहीं है। यही कारण है कि आज की कविता मात्र संवेदना नहीं जगाती, वह आंखें भी खोलती है। वह करुणा और प्रेम में ही नहीं डुबाती, व्याकुल भी बनाती है। इसलिए वह समाज की सामूहिक चेतना की रचनात्मकता का प्रतीक है। मुक्तिबोध की शब्दावली में वह हमारी ‘चेतना का रक्तप्लावित स्वर’ भी है। जीवन की तमाम जटिल अनुभूतियों और स्थितियों में जाते हुए वह कई बार जटिल भी हो जाती है। कविता को आवश्यकतानुसार इतना जटिल होने की छूट मिलनी चाहिए।” बावजूद भगवत रावत की कविताएं मुक्तिबोध की कविताओं का भांति इतनी जटिल नहीं कि आम पाठकों के पल्ले ही न पड़ें। अधिकांश कविताएं सहज संप्रेषणीय हैं। पर जैसा कि पहले कहा गया है, अलग-अलग मन:स्थितियों में कविता में अलग-अलग अर्थ छवियां संप्रेषित होती हैं। भगवत रावत इस दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कवि हैं कि इनकी कविता पूरी तरह लोक से जुड़ी हुई है। लोकचेतना से इनकी कविता किस हद तक संपृक्त है, इसे ‘हे बाबा तुलसीदास’,‘बोल मसीहा’, ‘बुन्देली में चार कविताएं’, ‘ईसुरी और रजऊ के नाम’, ‘बैलगाड़ी’,‘अथ रूपकुमार कथा’ और ‘सुनो हिरामन’ जैसी लंबी कविताओं में देखा जा सकता है। ‘वह मां ही थी’, ‘सोच रही है गंगाबाई’, ‘कचरा बीनती लड़कियां’ और‘भरोसा’ जैसी न जाने कितनी कविताएं हैं जो लोक से कवि की प्रतिबद्धता को दिखाती हैं।

हिंदी की लोक परंपरा का कवि  : वस्तुत: भगवत रावत हिंदी कविता की समृद्ध लोक परंपरा के श्रेष्ठ कवियों में एक हैं। काव्य की इस लोक परंपरा की जड़ें उत्तर मध्य काल के भक्ति आंदोलन में हैं। समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में कविता की लोकधारा उस जन से जुड़ जाती है जो कवि त्रिलोचन के शब्दों में ‘भूखा है दूखा है कला नहीं जानता...।’ इस सांस्कृतिक परिवेश में कवि ‘मानुष गंध’ की पहचान करने की कोशिश करता है। वह मानव संस्कृति को ख़तरे में डालने वालों से लोगों को सावधान करना ज़रूरी समझता है जो ‘आयुधों के यान पर सवार’ हो कर आ रहे हैं। वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक परिवेश में श्रमजीवियों के जैविकअस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरों से क्षुब्ध हो कर वह यह कहने को मजबूर हो उठता है कि ‘क्या इसी के लिए धारण की थी देह ?’ वहीं, अनेकानेक कविताओं में वह वर्तमान सभ्यता और संस्कृति के अंतर्विरोधों को बड़े ही सूक्ष्म स्तर पर उजागर करते हुए आज के उपभोक्ता समाज में जीवन की अर्थवत्ता पर सवाल खड़े करता है।

रावत की कविताओं में रूप-रंग- रस-गंध- नाद का वह निनाद है जो पाठकों को संतृप्त कर देता है। शमशेर की तरह रावत ध्वनि संकेतों से चित्र-रचना करते हैं। इस मायने में वे एक उच्च कोटि के कलाकार हैं। यह एक खास बात है कि रावत कविता को मूलत: एक श्रव्य माध्यम मानते हैं, ऐसा इसलिए कि वह लोक परंपरा के कवि हैं, उस सामाजिक परिवेश के कवि हैं, जिनमें त्रिलोचन की चंपा ‘काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती।’ कम से कम शब्दों में यही कहा जा सकता है रावत हिंदी की लोक परंपरा के, जिसकी धारा भक्ति काल से चली आ रही है, प्रतिनिधि कवि हैं।


‘साक्षात्कार’ का किया संपादन : भगवत रावत का जीवन प्रारंभ से ही संघर्षशील रहा। झांसी से एमए, बीएड करने के बाद इन्होंने प्राइमरी स्कूल में अध्यापन कार्य किया। फिर 1983 से 1994 तक रीडर पद पर कार्य किया। दो वर्ष तक मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक रहे। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिंदी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष रहे। वे साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् के निदेशक भी रहे और मासिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का संपादन किया।
कई भाषाओं में अनुदित हुई रचनाएंइनके प्रमुख कविता संग्रह हैं – समुद्र के बारे में (1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह (1988), सुनो हिरामन (1992), सच पूछो तो(1996), हमने उनके घर देखे (2001), ऐसी कैसी नींद (2004)। 1993 में इनकी ‘कविता का दूसरा पाठ’ शीर्षक से आलोचना की पुस्तक प्रकाशित हुई। इनकी रचनाएं मराठी, बांग्ला, उड़िया, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी एवं जर्मन भाषा में अनूदित हुईं।


इन्हें 1979 में दुष्यंत कुमार पुरस्कार, 1989 में वागीश्वरी पुरस्कार और 1997-98 का शिखर सम्मान प्राप्त हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में भी इनका उल्लेखनीय योगदान रहा। गुर्दे की बीमारी से पीड़ित भगवत रावत का निधन 26 मई, 2012 को भोपाल स्थित उनके घर पर हुआ। यह ठीक है कि भगवत रावत अब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी कविताएं हमें यह अहसास कराती रहेंगी कि वे हमारे आसपास ही मौजूद हैं।

जड़ों से कटती पत्रकारिता की भाषा - वीणा भाटिया

 vina bhatia


एक समय था जब लोग कहते थे कि भाषा सीखनी हो तो अखबार पढ़ो। लेकिन आज एकाध अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश अखबारों में जो भाषा इस्तेमाल में लाई जा रही है, वह पूरी तरह जड़ों से कटी हुई है। अखबारों से भाषा सीखना आज संभव नहीं रह गया है। अखबारों की भाषा लगातार विकृत होती चली जा रही है। ऐसा लगता है, अखबारों के प्रबन्धन पर बाजारवाद इस कदर हावी हो गया है कि वे भाषा के साथ खिलवाड़ पर उतर आए हैं। भूलना नहीं होगा कि हिंदी के विकास में पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही है। आधुनिक हिंदी के निर्माता कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस पत्रकारिता की शुरुआत की, वह जन आकांक्षाओं और स्वातंत्र्य चेतना से जुड़ी हुई थी। यद्यपि उस समय हिंदी का वर्तमान स्वरूप बन नहीं पाया था, पर उसकी नींव भारतेंदु एवं उनके मंडल में शामिल लेखकों-पत्रकारों ने डाल दी थी। उस नींव पर हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसी भाषा विकसित हुई जिसमें वह ताकत थी कि वह गंभीर से गंभीर मुद्दों को सहजता के साथ अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम थी। हिंदी का सहज जातीय रूप अखबारों के माध्यम से सामने आया और आम लोगों तक इसकी पहुंच बनी। यह भाषा सर्वग्राह्य भी हुई।

हिंदी पत्रकारिता की एक खासियत रही है कि इस क्षेत्र में हिंदी के बड़े लेखक, कवि और विचारक आए। हिंदी के बड़े लेखकों ने संपादक के रूप में अखबारों की भाषा का मानकीकरण किया और उसे सरल-सहज रूप देते हुए कभी उसकी जड़ों से कटने नहीं दिया। लेकिन गत सदी के पिछले दशक से अखबारों की भाषा का चरित्र बदलने लगा और वह अपनी जड़ों से कटने लगी। यह नब्बे का दशक था, जब अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की प्रवृत्तियों का जोर बढ़ने लगा था। इस दौर में बाजारवाद का दबाव बढ़ने लगा और संभवत: इसी से अखबारों की भाषा में विकृतियां सामने आने लगीं। यद्यपि इस दौरान हिंदी में संपादकों की वह पीढ़ी मौजूद थी, जो बाजारवाद के दबाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। गौरतलब है कि विद्वान संपादकों की इस पीढ़ी ने भाषा के विकास, उसके मानकीकरण और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने के लिए उसे सक्षम बनाने में महती भूमिका निभाई थी। लेकिन जब बाजारवादी ताकतों की दखलन्दाजी बढ़ती गई और पूंजी का सत्ता विचार और चिंतन पर हावी हो गई तो लंबे संघर्ष के बाद स्तरीय जनभाषा का जो ढांचा विकसित हुआ था, उसे चरमरा कर ढहते भी देर नहीं लगी।

नब्बे के दशक से ही अखबारों की भाषा के हिंग्लिशीकरण का दौर शुरू हुआ और भाषा के संस्कार बिगड़ने लगे। अंग्रेजी और हिंदी शब्दों के मेल से एक अजीब तरह की विकृत खिचड़ी भाषा सामने आने लगी। इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि अखबारों में आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करना जरूरी है और आम लोगों की बोलचाल में अंग्रेजी शामिल हो गई है। लेकिन इस तर्क का कोई ठोस आधार नहीं था। अखबारों में पहले भी बोलचाल की हिंदी का ही प्रयोग हो रहा था, न कि तत्सम शब्दावली वाली क्लिष्ट हिंदी या सरकारी अनुवाद वाली हिंदी का। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो सहजता के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने में शामिल करती रही है और इस तरह से समृद्ध होती रही है। इसमें दो राय नहीं है कि गत दशकों में हिंदी पर अंग्रेजी का काफी प्रभाव पड़ा है और आम जनजीवन में घुल-मिल चुके अंग्रेजी के शब्द हिंदी लेखन में सहज तौर पर शामिल हो गए हैं। लेकिन हिंदी का हिंग्लिशीकरण अलग ही चीज है। इसमें जानबूझकर अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में ठूंसा जाने लगा है, जिससे उसका रूप अजीब ही होने लगा है और उसके सहज प्रवाह में बाधा पहुंची है। यह एक कृत्रिम भाषा है जिसे कतिपय अखबार जोर-शोर से आगे बढ़ा रहे हैं। इस तरह से वे भाषा का विजातीयकरण करने के साथ नई पीढ़ी के भाषा-संस्कार को विकृत करने की कोशिश भी कर रहे हैं। कुछ अखबार तो खबरों के शीर्षक के साथ अजीब प्रयोग करते हुए अंग्रेजी के शब्द रोमन में ही दे देते हैं। इस मामले में हाल के दिनों में आईं वेबसाइटें आगे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी के स्वरूप को बिगाड़ने का काम अखबारों से ज्यादा वेबसाइटों ने किया है। वाकई हिंदी के साथ अंग्रेजी का यह मेल अजीबोगरीब लगता है। लेकिन एक फैशन के रूप में इसे बढ़ावा दिया जा रहा है।

दूसरी तरफ, समय के साथ अखबारों की भाषा में अशुद्धियां भी बढ़ी हैं। लेखन में व्याकरण के नियमों की अवहेलना या तो जानबूझकर की जाती है या जानकारी के अभाव में। वाक्य-निर्माण में अशुद्धियां साफ दिखाई पड़ती हैं। विराम चिह्नों के प्रयोग को गैरजरूरी समझा जाने लगा है। खास बात यह भी है कि प्राय: सभी अखबारों ने अपनी अलग स्टाइल-शीट बना रखी है। एक ही शब्द अलग-अलग अखबार अलग-अलग तरीके से लिखते हैं और उसे औचित्यपूर्ण भी ठहराते हैं। इससे पाठकों में भ्रम की स्थिति पैदा होती है। भूलना नहीं होगा कि हमारी परंपरा में छपे हुए शब्द को प्रमाण माना जाता है। ऐसे में, नई पीढ़ी गलत को ही सही समझ ले तो उसका क्या दोष! भूलना नहीं होगा कि हिंदी पत्रकारिता का एक दौर वह भी रहा है जब संपादक अखबार में छपे हर शब्द की शुद्धता के प्रति स्वयं आश्वस्त होते थे और किसी प्रकार की गलती को गंभीरता से लिया जाता था। गलती के लिए भूल-सुधार प्रकाशित करने की परंपरा थी, पर अब वह संस्कृति लुप्त ही हो चुकी है। यह हिंदी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

हिंदी पत्रकारिता के साथ एक विडंबना यह भी है कि सरकारी कामकाज की तरह यहां भी हिंदी अनुवाद की ही भाषा बनी हुई है। जो सामग्री सहजता से हिंदी में उपलब्ध है, उसे भी अंग्रेजी से अनुवाद कर प्रकाशित किया जाता है। यह हिंदी भाषा और समाज के पिछड़ेपन की ही निशानी कहा जा सकता है। लगता है, अपने औपनिवेशिक अतीत से अभी तक हम उबर नहीं पाए हैं। भूलना नहीं होगा, प्रेमचंद ने अंग्रेजी को ‘गुलामी का तौक’ कहा था। यह एक बड़ा सवाल है कि अंग्रेजी की गुलामी या कहें उसके प्रति विशेष पर गैरजरूरी आकर्षण से हम कब उबर पाएंगे।

वीणा भाटिया की कविताएँ



http://www.rachanakar.org/2016/06/blog-post_27.html
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष



1.    पॉलिथीन
प्लास्टिक की थैलियां
रंग-बिरंगी आकर्षक थैलियां
सामान लाने-ले जाने में 
काम दिन भर आती थैलियां।

हमारे इस पर्यावरण को
नुकसान पहुंचाती थैलियां
थैली को जब गाएं खाएं
फिर तो वो मर ही जाएं।

अपने आप नहीं नष्ट होती
नाले-नालियां बंद कर देती
आओ एक अभियान चलाएं
पॉलिथीन को हम सब भगाएं।

हम बच्चे जिद पर अड़े हैं
पॉलिथीन से भिड़े हैं
कल हमारा हो सुंदर
यही प्रण लिए खड़े हैं।

2.    मित्रता का बिगुल बजाएं
दिन भर आंगन में आते
आवाजें मोहक निकालते
हम इंसानों से होते
हमसी बातें करते पक्षी।

अगर पक्षियों को देखना चाहें
अल सुबह उठ ही जाएं
सुबह से ही शुरू हो जाती
इनकी चीं-चीं काएं-काएं।

राष्ट्रीय पक्षी हो मोर अगर
तो दर्जी भी गौरैया है
बाज है अपना शक्तिशाली
प्यारी लगती सोनचिरैया है।

कठफोड़वा लकड़ी काट कऱ
लकड़हारा कहलाता है
बया हमसा ही बुनती
गिद्ध सफाई कर्मचारी है।

दाना-पानी रख कर 
वर्ड हाउस भी बनाएंगे
फल के पेड़ लगा कर
मित्रता का बिगुल बजाएंगे।

3.    नीम का पेड़
सीढ़ि‍याँ चढ़ कर आया मैं उपर 
खुली थी खिड़कियाँ हवा 
आ रही थी फर-फर 
झांका जब बाहर 
दिखा एक लहराता पेड़।

सुन्दर था 
स्वस्थ था 
चिड़ि‍यों का घर था। 
चहकती थी चिड़ि‍या 
फुदकती थी चिड़ि‍या 
गाती थी चिड़ि‍या 
खुश था नीम का पेड़।

आया पतझड़ 
उड़ गए पत्ते  
रह गई डालियाँ 
नहीं रही छाया 
नहीं रही शीतलता 
तब भी...
चहकती थी चि‍ड़ि‍या 
गाती थी चि‍ड़ि‍या 
और...
खुश था नीम का पेड़।

Monday 16 May 2016

ਜੁਲਾਹੇ ਦਾ ਕੈਨਵਸ – ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ /ਵੀਨਾ ਭਾਟੀਆ




 अर्पणा कौर
ਕਲਾ ਦੀ ਕਥਾ
ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਚਿੱਤਰਕਾਰ ਹੈ। ਸਮਕਾਲੀ ਭਾਰਤੀ ਕਲਾ ਵਿੱਚ ਉਸ ਦਾ ਆਪਣਾ ਇੱਕ ਖ਼ਾਸ ਸਥਾਨ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਬਣਾਏ ਚਿੱਤਰ ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆਂ ਦੀਆਂ ਪ੍ਰਮੁੱਖ ਆਰਟ ਗੈਲਰੀਆਂ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਦਰਸ਼ਿਤ ਹੋ ਚੁੱਕੇ ਹਨ। ਆਧੁਨਿਕ ਕਲਾ ਵਿੱਚ ਉਂਜ ਤਾਂ ਕਈ ਭਾਰਤੀ ਚਿੱਤਰਕਾਰਾਂ ਨੇ ਆਪਣੀ ਜਗ੍ਹਾ ਬਣਾਈ ਹੈ, ਪਰ ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਦਾ ਕੰਮ ਵਿਲੱਖਣ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਚਿੱਤਰ ਹੋਰ ਪ੍ਰਮੁੱਖ ਆਧੁਨਿਕ ਚਿੱਤਰਕਾਰਾਂ ਵਾਂਗ ਸਿਰਫ਼ ਕਲਪਨਾਤਮਕ ਹੀ ਨਹੀਂ ਹਨ ਸਗੋਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਸਾਹਮਣੇ ਆਇਆ ਯਥਾਰਥ ਇਹ ਦਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਉਸ ਦਾ ਹਾਸ਼ੀਏ ’ਤੇ ਧੱਕੇ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਭਾਵ-ਜਗਤ ਨਾਲ ਗੂੜ੍ਹਾ ਸਬੰਧ ਹੈ। ਉਹ ਮਨੁੱਖੀ ਮਨ ਦੇ ਹਨੇਰੇ ਕੋਨਿਆਂ ’ਚ ਝਾਕਦੀ ਅਤੇ ਉਸ ਦੇ ਦਰਦ ਨੂੰ ਕੈਨਵਸ ’ਤੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਚਿਤਰਦੀ ਹੇ ਕਿ ਉਹ ਕਵਿਤਾ ਦਾ ਰੂਪ ਲੈ  ਲੈਂਦਾ ਹੈ। ਇਹੀ ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਦੀ ਖ਼ਾਸੀਅਤ ਹੈ। ਉਸ ਦੀ ਕਲਾ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੀਆਂ ਤਲਖ਼ ਸੱਚਾਈਆਂ ਨੂੰ ਸਾਹਮਣੇ ਲਿਆਉਂਦੀ ਹੈ। ਉਹ ਕਲਪਨਾ ਵਿੱਚ ਵੀ ਅਸਲੀਅਤ ਦੇ ਰੰਗ ਬਿਖੇਰ ਦਿੰਦੀ ਹੈ। ਭਾਰਤੀ ਔਰਤਾਂ ਦੀ ਮਾੜੀ ਦਸ਼ਾ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਇਹ ਉਸ ਦੇ ਕੰਮ ਵਿੱਚੋਂ ਹਮੇਸ਼ਾਂ ਝਲਕਦਾ ਹੈ। ਉਸ ਨੇ ਵ੍ਰਿੰਦਾਵਨ ਦੀਆਂ ਔਰਤਾਂ ਦੀ ਹਾਲਤ ’ਤੇ ‘ਵਿਡੋਜ਼ ਆਫ਼ ਵ੍ਰਿੰਦਾਵਨ’ ਨਾਂ ਦੀ ਚਿੱਤਰ ਲੜੀ ਬਣਾਈ, ਜੋ ਦੁਨੀਆਂ ਭਰ ਵਿੱਚ ਚਰਚਿਤ ਰਹੀ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ 1984 ਦੇ ਸਿੱਖ ਵਿਰੋਧੀ ਦੰਗਿਆਂ ਬਾਰੇ ਉਸ ਦੇ ਚਿੱਤਰਾਂ ਦੀ ਲੜੀ ‘ਵਰਲਡ ਗੋਜ਼ ਔਨ’ ਜਗਤ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਹੋਈ।
ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਦਾ ਜਨਮ ਦਿੱਲੀ ਵਿੱਚ 4 ਸਤੰਬਰ 1954 ਨੂੰ ਹੋਇਆ। ਉਸ ਦੀ ਮਾਂ ਅਜੀਤ ਕੌਰ ਪੰਜਾਬੀ ਦੀ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਲੇਖਿਕਾ ਹੈ। ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਨੇ ਦਿੱਲੀ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਤੋਂ ਸਾਹਿਤ ਵਿੱਚ ਐੱਮ ਏ ਕੀਤੀ। ਉਸ ਨੇ ਚਿੱਤਰਕਾਰੀ ਦੀ ਰਸਮੀ ਸਿੱਖਿਆ ਨਹੀਂ ਲਈ। ਉਸ ਉੱਤੇ ਪਹਾੜੀ ਚਿੱਤਰਕਲਾ ਅਤੇ ਲੋਕਧਾਰਾ ਦਾ ਡੂੰਘਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਹੈ। ਦਾਰਸ਼ਨਿਕ ਪੱਖ ਤੋਂ ਉਹ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ, ਭਗਤ ਕਬੀਰ, ਮਹਾਤਮਾ ਬੁੱਧ, ਜੋਗੀ-ਜੋਗਣ ਅਤੇ ਸੂਫ਼ੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਦਾ ਅਸਰ ਕਬੂਲਦੀ ਹੈ। ਜਾਪਾਨ ’ਤੇ ਸੁੱਟੇ ਗਏ ਪਰਮਾਣੂ ਬਾਰੇ ਉਸ ਵੱਲੋਂ ਬਣਾਇਆ ਗਿਆ ਚਿੱਤਰ ਹੀਰੋਸ਼ੀਮਾ ਦੇ ਆਧੁਨਿਕ ਕਲਾ ਅਜਾਇਬਘਰ ਵਿੱਚ ਸਥਾਈ ਤੌਰ ’ਤੇ ਰੱਖਿਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਕਲਾ ਦੀ ਗੁੜ੍ਹਤੀ ਉਸ ਨੂੰ ਘਰ ਵਿੱਚੋਂ ਹੀ ਮਿਲੀ। ਬਾਲਪਨ ਵਿੱਚ ਉਹ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਅਜੀਤ ਕੌਰ ਨੂੰ ਨਾਗਾਸਾਕੀ ਅਤੇ ਹੀਰੋਸ਼ੀਮਾ ਦੇ ਪਰਮਾਣੂ ਹਮਲੇ ਦੇ ਮ੍ਰਿਤਕਾਂ ਲਈ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ ਕਰਦਿਆਂ ਦੇਖਦੀ। ਇਹੀ ਗੱਲ ਉਸ ਦੇ ਇਸ ਬਾਰੇ ਚਿੱਤਰ ਦਾ ਆਧਾਰ ਬਣੀ। 1980 ਵਿੱਚ ਉਸ ਨੇ ਧਰਤੀ ਨਾਂ ਚਿੱਤਰ ਲੜੀ ਬਣਾਈ। ਇਸ ਵਿੱਚ ਉਸ ਨੇ ਬਾਬਾ ਨਾਨਕ, ਭਗਤ ਕਬੀਰ, ਮਹਾਤਮਾ ਬੁੱਧ ਅਤੇ ਭਾਰਤ ਦੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਘੋਲ ਦੇ ਨਾਇਕ ਭਗਤ ਸਿੰਘ, ਊਧਮ ਸਿੰਘ ਅਤੇ ਮਹਾਤਮਾ ਗਾਂਧੀ ਦੇ ਚਿੱਤਰ ਬਣਾਏ। ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਦੇ ਦੱਸਣ ਮੁਤਾਬਿਕ ਬਚਪਨ ਵਿੱਚ ਉਸ ਨੇ ਪੁਰਸ਼ ਪ੍ਰਧਾਨ ਸਮਾਜ ਵਿੱਚ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਅਜੀਤ ਕੌਰ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਧੀ (ਅਰਪਨਾ) ਅਤੇ ਖ਼ੁਦ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਦਿਆਂ ਦੇਖਿਆ। ਇਸ ਤੋਂ ਉਸ ਨੂੰ ਔਰਤ ਦੇ ਜੀਵਨ ਦਾ ਸੱਚ ਸਮਝ ਆਇਆ। ਇਸੇ ਲਈ ਉਸ ਨੇ ਦੱਬੀਆਂ-ਕੁਚਲੀਆਂ ਤੇ ਮਜ਼ਲੂਮ ਔਰਤਾਂ ਨੂੰ ਚਿਤਰਤ ਕੀਤਾ।
ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਨੇ 1975 ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਚਿੱਤਰਾਂ ਦੀ ਪਹਿਲੀ ਨੁਮਾਇਸ਼ ਦਿੱਲੀ ਵਿੱਚ ਲਾਈ। 1984 ਦੇ ਸਿੱਖ ਵਿਰੋਧੀ ਦੰਗਿਆਂ ਬਾਰੇ ਬਣਾਏ ਉਸ ਦੇ ਚਿੱਤਰ 1986 ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਦਰਸ਼ਿਤ ਕੀਤੇ ਗਏ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਲਈ ਉਸ ਨੂੰ ਟ੍ਰਾਈਨਲੇ ਐਵਾਰਡ ਨਾਲ ਸਨਮਾਨਿਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਉਸ ਦੇ ਚਿੱਤਰਾਂ ਵਿੱਚ ਹਰ ਪੱਖ ਤੋਂ ਭਾਰਤੀ ਸੱਭਿਆਚਾਰ ਝਲਕਦਾ ਹੈ। ਸੂਤ ਨਾਲ ਬੁਣਿਆ ਤਾਣਾ-ਬਾਣਾ ਭਾਵ ਜੁਲਾਹੇ ਦੇ ਕੈਨਵਸ ਵਾਂਗ। ਉਸ ਦੇ ਚਿੱਤਰਾਂ ਵਿੱਚ ਭਗਤਾਂ ਦਾ ਫਲਸਫ਼ਾ ਉਨਾ ਸਪੱਸ਼ਟ ਹੈ ਜਿੰਨਾ ਚਿੱਤਰਕਲਾ ਰਾਹੀਂ ਵੱਧ ਤੋਂ ਵੱਧ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਬਣਾਏ ਚਿੱਤਰ ਵੱਡੇ ਆਕਾਰ ਦੇ ਹੋਣ ਸਦਕਾ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਵੀ ਵੱਡਾ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।
ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਦੇ ਚਿੱਤਰ ਸ਼ੈਲੀ, ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਅਤੇ ਸਰੋਕਾਰਾਂ ਬਾਰੇ ਅਖ਼ਬਾਰਾਂ ਰਸਾਲਿਆਂ ਵਿੱਚ ਕਾਫ਼ੀ ਕੁਝ ਲਿਖਿਆ ਜਾ ਚੁੱਕਿਆ ਹੈ। ਆਧੁਨਿਕ ਭਾਰਤੀ ਚਿੱਤਰਕਲਾ ਵਿੱਚ ਉਸ ਦਾ ਆਪਣਾ ਅਹਿਮ ਸਥਾਨ ਹੈ। ਉਹ ਮੂਹਰਲੀ ਸਫ਼ ਦੇ ਚਿੱਤਰਕਾਰਾਂ ਵਿੱਚ ਸ਼ੁਮਾਰ ਹੈ। ਅੱਜ ਕਲਾ ਜਗਤ ਵਿੱਚ ਕਈ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਨਕਾਰਾਤਮਕ ਰੁਚੀਆਂ ਪ੍ਰਚਲਿੱਤ ਹੋ ਗਈਆਂ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ਖ਼ੁਦ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰ ਅਤੇ ਕਲਾ ਨੂੰ ਵਿਕਾਊ ਵਸਤ ਬਣਾਉਣ ਦੀ ਪ੍ਰਵਿਰਤੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਨਕਾਰਾਤਮਕ ਹਨ। ਅਜੋਕਾ ਕਲਾ ਬਾਜ਼ਾਰ ਕਿਤੇ ਨਾ ਕਿਤੇ ਕਲਾ ਵਿਰੋਧੀ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ। ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਵੀ ਇਸ ਗੱਲ ਨੂੰ ਸਵੀਕਾਰ ਕਰਦੀ ਹੈ, ਭਾਵੇਂ ਉਸ ਦੇ ਚਿੱਤਰ ਵਪਾਰਕ ਪੱਖ ਤੋਂ ਵੀ ਘੱਟ ਕਾਮਯਾਬ ਨਹੀਂ ਰਹੇ। ਉਹ ਮੰਡੀ ਦੇ ਸੁਭਾਅ ਤੋਂ ਵਾਕਫ਼ ਹੈ, ਪਰ ਉਸ ਨੇ ਕਦੇ ਵੀ ਔਰਤ ਨੂੰ ਵਸਤ ਸਮਝਣ ਵਾਲੇ ਖ਼ਰੀਦਦਾਰਾਂ ਲਈ ਕੈਨਵਸ ’ਤੇ ਔਰਤ ਨਹੀਂ ਚਿਤਰੀ। ਇੱਕ ਵਾਰ ਉਸ ਦੇ ਚਿੱਤਰਾਂ ਦੀ ਨਕਲ ਦਿੱਲੀ ਵਿੱਚ ਬਰਾਮਦ ਹੋਈ ਸੀ। ਇਸ ’ਤੇ ਉਸ ਨੇ ਭਰੇ ਮਨ ਨਾਲ ਕਿਹਾ ਸੀ, ‘‘ਕਲਾ ਦੀ ਦੁਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਨੈਤਿਕਤਾ ਨਾ ਬਚੀ ਰਹੇ ਤਾਂ ਫਿਰ ਕਲਾ ਦੀ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਵੀ ਬਦਲਣੀ ਪਵੇਗੀ।’’ ਫ਼ਿਲਹਾਲ, ਅਰਪਨਾ ਕੌਰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਮਨੁੱਖਤਾ ਅਤੇ ਮਨੁੱਖ ਦੇ ਸੰਘਰਸ਼ਾਂ ਵਿੱਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਰੱਖਦੀ ਹੈ।
ਸੰਪਰਕ: 90135-10023

अंगारे से कहीं ज्यादा विस्फोटक : मंटो - वीणा भाटिया



                                                     
मंटो

उर्दू अदब में सआदत हसन मंटो ने यथार्थवादी लेखन की जो शुरुआत की, वह दरअसल एक नई परंपरा की शुरुआत थी। जैसे अफ़साने उन्होंने लिखे, वैसे न तो उनके पहले लिखे गए थे और न ही बाद में लिखे गए। इस दृष्टि से वे एक सर्वथा मौलिक लेखक थे। आज भी उनकी कहानियां जितनी पढ़ी जाती हैं, उससे पता चलता है कि उनकी लोकप्रियता कितनी व्यापक है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, उनके साहित्य के पाठकों की संख्या भी बढ़ती ही जा रही है। सआदत हसन मंटो ने अपने अफ़सानों में जिस सामाजिक यथार्थ का चित्रण किया है, वैसा पहले कभी नहीं किया गया था। यथार्थ की जिन परतों को उन्होंने बारीकी से उघाड़ा, जिन वर्जित क्षेत्रों में जाने का दुस्साहस किया, उसके लिए उन्हें बड़ी क़ीमत भी चुकानी पड़ी।

मंटो ने जब अफ़साने लिखने शुरू किए, उस समय तक प्रगतिशील लेखन में मील का पत्थर कहा जाने वाला बहुचर्चित कहानी-संग्रह ‘अंगारे’ का प्रकाशन हो चुका था, लेकिन उनका लेखन ‘अंगारे’ से कहीं ज़्यादा विस्फोटक था। इसने ज़हरबुझी सच्चाइयों को इस क़दर पेश करना शुरू किया कि उस वक़्त बहुतों से वह हज़म नहीं हो पाया। उनकी कहानियों को अश्लील घोषित कर मुकदमे तक चलाये गए। साथ ही, उस दौर में इस्मत चुग़ताई जैसी लेखिका पर भी अश्लीलता के आरोप में मुकदमा चला, जिन्होंने स्त्री समलैंगिकता पर ‘लिहाफ़’ जैसी कहानी लिखी थी। दोहरे मानदंडों पर चलने वाले नैतिकता के ठेकेदारों को यह सब बहुत बुरा लगा। उन्होंने मंटो को फ़हशनिग़ार घोषित कर दिया। कहा जाने लगा कि वह सेक्स को भुनाने वाला दो कौड़ी का लेखक है। पर नैतिकता के तथाकथित ठेकेदारों को मंटो के अफ़सानों में सेक्स और अश्लीलता तो नज़र आई, पर समाज के हाशिये पर जीने वाले उन लोगों के विडंबनापूर्ण जीवन की त्रासदी नज़र नहीं आई जिनका प्रवेश तब तक उर्दू अदब में नहीं हो पाया था। मंटो ने साहित्य में उन लोगों के जीवन की कड़वी सच्चाइयों को सामने लाया जो समाज के सबसे निचले पायदान पर थे। इस क्रम में उनके साहित्य में वेश्यायें, उनके दलाल और सड़कों पर फटोहाल ज़िंदगी बिताने वाले आवारागर्द लोग मुख्य भूमिकाओं में दिखाई पड़ते हैं, तो इसमें ग़लत क्या था ?

मंटो ने देश के विभाजन पर जैसे अफ़साने लिखे, वैसे हिंदी-उर्दू में कम ही लिखे गए हैं। ‘ठंडा गोश्त’, ‘काली शलवार’, ‘बू’, ‘खोल दो’, ‘टोबाटेक सिंह’ जैसी कहानियां किसी भी भाषा के साहित्य में दुर्लभ कहानियों की श्रेणी आएंगी। ‘ठंडा गोश्त’, ‘काली शलवार’ जैसी कहानियों पर अश्लीलता के आरोप में मुकदमे चले, पर बाद में मुकदमों की सुनवाई कर रहे जज ने भी कहा कि इनमें अश्लीलता नहीं है, कहीं से भी मंटो की कोई कहानी कामोत्तेजना भड़काने वाली नहीं है।

विभाजन की त्रासदी पर हिंदी-उर्दू सहित अन्य भाषाओं के लेखकों ने विपुल लेखन किया है, पर मंटो अपनी कहानियों में जिस प्रकार विभाजन की पीड़ा और त्रासदी को उभारते हैं, वह जटिल और संश्लिष्ट यथार्थ के अनेक पहलुओं और परतों को सामने लाता है। मंटो एक ऐसे लेखक हैं जिनका जन जीवन से गहरा सरोकार है। वे उपेक्षित-उत्पीड़ित जनता के लेखक हैं। समाज में जो सबसे निचले स्तर पर है, उसके जीवन-यथार्थ को पूरे सरोकार के साथ वे साहित्य में लाते हैं। इसलिए अगर वेश्यायें उनके अफ़सानों में आती हैं तो इसमें आश्चर्य क्या ! मंटो किसी स्त्री के वेश्या बनने की विंडबनापूर्ण मजबूरी पर ही सवाल खड़ा करते हैं और इसके साथ ही समाज व्यवस्था को भी कठघरे में ले आते हैं। उनके लेखन की यह खास तासीर है।

मंटो पर विचार करते हुए एक खास बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे प्राकृतिक यथार्थवाद यानी नेचुरलिज़्म और फ्रायडवाद के प्रभाव में भी थे। यही वजह है कि कहीं-कहीं उन्होंने ज़्यादा ही सेक्स-चित्रण किया है, जिससे उनके आलोचकों को उन पर अश्लील लेखन का आरोप लगाने का मौका मिल जाता है। उदाहरण के लिए ‘धुआं’ कहानी को लें। इसमें किशोरावस्था में होने वाली सेक्स संबंधी सहज संवेदना और उससे संबंधित गतिविधियों का चित्रण किया गया है। यद्यपि कहानी का शिल्प विधान अनूठा है, फ़नकारी ज़ोरदार है, पर कहानी मनोविज्ञान पर ही केंद्रित होकर रह जाती है। पर ऐसी कहानियां बहुत ही कम, नहीं के बराबर हैं। मंटो की अधिकांश कहानियां यथार्थपरक, सोद्देश्य और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। उनके साहित्य में जो सच है, वह आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। आज जब समाज में साहित्य हाशिये पर चला जा रहा है, मंटो के साहित्य के पाठकों की संख्या लगातार बढ़ती चली जा रही है। यही तथ्य इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि मंटो कालजयी रचनाकार हैं।
mobile no - 9013510023

Thursday 7 April 2016

BOOK REVIEW: स्त्री मुक्ति की आकांक्षा का स्वर है ब्रेख्त की 'वेश्या एविलन रो'

http://www.patrika.com/news/bhopal/book-review-bertolt-brecht-poems-in-hindi-1262128/
@भारत कालरा. ‘वेश्या एविलन रो’ ब्रतोल्त ब्रेख़्त की एक प्रसिद्ध कविता है। दरअसल, यह एक उपाख्यान है। इस काव्यात्मक उपाख्यान में स्त्री की पीड़ा उसकी मुक्ति की आकांक्षा के स्वरों में सामने आती है। ‘वेश्या एविलन रो’ पुस्तक में ब्रतोल्त ब्रेख़्त की 20 कविताएँ हैं। ब्रेख़्त की कविताओं और उनके नाटकों का हिन्दी में काफी अनुवाद हुआ है। ब्रेख़्त एक ऐसे कवि हैं जिनसे हिन्दी लेखकों-कवियों की कई पीढ़ियाँ बेहद लगाव महसूस करती रही हैं और उनसे रचनात्मक ऊर्जा हासिल करती रही हैं। लेकिन आम पाठकों तक ब्रेख़्त की कविताएँ कम ही पहुँच पाई हैं। इस संग्रह के आने से यह उम्मीद बँधी है कि ब्रेख़्त की कविताएँ आम पाठकों तक पहुँच सकेंगी और युवा पीढ़ी इन कविताओं से परिचित हो सकेगी।


ब्रेख़्त की कविताओं, कहानियों और नाटकों का दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी के पाठकों के लिए विजेंद्र , अरुण माहेश्वरी, नीलाभ, सुरेश सलिल, मोहन थपलियाल, उज्ज्वल भट्टाचार्य जैसे साहित्यकारों ने ब्रेख्त की कविताओं और कहानियों के अनुवाद किए हैं। गुलज़ार ने भी ब्रेख्त के नाटक ‘ही हू सेज़ यस एंड ही हू सेज़ नो’ का बच्चों के लिए ‘ अगर और मगर‘ नाम से अनुवाद किया है। बहरहाल, वीणा भाटिया द्वारा किया गए इस अनुवाद का महत्त्व कुछ अलग है तो इसलिए, क्योंकि ब्रेख़्त की ये कविताएँ पहली बार हिन्दी पाठकों के सामने आई हैं। इन चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद 1983-84 के दौरान किया गया।


खास बात यह है कि अनुवाद के लिए कविताओं का चुनाव गोरख पाण्डेय ने किया था। इसके बारे में वीणा भाटिया ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है, “एक दिन गोरखजी आए तो मैं ब्रेख़्त की कविताएँ पढ़ रही थी। उन्होंने मुझसे ब्रेख़्त की कविता ’द ब्रेड एंड द चिल्ड्रन’ पढ़ने को कहा। मैंने कविता पढ़ी और बाद में उसका अनुवाद भी किया। कुछ दिनों बाद मिलने मैंने वह अनुवाद दिखाया। मेरे किए अनुवाद को देख कर गोरख पाण्डेय मुस्कुराते हुए बोले – वाह साथी! और फिर उन्होंने अनूदित कविता पर अपनी कलम चलाई। इसके साथ ही चल पड़ा अनुवाद का सिलसिला।” ये कविताएँ गोष्ठियों में पढ़ी जाती रहीं, सुनी-सुनाई जाती रहीं। पुस्तक गोरख पाण्डेय की स्मृति में प्रकाशित हुई, यह एक खास बात है। बहरहाल, अनुवाद के लिए ब्रेख़्त की जिन कविताओं का चयन गोरख पाण्डेय ने किया, उससे पता चलता है कि उन्होंने चौतरफा संकट से घिरे, अस्तित्व के लिए जूझते और संघर्ष करते लोगों की गाथा सामने लाने की कोशिश की थी। ब्रेख़्त का रचना-कर्म बहुत ही व्यापक और बहुआयामी है। उनमें से प्रासंगिक चयन गोरख पाण्डेय जैसे क्रान्तिकारी कवि ही कर सकते थे।


‘वेश्या एविलन रो’ का उपाख्यान ही पाठकों को बेचैन कर देगा। पूँजीवादी व्यवस्था में श्रमिक वर्ग के साथ स्त्री का उत्पीड़न एक ऐसा सच है, जिससे मुँह नहीं चुराया जा सकता। इस संग्रह में शामिल कई कविताओं में यह सच उभर कर सामने आया है। ब्रेख़्त की इन कविताओं से गुज़रना बहुत आसान नहीं है। यह एक यंत्रणादायी प्रक्रिया है। जहाँ शब्द नश्तर बन जाते हैं, जहाँ उदासी लगता है मानो धरती से आकाश तक छा गई है, जहाँ अंतहीन बेचैनियाँ हैं, तो ये कविताएँ पाठकों को एक भयानक संसार में लेकर जाती हैं। वहाँ सवाल हैं, सवाल हैं भूखे बच्चों के, ‘अबोध छालटी की पतित पावनी’ है। इस ‘पेचीदी दुनिया में’ ‘प्रिया के वास्ते गीत’ है तो ‘माँ के लिए शोकगीत’। ‘बुढ़िया का विदागीत’ है तो ‘बच्चों की रोटी’ का भी सवाल है। ‘शहर के बाहर जमा आठ हज़ार ग़रीबों का हुजूम’ है तो ‘भव्य तोरण के नीचे अज्ञात सैनिक का व्याख्यान’ भी हो रहा है। वहीं, ‘तीन सौ हलाक कुलियों का अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के नाम प्रतिवेदन’ है। ब्रेख़्त की कविताओं में ‘लोरियाँ’ हैं, ‘क्रान्ति के अनजान सिपाही की समाधि का पत्थर’ है तो ‘देशवासियों’ से ‘जनता की रोटी’ का सवाल भी है।


 ये ब्रेख़्त के विपुल रचना-संसार से एक अति संक्षिप्त चयन है, पर उनके जैसे क्रान्तिकारी कवि की रचनधर्मिता का पूरा आस्वाद कराने वाला। अनुवाद दरअसल पुनर्रचना है। कविता की पुनर्रचना असंभव-सी बात होती है। पर यह ज़रूरत है। वीणा भाटिया ने अनुवादक के धर्म का ईमानदारी से निर्वाह किया है, इसका पता कविताओं के पाठ से चलता है। उनमें जो सहज प्रवाह है, उससे कविता हमारे समय से और हमारी निजता से भी अनायास जुड़ जाती है। इस संग्रह की कुछ कविताएँ पहले पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुकी हैं।


संग्रह में गोरख पाण्डेय पर एक परिशिष्ट है, जिसमें उनके दो साथियों के लेख हैं। ‘स्वप्न और क्रान्ति के कवि गोरख पाण्डेय’ लेख में उनकी रचनाधर्मिता और सरोकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है, साथ ही प्रगतिशील-जनवादी साहित्य आन्दोलन से जुड़े कुछ ज्वलंत सवाल भी उठाए गए हैं। उनके दूसरे साथी प्रोफेसर ईश मिश्र ने ‘सामाजिक बदलाव के कवि गोरख’ में लिखा है कि गोरख पाण्डेय की कविताएँ आम जन को अनंत काल तक जागाती रहेंगी। कहा जा सकता है कि ब्रेख़्त की इन कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत कर के वीणा भाटिया ने अपनी ‘लिटटरी एक्टिविस्ट’ की भूमिका का निर्वाह किया है। इससे निस्संदेह नई पीढ़ी को मानसिक खुराक और ऊर्जा मिलेगी।

पुस्तक : वेश्या एविलन रो – ब्रतोल्त ब्रेख़्त की कविताएँ अनुवाद : वीणा भाटिया प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर मूल्य : 70 रुपए प्रथम संस्करण : 2016

Friday 1 April 2016

'जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ' @ भवानी प्रसाद मिश्र /वीणा भाटिया

भवानी प्रसाद मिश्र

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़


भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।

भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।

उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।

भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।

बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।

भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -

कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।

यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।


जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।

आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।

खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।

सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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