Monday 18 January 2016

मंटोनामा: एक बदनाम अफसानानिगार का सफर/वीणा भाटिया


http://mp.patrika.com/bhopal-news/tribute-to-popular-writer-saadat-hasan-manto-on-his-death-anniversary-22717.html
बदनाम लेखक मंटो पर उनके जीवन काल में ही कई किताबें लिखी गईं। मुहम्मद असदुल्लाह की किताब 'मंटो-मेरा दोस्त' और उपेन्द्रनाथ अश्क की 'मंटो-मेरा दुश्मन'। मशहूर आलोचक मुहम्मद हसन अस्करी ने लिखा है, "मंटो की दृष्टि में कोई भी मनुष्य मूल्यहीन नहीं था। वह हर मनुष्य से इस आशा के साथ मिलता था कि उसके अस्तित्व में अवश्य कोई-न-कोई अर्थ छिपा होगा जो एक-न-एक दिन प्रकट हो ही जाएगा। मैंने उसे ऐसे अजीब आदमियों के साथ हफ़्तों घूमते देखा है कि हैरत होती थी। मंटो उन्हें बर्दाश्त कैसे करता है! लेकिन मंटो बोर होना जानता ही न था। उसके लिए तो हर मनुष्य जीवन और मानव-प्रकृति का एक मूर्त रूप था, सो हर व्यक्ति दिलचस्प था। अच्छे और बुरे, बुद्धिमान और मूर्ख, सभ्य और असभ्य का प्रश्न मंटो के यहां ज़रा भी न था। उसमें तो इंसानों को कुबूल करने की क्षमता इतनी अजीब थी कि जैसा आदमी उसके साथ हो, वह वैसा ही बन जाता था।"


इस विवरण से समझा जा सकता है कि मंटो कैसे उन किरदारों को अपने अफ़सानों में केंद्रीय भूमिका में लाने में कामयाब हो पाए जो ज़िंदगी के सियाह हाशिये में गर्क थे। मंटो के किरदार तलछट में रहने वाले हैं, गटर में। बदबू, और सड़ांध मारते माहौल में रहने वाले लोग जिनका चरित्र बाहर से पूर्णत: घृणित दिखाई पड़ता है, पर जब हम उस किरदार के भीतर जाते हैं, तो महसूस करते हैं कि वे पतित नहीं हैं, बल्कि मानवीय बोध और संवेदना से लबरेज हैं।


कुल मिला कर कहा जा सकता है कि मंटो मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखते हैं, इस दृष्टि से वह महान मानवतावादी लेखक हैं। मंटो की रचनाओं के पढ़ने के बाद यह कहना कि वह प्रकृत यथार्थ का चित्रण करते हैं, सही नहीं होगा। वैसे, मंटो पर फ्रांसीसी प्रकृत यथार्थवादियों का प्रभाव है। पर मंटो में गहरी राजनीतिक अंतर्दृष्टि भी है। उनकी कई कहानियों में राष्ट्रीय आंदोलन के ऐसे जीवंत चित्रण हैं, जो आंदोलन की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। मंटो की कई कहानियां विभाजन की त्रासदी पर हैं और उनमें स्पष्ट पॉलिटिकल टोन है। इस दृष्टि से मंटो अपने समय से काफी आगे नज़र आते हैं।


मंटो के समग्र साहित्य का संकलन करने और उनकी कई गुमशुदा रचनाओं को ढूंढ निकालने वाले ने 'सआदत हसन मंटो, दस्तावेज़-1' में लिखा है, "इस सृष्टि में अंधेरे और उजाले की लड़ाई कितने युगों से जारी है। मंटो ने इस लड़ाई का दृश्य उन आदमियों के कुरुक्षेत्र में भी देखा जो अंधेरों के वासी थे। हमारे परंपराबद्ध और नैतिक मूल्यों के टिमटिमाते दीये, जिन्होंने अंधे क़ानूनों को जन्म दिया था, उस अंधेरी दुनिया तक उन दीयों की रोशनी पहुंचने में असमर्थ थी।


शायद इसीलिए मंटो उर्दू भाषा का सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार है, जिसे सबसे ज़्यादा ग़लत समझा गया। क़ानून अंधे थे, मगर वे आंखें जिनसे फ़िरंगी हुकूमत या ख़ुदा की बस्ती के तथाकथित बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नैतिक उत्तरदायित्व की झूठी और पाखंडपूर्ण धारणा का झंडा ऊंचा करने वाले कथा साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों के चेहरे सजे हुए थे, क्या वे आंखें भी अंधी थीं? और वे साहित्य समालोचक, नैतिकता के वे प्रचारक जिन्होंने साहित्य को अपने विद्वेषों के प्रकाशन का एक आसानी से उपलब्ध माध्यम समझ रखा था, और जो लकड़ी की तलवारों से मंटो का सर क़लम करने की धुन में मगन रहे, आखिर वे क्या देख रहे थे? यह सवाल हमारा नहीं, और न ही नवयुग के सांस्कृतिक मूल्यों का है।


यह सवाल मंटो की प्रताड़ित कहानियों, उन कहानियों के चरित्रों -'काली शलवार' की सुलताना और ख़ुदाबख्श और शंकर और मुख़्तार, 'धुआं' के मसऊद और कुलसूम, 'बू' के रणधीर और बेनाम घाटन लड़की, 'ठंडा गोश्त' के ईशर सिंह और कुलवंत कौर, 'खोल दो' की सकीना और सिराजुद्दीन और 'ऊपर, नीचे और दरम्यान' के मियां साहिब, बेगम साहिबा, मिस सिलढाना, डाक्टर जलाल, नौकर और नौकरानी - इन सबका है। ...और इस सवाल का रुख उन अदालतों या इंसाफ़ की कुर्सी पर बैठे हुए उन इंसानों की तरफ़ नहीं, जिन्होंने मंटो को मुजरिमों के कटघरे मे खड़ा किया, बल्कि उन सामाजिक विद्वेषों की तरफ़ है जो सच के अस्तित्व से इनकार करने के आदी थे।


यह सच मंटो की अपनी कल्पना की उपज न था। यह सच हमारे सामाजिक ढांचे की देन था। मंटो ने सिर्फ़ यह किया कि इस सच पर चढ़े हुए गिलाफ़ अपने क़लम की नोक से चाक कर दिए..." इस 'दस्तावेज़' का पहला खंड समर्पित किया गया 'मोपासां के नाम सौ बरस पहले जिसके बस जिस्म को मौत आई थी।'

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मोपासां भी दुनिया के बदनाम लेखकों में शुमार हैं। मंटो ने खुद और अपने अफ़सानों के बारे में लिखा है, "ज़माने के जिस दौर से इस वक्त हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाकिफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िए। अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह ज़माना नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयां हैं, वो इस अहद की बुराइयां हैं। मेरी तहरीर में कोई नुक्स नहीं। जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है-मैं हंगामापंसद नहीं। मैं लोगों के ख़्यालातो-जज़्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता।''


मंटो कहते हैं, ''मैं तहजीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं...लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और ज़्यादा नुमायां हो जाए। यह मेरा खास अंदाज़, मेरा खास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक्कीपसंदी और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है-लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमब़ख्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती..."

अब इससे ज़्यादा एक लेखक और साफ़-साफ़ कह भी क्या सकता है! सौ बरस से ज़्यादा बीत गए जब मंटो साहब इस दुनिया में तशरीफ़ लाए थे। मक़बूल इंसान थे, बहुत जल्द ही ख़ुदा के प्यारे हो गए। महज़ 42 की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। एक छोटी-सी ज़िंदगी...और इस दरम्यान अदीबों की महफ़िलों से लेकर अदालतों के कठघरे और पागलखाने तक में नमूदार हुए।

ज़िंदगी भुगतनी पड़ती है मानो जेल हो, पर मंटो ने ज़िंदगी को भोगा, देखा तहों के भीतर तक जाकर और दिखाने की पुरज़ोर कोशिश भी की...वो कड़वी सच्चाइयां जिन्हें देखकर भी हम देखना नहीं चाहते, मुंह फेर लेते हैं, पर ज़िंदगी की कड़वाहट तो खत्म नहीं होती। अपने-अपने जलवागाह हैं। मंटो कहते हैं ज़रा बाहर तो आइए जलवागाहों से, देखिए हक़ीक़त। जहां वो रोशनी डालते हैं, आंखों में चुभती है, तो क्या बंद कर लें आंखें या आंखों को फोड़ लें या फिर क्या करें?


यह दुनिया रोज़ बनती है। जैसे रोटी। दुनिया बनती रहेगी, बदलती रहेगी। सियाही बढ़ेगी या कम होगी, कह पाना मुश्किल है। पर ज़िंदगी के लिए, एक मुकम्मल ज़िंदगी के लिए जंग शायद खत्म न हो, क्योंकि समय का पहिया थमता और रुकता नहीं। मंटो का साहित्य समय से मुठभेड़ के दौरान आयद हुआ। 'समय से मुठभेड़' के क्रम में ही शायर अदम गोंडवी ने अपनी एक ग़ज़ल मरहूम मंटो को नज़र की है 'जिसके अफ़साने में ठंडे गोश्त की रूदाद है।

Thursday 14 January 2016

लफ्जों की दरगाह में: सुरजीत पातर/ वीणा भाटिया



लेख

पाश और सुरजीत पातर सन् 1970 के बाद की पंजाबी कविता के दो सर्वप्रमुख हस्ताक्षर हैं। दोनों ही कवियों ने पंजाबी कविता में अपनी मौलिक और विशिष्ट पहचान बनाई। पातर की कविताओं में पंजाब की मिट्टी की गंध है। वे एक व्यापक संवेदना के कवि हैं। कहा जाता है कि पाश और पातर के बिना भारतीय कविता के आधुनिक परिदृश्य की कल्पना नहीं की जा सकती। पाश और पातर एक ही दौर के कवि हैं, पर पाश की कविता में मार्क्सवादी प्रभाव और नक्सलवादी आन्दोलन से उभरी नई संवेदना साफ दिखाई पड़ती है।


पातर भी सामाजिक सरोकारों के कवि हैं, पर उनकी कविताओं में राजनीतिक स्वर उस रूप में सामने नहीं आता, जैसे उस दौर के अन्य कवियों में। एक साक्षात्कार में पातर ने कहा है, 'मार्क्सवाद और नक्सलवाद के राजनीतिक पक्ष के बारे में मेरी कविताओं में सीधे कोई नारा शायद न मिले, पर यह भी सच है कि इस विचार के मानवीय पक्ष, नवयुवकों की त्याग भावना, विचार के आधार पर मर-मिटने का जज्बा व गहरे और उष्मा मानवीय संबंधों ने मुझे भीतर तक प्रभावित किया है।'


पातर पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के छात्र थे, जो नक्सल गतिविधियों का केंद्र था और वहां पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन में उनके कई मित्र सक्रिय थे। ऐसे में, यह संभव नहीं था कि इस विचारधारा के प्रभाव से वे दूर रहते, पर उनकी कविताओं में पाश की तरह राजनीतिक स्वर बहुत खुला नहीं है। मार्क्सवाद के राजनीतिक दर्शन का प्रभाव उनके सौन्दर्यबोध में घुल-मिल गया है, जो उनकी कविता को एक गहरी मानवीय दृष्टि से ओतप्रोत करता है।


पातर की कविता में व्यथा तो है, पर उससे उबरने की ताकत भी वहां मिलती है। पातर की कविताओं, गीतों और ग़ज़लों में ज़िन्दगी का बहुत ही करीब से स्पर्श मिलता है, जो पाठक को एक ऐसे संसार में लेकर जाता है, जहां उसे अपने दुखों से उबरने के लिए धैर्य और संतोष मिलता है। महज एक आक्रोश की अभिव्यक्ति से अलग पातर की कविता पाठक को अंधेरों की दुनिया में एक दिलासा देती है, वह कविता के स्पर्श को महसूस कर सकता है। कविता उलझे-उदास मन को इस तरह थाम लेती है, जैसे मिट्टी पौधे की जड़ को। बिना किसी शोर के पातर की कविता व्यथित मन को सहारा देती है।


इस विशिष्टता के बारे में पातर स्वयं कहते हैं कि वे जिस माहौल में पले-बढ़े, उसकी फिजा में ही गुरुबानी रची-बसी थी। गुरुबानी की वह अमरित धारा पातर की कविताओं में है। पातर कहते हैं,'जब मैं दुखी होता हूं तो लफ़्ज़ों की दरगाह में चला जाता हूं। वहां मेरा दुख शक्ति और ज्ञान में बदल जाता है।'


पातर की कविताओं से गुजरते हुए यह अवश्य याद रखना चाहिए कि पातर के लिए रचना कर्म एक इबादत की तरह है, जो मनुष्यता की गहरी आवाज बन जाती है। पातर की कविताओं में भक्ति और सूफी धारा का सहज प्रभाव मिलता है। पातर खुद मानते हैं कि शुरू में उन पर बाबा बलवंत का खासा प्रभाव था। वे ग़ालिब और इक़बाल की शायरी से भी खुद को प्रेरित बताते हैं। पंजाबी साहित्यकारों में हरभजन, सोहन सिंह के साथ शिव कुमार बटालवी और मोहन सिंह का प्रभाव भी स्वीकार करते हैं। उस दौर के अन्य प्रमुख कवियों की तरह पातर खुद को किसी राजनीतिक मतवाद से बंधा नहीं पाते। वे कहते हैं - "मुझमें नेहरू भी बोलता है, माओ भी, कृष्ण भी बोलता है, कामू भी, वॉयस ऑफ अमेरिका भी बोलता है, बीबीसी भी, मुझमें बहुत कुछ बोलता है, नहीं बोलता है तो सिर्फ मैं ही नहीं बोलता।"


कवि की इस बात से समझा जा सकता है कि उनके लिए राजनीतिक विचारधारा वो मायने नहीं रखती, जितना कि मानवतावाद, जो इतिहास की शुरुआत के साथ ही मनुष्य का आदर्श बना हुआ है। लेकिन ऐसी बात नहीं है कि पातर अपने दौर की राजनीति से अछूते रहते हैं। इमरजेंसी और पंजाब में आतंकवाद के दौर से देश का शायद ही कोई लेखक अलग-थलग रह पाया हो। पातर ने इमरजेंसी और आतंकवाद को लोकतांत्रिक समाज पर एक धब्बा बताया था।


उन्होंने इमरजेंसी पर लिखा था - "कुछ कहा तो अंधेरा कैसे सहन करेगा, चुप रहा तो शमांदान क्या कहेंगे।जीत की मौत इस रात हो गई, तो मेरे यार इस तरह जीना सहन कैसे करेंगे।" आतंकवाद पर भी उन्होंने काफी लिखा और अपनी एक कविता पाश को समर्पित की। पातर ने लिखा है - "इस अदालत में बंदे वृक्ष हो गए, फैसले सुनते-सुनते सूख गए।" और "जद तक उह लाशां गिणदें आपा वोटां गिणिए।" पातर की कई कविताओं में सामाजिक विसंगतियों पर, शोषण के तंत्र पर और बाजारवाद पर तल्ख स्वर सामने आते हैं। पातर आर्थिक-सामाजिक समानता के पक्षधर हैं। लेकिन उनका मानना है कि कविता में राजनीतिक बयानबाजी सही नहीं, न ही कविता के माध्यम से उपदेश दिया जाना चाहिए। पातर का मानना है कि लेखकों-कवियों को अपनी परम्परा से जुड़ना चाहिए। वे कहते हैं कि जैसे आज के कवि को ब्रेख्त के बारे में पता है तो उसे बुल्लेशाह और वारिसशाह के बारे में भी पता होना चाहिए। पातर स्वयं को ब्रेख्त और लोर्का से गहरे प्रभावित बताते हैं, पर उनकी कविता में जो लोक तत्व है, वह अपनी मिट्टी और लोक परम्परा से गहराई से जुड़ाव को दिखाता है।


1944 में जन्मे कवि का पहला कविता संग्रह 1978 में 'हवा विच लिखे हर्फ' प्रकाशित हुआ था। 2009 में 'लफ़्ज़ों की दरगाह' कविता संग्रह के लिए पातर को सरस्वती सम्मान मिला। पातर पंजाबी के तीसरे लेखक और दूसरे कवि हैं, जिन्हें सरस्वती सम्मान से नवाजा गया। इससे पहले डॉ. दलीप कौर टिवाणा (उपन्यास) और डा. हरभजन सिंह (कविता) को यह सम्मान मिल चुका है। 'अंधेरे में सुलगती वर्णमाला' के लिए 1993 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।


पातर को पाठकों की चिंता भी रही है। उन्होंने कहा था, "कभी साहित्य के हलकों में बात चलती है कि लोग कविता से दूर जा रहे हैं। लोग कविता से दूर जा रहे हैं या कविता लोगों से दूर जा रही है? मुझे लगता है यदि कविता लोगों को अपने दिल में जगह देगी तो लोग भी जरूर कविता को अपने दिल में जगह देंगे।"


और अंत में पातर की एक कविता...

उम्र के सूने होंगे रास्ते
रिश्तों का मौसम सर्द होगा
कोई कविता की पंक्ति होगी
गर और न कोई साथ होगा


उम्र की रात आधी बीत गई
दिल का दरवाजा किसने खटखटाया
कौन होगा यार इस वक्त
यूं ही तुम्हारा ख्याल होगा


न सही इंकलाब न ही सही
सब गमों का इलाज न ही सही
मगर कोई हल जनाब कोई जवाब
या कि सदा ही सवाल होगा।


Wednesday 13 January 2016

पुस्तक मेला/वीणा भाटिया




साहित्यिक मित्रों से
मिलने का समय आया
पुस्तक मेला है आया
पुस्तक मेला लो फिर आया।

किताबों को छूने भर से
सुकून का मिलना
किसी महंगे इत्र से महंगी
पुस्तक की महक से महकना
दूर-दूर से पसंदीदा पुस्तकों को लाया
पुस्तक मेला है आया
पुस्तक मेला लो फिर आया।

आभारी हूं प्रकाशक की
नतमस्तक मैं लेखक की
जिन्होंने मेरा शब्दों के संग
रिश्ता है बनाया
पुस्तक मेला है आया
पुस्तक मेला लो फिर आया।

छपे हुए शब्दों में गर्माहट है होती
छपे हुए शब्दों की अहमियत कभी न घटती
कागज-शब्द का गहरा रिश्ता
अधूरे हैं एक-दूजे बिन
पढ़ते हैं हम रात और दिन।

सच है टीवी पहुंचा घर-घर
पुस्तकें भी गईं जिंदगी से जुड़
पुस्तकों ने संसार दिखाया
पुस्तक मेला है आया
पुस्तक मेला लो फिर आया।

वेश्या एविलन रो - ब्रतोल्त ब्रेख़्त/ अनुवाद - वीणा भाटिया












बर्तोल्त ब्रेख्त की कुछ कविताओं के अनुवाद की पुस्तक "वेश्या एविलन रो" (अनुवाद-वीणा भाटिया)। वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर। कीमत 70 रुपए मात्र।