Thursday 25 February 2016

वसीयत साहित्यकार की / वीणा भाटिया







शब्दों के भंडार
कलमें जो हैं चार
कुछ पेपर सफ़ेद
एक टेबल-कुर्सी
खूंटी पर टंगी हुई जर्सी

क्या लिखूँ वसीयत इसकी


किसे ज़रूरत है मार्क्स-लेनिन की
कौन समझेगा टैगोर-निराला-गोरख की लेखनी
कोई नहीं जानना चाहता
समाजवाद धीरे-धीरे आए,
काले-काले अच्छर चम्पा है चीन्हती
राग दरबारी का राग
मुर्दाघर की क्या थी व्यथा
कितने पाकिस्तान
आसमान के घर में खुली थी
क्यों खिड़कियाँ
वेश्या एविलन रो का जख़्म
कोई नहीं पहचानता


कौन लेगा
मेरे बाद
कौन समझेगा
शब्दों का भंडार
किसे ज़रूरत है
आज क़लम की


सबके हाथ में टंगा है माउस
माउस में बंद
बाज़ार-अख़बार
न अक्षर पढ़ना न लिखना
एक क्लिक में
काम होता हर बार


कुछ भी नहीं करना मेरे बाद
छोड़ देना यदा-कदा
ज़रूर आएगा कोई
मुझे खोजता
समझेगा शब्दों को
छुएगा करीने-सलीके से रखी
मेरी पुस्तकों को।