Thursday 10 March 2016

BOOK REVIEW: कविता में इतिहास की गत्यात्मकता/वीणा भाटिया






http://mp.patrika.com/bhopal-news/book-review-of-aasman-ke-ghar-ki-khuli-khidkiyan-36406.html


सरला माहेश्वरी की कविताएं पहले से पाठकों के सामने आती रही हैं, पर संग्रह के रूप में पहली बार उनकी कविताएं आई हैं। ये नये तेवर की कविताएं हैं। हिन्दी कविता में यह एक नया स्वर है, जो वास्तव में आम जन के जीवन-संघर्षों की ज़मीन से जुड़ा है। इन कविताओं को पढ़ना अनुभव और अनुभूति के एक ऐसे संसार से गुज़रना है, जहां जीवन का संघर्ष अपने उद्दाम वेग से निरन्तर जारी रहता है। सरला माहेश्वरी की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक है।

इसकी एक वजह ये है कि राजनीति से उनका सक्रिय जुड़ाव रहा है और साथ ही कविता उन्हें विरासत में मिली है। सरला जी कहती हैं, "कविता मेरी अभिव्यक्ति की प्रमुख विधा बनेगी, ऐसा कभी सोचा नहीं था। शब्दों की इस चारु-कला के प्रति हमेशा से गहरा आकर्षण तो था, पिता (हरीश भादानी) के गाते हुए शब्दों में रमती भी थी।" कविता के प्रति इसी आकर्षण ने उन्हें राजनीति से अलग अभिव्यक्ति के इस सूक्ष्म माध्यम से जोड़ा और कुछ ही समय में उन्होंने हिन्दी काव्य जगत में दमदार उपस्थिति दर्ज की।

हिन्दी कविता में राजनीतिक विषयों पर काफी लिखा गया है। एक दौर था जब हर कवि राजनीति पर लिखना अपना धर्म मानता था। लेकिन कुछ कवियों को छोड़ दें तो हिन्दी में राजनीतिक कविता के प्रति पाठकों का आकर्षण कम होता चला गया, क्योंकि ज्यादातर कविताएं राजनीतिक नारेबाजी बन कर रह गईं। सरला जी की कविताओं में कहीं भी नारेबाजी जैसी बात नहीं है, बल्कि उस यथार्थ का उद्घाटन है जो रोज़-ब-रोज़ की हमारी ज़िन्दगी में शामिल है, फिर भी हम उसे समझ नहीं पाते।

सरला जी की कविताओं में वह यथार्थ परत-दर-परत इस रूप में खुल कर सामने आता है कि जटिल अंतर्जाल में भी हम उसकी बारीक रेखाओं को आसानी से देख लेते हैं। 'कार्ल मार्क्स के 198वें जन्मदिवस पर', 'नारायण काँबले', 'मन की बात', 'स्टिंग', 'अक्सर ऐसा ही होता है', 'है कोई जवाब', 'कश्मीर', 'नेता : 'समाधिस्थ'', 'रेहाना जेब्बारी', 'हत्यारे' आदि ऐसी ही कविताएं हैं, जिनमें राजनीतिक अर्थबोध की कई परतें हैं। उनमें यथार्थ जटिल और संगुंफित है। 'हत्यारे' कविता पर विमल वर्मा ने बिल्कुल सही लिखा है - "सरला माहेश्वरी ने कविता के माध्यम से 'सफेदपोश हत्यारों' यानी पूंजीवादी व्यवहार जगत के विशिष्ट एजेंटों के वर्ग चरित्र को उद्घाटित किया है कि कैसे ये वस्तु के, यथार्थ के वास्तविक चरित्र को छिपाते हुए उसे विलोम रूप में आभासित करते हैं...काव्यात्मक संरचना में प्रतिरोध, संघर्ष, नवनिर्माण का आविर्भाव इतिहास की गत्यात्मकता से हमें जोड़ता है।" इतिहास की गत्यात्मकता से यह जुड़ाव सरला जी की हर कविता में दिखाई पड़ता है जो उनके रचना-कर्म को विशिष्ट बनाता है।

संग्रह में कई कविताएं व्यक्तियों पर लिखी गई हैं। 'लेसली उडविन', 'मुक्तिबोध', 'राजेन्द्र धोंदू भोंसले', 'प्रेमचंद', 'बी.टी.आर.', 'तुम अग्निबीज (डिरोजियो की याद में)', 'देवीराम', 'बुलिया काका' ऐसी ही कविताएं हैं। प्रसिद्ध लोगों के साथ साधारण लोग पर कविताएं लिख कर सरला जी ने जीवन की बड़ी विडम्बनाओं को सामने लाया है। सरला जी की कविताओं में व्यंग्य के तल्ख़ स्वर भी हैं। 'हठवाणी' ऐसी ही कविता है। इस कविता को पढ़ने के बाद बाबा नागार्जुन की याद आ जाना स्वाभाविक है। इस कविता का मारक व्यंग्य तिलमिला कर रख देने वाला है।
अडवाणी जी! अडवाणी जी!
कैसी यह हठवाणी जी
बाहर लटका, भीतर खटका
उठा धर्म को पटका जी।
ईटों को पूजा, नोटों को सटका
दिया राम को झटका जी।

ऐसी कविताएं आज के दौर में कम ही लिखी गई हैं। सिर्फ यही नहीं, संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं, जिनमें लोक तत्व प्रमुखता से उभर कर सामने आता है। सरला जी का जुड़ाव हमेशा जनसंघर्षों से रहा है। यही कारण है कि उनकी कविताओं में उस सच का बयान है, जो उन कवियों में नहीं मिलता जो ड्राइंगरूम में बैठकर कविता रचते नहीं, बल्कि गढ़ते हैं। हिन्दी कविता में जुमलेबाजी का एक लम्बा दौर रहा है और राजनीतिक कविता के नाम पर जुमलेबाजी चलती रही है। सरला जी की कविताएं सहज और सम्प्रेषणीय हैं तो सिर्फ इसलिए कि उनमें कहीं कोई राजनीतिक जुमला नहीं, बल्कि यथार्थ है।

सरला जी की कविताओं में नारी-मुक्ति के नये स्वर भी मिलते हैं। 'सेवया की औरतें', 'इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ', 'एक अकेली औरत का होना', 'तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा...', 'औरतें' ऐसी ही कविताएं हैं, जो स्त्री-जीवन की विडम्बना को सामने लाते हुए उनकी मुक्ति की आकांक्षा को नये स्वर देती हैं।

संकलन में कुल 90 कविताएं हैं। बार-बार पढ़ने के लिए ये कविताएं पाठक को मजबूर कर देंगी। ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। एक आंतरिक लयात्मकता हर कविता में मौजूद है, जो इसे लोक से जोड़ती है। इन कविताओं का प्रकाश में आना हिन्दी साहित्य में एक सुखद घटना है। संकलन की भूमिका में उद्भ्रांत ने सच लिखा है - "आसमान के घर की खुली खिड़कियाँ के माध्यम से कवयित्री ने हिन्दी काव्य जगत के द्वार पर प्रभावी दस्तक दी है। यह संग्रह इसलिए भी अलग से पहचाना जाएगा, क्योंकि इसमें कवयित्री ने समसामयिक सामाजिक-आर्थिक इतिहास को रच दिया है, जहां दलित-शोषित-प्रताड़ित के प्रति पक्षधरता है, स्त्री विमर्श है और इस सबको काव्य के सांचे में ढालने वाली लयात्मकता है।" निश्चय ही, यह संकलन काव्य-प्रेमियों के साथ-साथ आम पाठकों के बीच भी अपनी जगह बनाएगा।
 
 
पुस्तक - आसमान के घर की खुली खिड़कियाँ (कविता संकलन)
प्रकाशक - सू्र्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर
मूल्य - 300 रुपए
 

W'Day: इन्हें 'विडोज ऑफ वृन्दावन' से दुनिया ने पहचाना/वीणा भाटिया





 



अर्पणा कौर देश की जानी-मानी चित्रकार हैं। समकालीन भारतीय कला में इनका अपना ख़ास स्थान हैं। इनकी पेंटिग्स दुनिया की प्रमुख आर्ट गैलरियों में प्रदर्शित हो चुकी हैं। मॉडर्न आर्ट में वैसे तो कई भारतीय चित्रकारों ने अपनी पहचान बनाई, पर अर्पणा कौर का काम विशिष्ट है। उनकी पेंटिग्स अन्य महत्त्वपूर्ण मॉडर्निस्ट चित्रकारों की तरह सिर्फ़ अब्सट्रैक्ट ही नहीं है, बल्कि उनमें जो यथार्थ सामने आया है, वह दिखलाता है कि उनका उस मनुष्य के भाव-जगत से गहन तादात्म्य है, जो हाशिये पर है।

मनुष्य के मन के अंधेरे कोनों में झांकना और उसकी पीड़ा को कैनवस पर रेखाओं-रंगों से इस तरह उकेरना कि वह कविता का रूप ले ले, अर्पणा कौर की अपनी ख़ासियत है। उनकी कला तल्ख़ सच्चाइयों को सामने लाती हैं। वे अब्स्ट्रैक्शन में भी यथार्थ के रंग उकेर देती हैं। भारतीय महिलाओं की उपेक्षित दशा ने उनकी संवेदना को गहराई से प्रभावित किया है। यह उनके काम में अक्सर दिखाई पड़ता है। उन्होंने वृन्दावन की विधवाओं के हालात पर 'विडोज ऑफ वृन्दावन' सीरीज की पेंटिंग्स बनाई, जो दुनिया भर में चर्चित रही। इसी प्रकार, 1984 के सिख दंगों ने उनकी संवेदना को झकझोर कर रख दिया। इसके दर्द और दंगों की भयावहता-विडम्बना को उन्होंने ‘वर्ल्ड गोज ऑन’ नाम की चित्र-श्रृंखला में उकेरा। यह चित्र-श्रृंखला दुनिया भर में प्रशंसित हुई।


अर्पणा कौर का जन्म दिल्ली में 4 सितंबर, 1954 को सिख परिवार में हुआ। उनकी मां अजीत कौर पंजाबी की मशहूर साहित्यकार हैं। अर्पणा कौर ने दिल्ली विश्वविद्यालय से साहित्य में एमए किया। वे स्व-प्रशिक्षित कलाकार हैं। उन पर पहाड़ी मिनियेचर ट्रेडिशन और लोक परंपरा का काफी प्रभाव है। दार्शनिक स्तर पर वे नानक, कबीर, बुद्ध, योगी-योगिनी और सूफी परंपरा से भी प्रभावित रही हैं। समय, जीवन और मृत्यु उनकी कलाकृतियों में मुखर है।

जापान पर हुए परमाणु बम विस्फोट की 50वीं बरसी पर उन्होंने एक बड़ी कृति की रचना की, जिसे हिरोशिमा आधुनिक कला संग्रहालय में स्थायी रूप से रखा गया। दरअसल, कला के संस्कार उन्हें अपने घर के माहौल में ही मिले। जब वे बच्ची थीं, तभी अपनी मां को हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु बम विस्फोट में मृत लोगों के लिये प्रार्थना करते देखा करती थीं। इससे उनमें उस हॉलोकास्ट में मारे गए लोगों के प्रति संवेदना जागृत हुई और उन्होंने कला के उस रूप का सृजन किया, जो आज विश्व शांति आन्दोलन की धरोहर बन चुका है। अर्पणा कौर ने 1980 में ‘धरती’ नाम की चित्र-श्रृंखला बनाई। इसमें उन्होंने नानक, कबीर, बुद्ध और भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के नायकों - भगत सिंह, उधम सिंह और महात्मा गांधी को चित्रित किया।




अर्पणा कौर कहती हैं कि बचपन में जब उनके दिलो-दिमाग में रंगों और रेखाओं की भाषा विकसित हो रही थी, तो उन्होंने एक मां को एक बेटी के लिए और पुरुष-प्रधान मानसिकता वाले समाज में खुद के लिए लड़ते देखा था। अपनी मां के जीवन-संघर्षों और रचनात्मक संघर्षों से अर्पणा कौर को प्रेरणा तो मिली ही, साथ ही स्त्री के जीवन के सच को समझने की दृष्टि भी। तभी औरतें उनकी पेंटिंग्स का अहम किरदार बन गईं। दबी-कुचली, मज़लूम औरतों की जीवन स्थितियों और उनके संघर्षों को अर्पणा कौर ने अपनी पेंटिंग्स में स्वर दिया है।


अर्पणा कौर ने 1975 में अपनी पहली एकल प्रदर्शनी का दिल्ली में आयोजन किया था। तब से लेकर आज तक सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम बड़े शहरों में उनकी प्रदर्शनियां आयोजित हो चुकी हैं। 1981 में उन्होंने ‘लापता दर्शक’ नामक प्रदर्शनियों की श्रृंखला आयोजित की। ये प्रदर्शनियां बहुत सफल रहीं। 1984 में दिल्ली में हुये सिख विरोधी दंगों को उन्होंने प्रत्यक्ष देखा था। इस दंगे की भयावहता ने उनके मन को इस कदर झकझोरा कि उन्होंने ‘दुनिया चलती रहेगी’ श्रृंखला के तहत कई पेंटिंग्स बनाई। इसका प्रदर्शन 1986 में किया गया। इन दंगों के बारे में अर्पणा कौर कहती हैं कि इस तरह की हिंसा का सामना उन्होंने पहले कभी नहीं किया था। तब उन्होंने अपने साथ काम कर रहे एक बढ़ई की जान बचायी थी, जिसे दंगाई मारने पर उतारू थे। इस श्रृंखला पर उन्हें 1986 में ट्राइनाले अवॉर्ड मिला।

अर्पणा के चित्रों में रंगों की आभा, टेक्‍स्‍चर और पूरी बुनावट खादी या सूती सरीखी है। एक भारतीय पहचान जैसी। आत्मीय भी और उपयोगी रूप से विलग भी। सूत से कता-बुना ताना-बाना यानी जुलाहे का कैनवस। चित्रकला और साहित्‍य का अंतरंग रिश्‍ता है। अर्पणा कौर की पेंटिंग्‍स में कबीर तथा अन्‍य संतों और भक्त कवियों का कथ्‍य और दर्शन उतना ही स्‍पष्‍ट है, जैसा चित्रभाषा के माध्‍यम से व्‍यक्‍त किया जा सकता है। माटी के पुतले, सफेद वस्त्र और जीवन के सारे रंग जो पृष्‍ठभूमि में हैं, मानो कैनवस की चौहद्दी से बाहर निकलने को छटपटाते-से दिखते हैं।

arpana caur

यह आकस्मिक नहीं है कि अपने प्रदर्शित चित्रों के मध्‍य अर्पणा फर्श के ऊपर गुलाब अबीर के मूल रंगों के वृत्‍ताकारों में मिट्टी के बने खोखले चरणों को जैसे सभी अज्ञात दिशाओं की ओर अग्रसरित करते हुए रखती हैं। मिट्टी के रंगों के बीच मिट्टी के पांव आत्‍मपदी सरीखे लगते हैं और दीवारों के ऊपर लटके चित्रों को नयी अर्थ-भंगिमा से आप्‍लावित कर देते हैं। आत्‍म-दीक्षित कलाकार की संभावना और उलपब्धि के आड़े जो प्रचलित कला मुहावरे आते रहते हैं, अर्पणा उनसे बेखबर नहीं हैं, बल्कि उन्‍होंने एक सुनिश्चित शैलीगत पद्धति के अंतर्गत उन प्रभावों से मुक्ति पा ली है।

अलिपुक मायने हु प्राथकिय बन्‍नस सबद मीरस क्‍या हूं परवाह (उस्‍ताद के पास सीखने गया-अलिफ का मतलब तो समझाया। अलिफ का मतलब सब कुछ बन जायेगा। उसके आगे किसे परवाह! उस्‍ताद ने अलिफ सिखाया, बे नहीं सिखाया) सबद मीर, बाहब खार, हब्‍बा खातून, कबीर, नानक और गीता की वाणियों की अंतर्ध्‍वनियां अर्पणा के चित्रों की बुनावट का मूल ताना-बाना हैं। अर्पणा यदि अपने विषयों का सटीक और प्रासंगिक चुनाव न करतीं तो उनके चित्रों का ड्राइंगरूम पेंटिंग्‍स हो जाने का सबसे बड़ा खतरा था। उनके कैनवस के रंग जहां एक ओर आक्रामक किस्‍म के हैं, वहीं उनके भीतर एक व्‍यापक शक्ति है जो बाहर छलक-छलक पड़ती है। बड़े आकार का होने से उनके चित्रों का असर भी 'बड़ा' होता है। मुख्य 'बड़ी' आकृति अथवा आकृतियों के बीच कई 'छोटे-छोटे' प्रसंग या एपिसोड हैं और ये एक अकेले कैनवस को किसी धारावाहिक में बदल देते हैं।
अर्पणा कौर के चित्रों की शैलीगत विशेषताओं, विषय और सरोकार पर पत्र-पत्रिकाओं में काफी कुछ लिखा जा चुका है और अब आधुनिक भारतीय चित्रकला के परिदृश्‍य में उनकी उपस्थिति अपना अलग महत्त्व रखती है। अर्पणा का काम 'अलिफ' की श्रेणी में आता है, 'बे' (दूसरे, तीसरे चौथे) की श्रेणी में नहीं। आज कला की दुनिया में तरह-तरह की प्रवृत्तियां हावी हैं, जिनमें सबसे नकारात्मक है आत्मप्रचार और कला को बिकाऊ माल बना देने की प्रवृत्ति। कला का जो बाज़ार विकसित हुआ है, वह कहीं न कहीं कला-विरोधी हो गया है। अर्पणा कौर इस बात को स्वीकार करती हैं, यद्यपि व्यवसायिक दृष्टि से भी उनकी कला कम सफल नहीं रही।

अर्पणा कौर बाजार के सच को पहचानती हैं, पर कभी भी उन्होंने उन खरीददारों के लिए अपने कैनवस पर स्त्री को जगह नहीं दी, जिनके लिए औरत एक उपभोक्ता सामग्री से ज्यादा कुछ नहीं है। कुछ समय पहले उनकी कलाकृतियों की नकल दिल्ली में बरामद हुईं तो इससे दुखी अर्पणा ने इतना भर कहा था, "कला की दुनिया में नैतिकता न बची रहे तो फिर कला की परिभाषा बदलनी होगी।" बहरहाल, अर्पणा कौर की आस्था पूरी तरह से मनुष्य और उसके संघर्षों में है। वे खुद कहती भी हैं, "मुझे लगता है कि चित्रों में आम आदमी आए और आम आदमी को समर्पित चित्र आम आदमी तक भी पहुंचे।"

छोटू-मोटू (राजस्थान पत्रिका) में प्रकाशित वीणा भाटिया की कविताएँ