Thursday 7 April 2016

BOOK REVIEW: स्त्री मुक्ति की आकांक्षा का स्वर है ब्रेख्त की 'वेश्या एविलन रो'

http://www.patrika.com/news/bhopal/book-review-bertolt-brecht-poems-in-hindi-1262128/
@भारत कालरा. ‘वेश्या एविलन रो’ ब्रतोल्त ब्रेख़्त की एक प्रसिद्ध कविता है। दरअसल, यह एक उपाख्यान है। इस काव्यात्मक उपाख्यान में स्त्री की पीड़ा उसकी मुक्ति की आकांक्षा के स्वरों में सामने आती है। ‘वेश्या एविलन रो’ पुस्तक में ब्रतोल्त ब्रेख़्त की 20 कविताएँ हैं। ब्रेख़्त की कविताओं और उनके नाटकों का हिन्दी में काफी अनुवाद हुआ है। ब्रेख़्त एक ऐसे कवि हैं जिनसे हिन्दी लेखकों-कवियों की कई पीढ़ियाँ बेहद लगाव महसूस करती रही हैं और उनसे रचनात्मक ऊर्जा हासिल करती रही हैं। लेकिन आम पाठकों तक ब्रेख़्त की कविताएँ कम ही पहुँच पाई हैं। इस संग्रह के आने से यह उम्मीद बँधी है कि ब्रेख़्त की कविताएँ आम पाठकों तक पहुँच सकेंगी और युवा पीढ़ी इन कविताओं से परिचित हो सकेगी।


ब्रेख़्त की कविताओं, कहानियों और नाटकों का दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी के पाठकों के लिए विजेंद्र , अरुण माहेश्वरी, नीलाभ, सुरेश सलिल, मोहन थपलियाल, उज्ज्वल भट्टाचार्य जैसे साहित्यकारों ने ब्रेख्त की कविताओं और कहानियों के अनुवाद किए हैं। गुलज़ार ने भी ब्रेख्त के नाटक ‘ही हू सेज़ यस एंड ही हू सेज़ नो’ का बच्चों के लिए ‘ अगर और मगर‘ नाम से अनुवाद किया है। बहरहाल, वीणा भाटिया द्वारा किया गए इस अनुवाद का महत्त्व कुछ अलग है तो इसलिए, क्योंकि ब्रेख़्त की ये कविताएँ पहली बार हिन्दी पाठकों के सामने आई हैं। इन चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद 1983-84 के दौरान किया गया।


खास बात यह है कि अनुवाद के लिए कविताओं का चुनाव गोरख पाण्डेय ने किया था। इसके बारे में वीणा भाटिया ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है, “एक दिन गोरखजी आए तो मैं ब्रेख़्त की कविताएँ पढ़ रही थी। उन्होंने मुझसे ब्रेख़्त की कविता ’द ब्रेड एंड द चिल्ड्रन’ पढ़ने को कहा। मैंने कविता पढ़ी और बाद में उसका अनुवाद भी किया। कुछ दिनों बाद मिलने मैंने वह अनुवाद दिखाया। मेरे किए अनुवाद को देख कर गोरख पाण्डेय मुस्कुराते हुए बोले – वाह साथी! और फिर उन्होंने अनूदित कविता पर अपनी कलम चलाई। इसके साथ ही चल पड़ा अनुवाद का सिलसिला।” ये कविताएँ गोष्ठियों में पढ़ी जाती रहीं, सुनी-सुनाई जाती रहीं। पुस्तक गोरख पाण्डेय की स्मृति में प्रकाशित हुई, यह एक खास बात है। बहरहाल, अनुवाद के लिए ब्रेख़्त की जिन कविताओं का चयन गोरख पाण्डेय ने किया, उससे पता चलता है कि उन्होंने चौतरफा संकट से घिरे, अस्तित्व के लिए जूझते और संघर्ष करते लोगों की गाथा सामने लाने की कोशिश की थी। ब्रेख़्त का रचना-कर्म बहुत ही व्यापक और बहुआयामी है। उनमें से प्रासंगिक चयन गोरख पाण्डेय जैसे क्रान्तिकारी कवि ही कर सकते थे।


‘वेश्या एविलन रो’ का उपाख्यान ही पाठकों को बेचैन कर देगा। पूँजीवादी व्यवस्था में श्रमिक वर्ग के साथ स्त्री का उत्पीड़न एक ऐसा सच है, जिससे मुँह नहीं चुराया जा सकता। इस संग्रह में शामिल कई कविताओं में यह सच उभर कर सामने आया है। ब्रेख़्त की इन कविताओं से गुज़रना बहुत आसान नहीं है। यह एक यंत्रणादायी प्रक्रिया है। जहाँ शब्द नश्तर बन जाते हैं, जहाँ उदासी लगता है मानो धरती से आकाश तक छा गई है, जहाँ अंतहीन बेचैनियाँ हैं, तो ये कविताएँ पाठकों को एक भयानक संसार में लेकर जाती हैं। वहाँ सवाल हैं, सवाल हैं भूखे बच्चों के, ‘अबोध छालटी की पतित पावनी’ है। इस ‘पेचीदी दुनिया में’ ‘प्रिया के वास्ते गीत’ है तो ‘माँ के लिए शोकगीत’। ‘बुढ़िया का विदागीत’ है तो ‘बच्चों की रोटी’ का भी सवाल है। ‘शहर के बाहर जमा आठ हज़ार ग़रीबों का हुजूम’ है तो ‘भव्य तोरण के नीचे अज्ञात सैनिक का व्याख्यान’ भी हो रहा है। वहीं, ‘तीन सौ हलाक कुलियों का अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के नाम प्रतिवेदन’ है। ब्रेख़्त की कविताओं में ‘लोरियाँ’ हैं, ‘क्रान्ति के अनजान सिपाही की समाधि का पत्थर’ है तो ‘देशवासियों’ से ‘जनता की रोटी’ का सवाल भी है।


 ये ब्रेख़्त के विपुल रचना-संसार से एक अति संक्षिप्त चयन है, पर उनके जैसे क्रान्तिकारी कवि की रचनधर्मिता का पूरा आस्वाद कराने वाला। अनुवाद दरअसल पुनर्रचना है। कविता की पुनर्रचना असंभव-सी बात होती है। पर यह ज़रूरत है। वीणा भाटिया ने अनुवादक के धर्म का ईमानदारी से निर्वाह किया है, इसका पता कविताओं के पाठ से चलता है। उनमें जो सहज प्रवाह है, उससे कविता हमारे समय से और हमारी निजता से भी अनायास जुड़ जाती है। इस संग्रह की कुछ कविताएँ पहले पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुकी हैं।


संग्रह में गोरख पाण्डेय पर एक परिशिष्ट है, जिसमें उनके दो साथियों के लेख हैं। ‘स्वप्न और क्रान्ति के कवि गोरख पाण्डेय’ लेख में उनकी रचनाधर्मिता और सरोकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है, साथ ही प्रगतिशील-जनवादी साहित्य आन्दोलन से जुड़े कुछ ज्वलंत सवाल भी उठाए गए हैं। उनके दूसरे साथी प्रोफेसर ईश मिश्र ने ‘सामाजिक बदलाव के कवि गोरख’ में लिखा है कि गोरख पाण्डेय की कविताएँ आम जन को अनंत काल तक जागाती रहेंगी। कहा जा सकता है कि ब्रेख़्त की इन कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत कर के वीणा भाटिया ने अपनी ‘लिटटरी एक्टिविस्ट’ की भूमिका का निर्वाह किया है। इससे निस्संदेह नई पीढ़ी को मानसिक खुराक और ऊर्जा मिलेगी।

पुस्तक : वेश्या एविलन रो – ब्रतोल्त ब्रेख़्त की कविताएँ अनुवाद : वीणा भाटिया प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर मूल्य : 70 रुपए प्रथम संस्करण : 2016

Friday 1 April 2016

'जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ' @ भवानी प्रसाद मिश्र /वीणा भाटिया

भवानी प्रसाद मिश्र

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़


भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।

भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।

उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।

भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।

बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।

भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -

कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।

यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।


जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।

आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।

खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।

सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
- See more at: http://www.patrika.com/news/bhopal/bhavani-prasad-mishra-biography-and-poems-1256218/#sthash.2fnXVn9h.dpuf
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ । - गीतफरोश़
@वीणा भाटिया. भवानी प्रसाद मिश्र की ये काव्य पंक्तियां बेहद चर्चित रही हैं। भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा तार-सप्तक के प्रमुख कवियों में हैं। इन्होंने कविता-लेखन की शुरुआत लगभग सन् 1930 में की थी। वैसे, विद्यार्थी जीवन से ही इनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी कविताएं ‘कर्मवीर’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने लगीं। फिर ‘दूसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने इनकी कविताओं को शामिल किया। हिंदी में नई कविता आंदोलन की शुरुआत में तार-सप्तक के कवियों की प्रमुख भूमिका रही है।
भवानी प्रसाद मिश्र पूरी तरह गांधीवादी थे। बी. ए. पास करने के बाद ही उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर एक स्कूल खोला। स्कूल-संचालन के दौरान 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार हुए। भवानी प्रसाद मिश्र के जीवन पर गांधीवाद का प्रभाव हमेशा बना रहा। इसका असर उनकी रचनाशीलता पर दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में सादगी तो है, पर अर्थबोध व्यापक है। बहुत ही सरलता से अपनी कविताओं और गीतों में वे युगीन यथार्थ को सामने लाते हैं और उन विडम्बनाओं को प्रकट कर देते हैं, जो आधुनिक उपभोक्तावादी सभ्यता का स्वाभाविक परिणाम हैं।
उल्लेखनीय है कि गांधीवादी दर्शन इस उपभोक्तावादी संस्कृति की कठोर आलोचना करता है, जिसे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन से जुड़े वैसे आलोचक नहीं समझ पाए, जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा से अपनी प्रतिबद्धता को पार्टीगत संकीर्णता के दायरे में समेट लिया। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं हर दृष्टि से प्रगतिशील और यथार्थवादी कविताएं हैं। उनमें नया स्वर है और वह व्यापकता है जो महान कविता का स्वाभाविक गुण है। प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों ने प्रगतिशीलता को रचनाकार का स्वाभाविक गुण माना था। यह बात भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं में दिखाई पड़ती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीतफ़रोश' अपनी नई शैली, नई अंतर्वस्तु और नये प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं में जो सहजता और गहराई है, वह नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे जनकवियों में ही मिलती है। पाठकों-श्रोताओं से सहज संवाद का गुण उनकी कविताओं में है। 'गीतफ़रोश' के प्रकाशन के काफी वर्षों के बाद उनके 'चकित है दुख' और 'अंधेरी कविताएं' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। ‘गीतफ़रोश’ के प्रकाशन के साथ ही भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिष्ठा एक बड़े कवि के रूप में हो चुकी थी।
बाद में उनके जो काव्य-संग्रह आए, उनमें उनका यथार्थ-बोध और भी संघनित रूप में सामने आया। साथ ही, उनकी कविताओं में विदग्ध करने वाला व्यंग्य भी उभरा। यह शोषण पर आधारित उस व्यवस्था के प्रतिरोध में सामने आया, जो आजादी मिलने के बाद भी जस की तस बनी रही। सत्ता ने गांधीवाद को नकार दिया था। आजादी से मध्यवर्ग और व्यापक जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया था।
भवानी प्रसाद मिश्र की ज्यादातर कविताएं लयात्मक हैं। लयात्मकता उनकी कविता में सिर्फ शब्दों के आरोह-अवरोह के स्तर पर ही नहीं, भाव और अर्थ के स्तर पर भी है। यही कारण है कि पाठक उनकी कविता के सूक्ष्म भावों तथा सांकेतिक अर्थों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कवि’ (1930) की पंक्तियों को याद किया जा सकता है -
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
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और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
जाहिर है, ऐसी प्राण-संचारी कविता की रचना करने वाला कवि गहरी मानवीय संवेदना से लबरेज था। भवानी प्रसाद मिश्र प्रकृति के भी अनोखे कवि हैं। कहा जाए कि नई कविता के उस दौर में प्रकृति का ऐसा दूसरा कवि नहीं हुआ, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘गीतफ़रोश’ में शामिल ‘सतपुड़ा के जंगल’, ‘नर्मदा के चित्र’, ‘सन्नाटा’, ‘आषाढ़’, ‘मेघदूत’ जैसी कविताएं प्रकृति पर नए ढंग की कविताएं थीं। इनके अलावा, ‘घर की याद’, ‘बाहिर की होली’, ‘तेरा जन्म दिन’ जैसी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करती कविताएं भी थीं।
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गीतफ़रोश’ की कविताओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। उनकी कविताओं को अलग कर दिया जाए तो नई कविता का पूरा पाठ असंभव-सा हो जाएगा। ‘गीतफ़रोश’ में भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताएं ऐसी हैं, जो आज़ादी से पहले लिखी गईं। बाद में उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें बदलते यथार्थ की कड़ी आलोचना सामने आती है। इस दृष्टि से ‘तूस की आग’ (1985) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संवेदना एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से ‘तूस की आग’ भवानी प्रसाद मिश्र की प्रतिनिधि रचना है।
खास बात यह है कि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता किसी ‘वाद’ से बंधी नहीं है। उनकी कविता आम जन की कविता है। उनकी कविता मज़दूरों-किसानों और श्रमशील जनता की कविता है। पर उनमें नारेबाजी नहीं है। उनकी कविताएं व्यापक मानव-मूल्यों की कविताएं हैं, जिनमें सत्ता के विरोध का स्वर भी प्रबल है। सन् 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र ने रचनात्मकता के धरातल पर इसका जोरदार विरोध किया।
सन् 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए भवानी प्रसाद मिश्र को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। पद्मश्री के साथ 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का पुरस्कार भी उन्हें मिला। 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान मिला। भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च, 1913 को हुआ था। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं - गीतफ़रोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, इदम् नमम्, शरीर, कविता, फसलें और फूल, कालजयी आदि। इसके अलावा बाल साहित्य की 20 पुस्तकों की रचना की। संस्मरण और निबंधों के अलावा उन्होंने संपूर्ण गांधी वांङ्मय, कल्पना (साहित्यिक पत्रिका), विचार (साप्ताहिक) के साथ कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। भवानी प्रसाद मिश्र का निधन 20 फरवरी, 1985 को हुआ।
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