Friday 24 June 2016


गुलबानो : अजीत कौर / वीणा भाटिया

 vina bhatia


अजीत कौर पंजाबी की उन लेखिकाओं में हैं जिनका नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। अजीत कौर के लेखन के बारे में एक पँक्ति में कहा जा सकता है कि वह अपनी पहचान खोते जा रहे उन तबकों के जीवन-संघर्षों को सामने लाता है, जिनकी नियति में पराजय लिख दिया गया है। अपने लेखन में अजीत कौर ने इन्हीं वंचित तबकों के जीवन-यथार्थ को उकेरने की कोशिश की है, जिनमें वंचित महिलाओं का आना स्वाभाविक ही था। इनकी रचनाओं में स्त्री का संघर्ष और परिवार एवं समाज में उसकी हीन दशा के विविध पहलुओं का चित्रण हुआ है। यही नहीं, उनके लेखन में राजनीति के लगातार जनविरोधी होते जा रहे चरित्र का खुलासा होने के साथ उस पर प्रहार भी है।
अन्य पंजाबी लेखकों की तरह अजीत कौर पर भी भारत-विभाजन का गहरा प्रभाव पड़ा। विभाजन ने उनके दिल में ऐसा घाव पैदा कर दिया जो कभी भरा नहीं जा सकता। दुनिया की इस सबसे बड़ी त्रासदी की पीड़ा उनके लेखन में प्रमुखता से जाहिर हुई है और आज भी संभवत: उनके मन को सालती रहती है। यही कारण है कि उन्होंने दक्षिण एशियायी देशों के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की एकता को लेकर काम किया और आठ देशों के लेखकों का एक संगठन बनाया, जिसका समय-समय पर सम्मेलन होता है। सार्क देशों के लेखकों के इस संगठन ने आपसी विचार-विनिमय और मिलने-जुलने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है। इस संगठन के जरिए दक्षिण एशियायी देशों के लेखक-कलाकार आपस में मिलते हैं और विचार साझा करते हैं। यह एक बड़ी बात है जिसे अजीत कौर ने अपनी पहल से सम्भव किया है।
अजीत कौर को फेमिनिस्ट कहा जाता है। पर वे परम्परागत अर्थों में फेमिनिस्ट नहीं हैं। उनका कहना है कि वे फेमिनिस्ट तो हैं, पर बात-बात पर आन्दोलन करने वाली फेमिनिस्ट नहीं हैं। स्त्री के दुख-दर्द को सामने लाना और उसके जीवन की पड़ताल करना यदि फेमिनिज्म है तो वे फेमिनिस्ट हैं। पर भूलना नहीं होगा कि उनकी कहानियों-उपन्यासों में जो महिला क़िरदार आती हैं, वे निम्न मध्यवर्गीय और निम्न वर्ग की हैं। स्त्री की स्वतंत्रता उनके लिए न्यायपरक और शोषण से मुक्त समाज में ही सम्भव है। यह देखते हुए कहा जा सकता है कि उनका वैचारिक फ़लक काफ़ी विस्तृत है। खास बात है कि अजीत कौर सिर्फ़ लेखन में ही नारी स्वत्रंता का सवाल नहीं उठातीं, बल्कि इसके लिए वे सामाजिक स्तर पर भी सक्रिय रही हैं। इन्होंने दिल्ली में सार्क एकेडमी ऑफ आर्ट एंड कल्चर नाम की संस्था बनाई है। यहाँ गरीब लोगों, झुग्गियों के बच्चों और स्त्रियों को भी आने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस तरह अजीत कौर सिर्फ़ लेखन ही नहीं, व्यवहारिक स्तर पर भी आम लोगों, खासकर वंचित तबकों को रचनात्मक गतिविधियों से जोड़ती हैं। जाहिर है, ऐसा करने वाले लेखक बहुत ही कम हैं।
1934 में लाहौर में जन्मी अजीत कौर ने पढ़ाई के दौरान ही लेखन की शुरुआत कर दी थी। उनकी पहली कहानी इंटर कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित और पुरस्कृत हुई थी। अजीत कौर का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उनके लेखन में भी संघर्षों की गाथा सामने आई है। अजीत कौर के लेखन को व्यापक पहचान मिली। देश ही नहीं, विदेशों में भी उनकी कृतियाँ लोकप्रिय हुईं। उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं – कसाईबाड़ा, गुलबानो, बुतशिकन, मौत अली बाबेदी, न मारो, नवम्बर 84, काले कुएँ, दास्तान एक जंगली राज की। उपन्यासों में धुप्प वाला शहर और पोस्टमार्टम प्रमुख हैं। आत्मकथा इन्होंने दो खंडों में लिखी – खानाबदोश और कूड़ा-कबाड़ा। कच्चे रंगा दा शहर लंदन नाम से इन्होंने यात्रा वृतांत भी लिखा है। तकीये दा पीर नाम से संस्मरणों की भी एक पुस्तक सामने आई है। आत्मकथा खानाबदोश का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। कई कहानियों पर टेलीविजन सीरियल भी बने।
अजीत कौर ने होश संभालते ही देश का विभाजन देखा। भयानक दंगे और रक्तपात। बड़े पैमाने पर विस्थापन। इस त्रासदी का उनके मन पर गहरा असर पड़ा। इसके बाद 1984 में सिखों का जो कत्लेआम हुआ, उसने उनकी आत्मा को झकझोर दिया, विदीर्ण कर दिया। उन्होंने लिखा – “वह औरत जिसने इस देश पर इतने वर्षों से शासन किया, जिसने अमृतसर में हरमंदिर साहब पर अहमद शाह अब्दाली की तरह हमला बोला और इस देश को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति समझा।” 1984 में सिखों के कत्लेआम को वह चंगेज खान, अब्दाली और नादिर शाह के क्रूर कृत्यों के समान मानती रहीं। गुजरात में 2002 में हुए दंगों की भी उन्होंने खुल कर निंदा की और इसे मानवता पर एक बड़ा धब्बा कहा।
आज 82 साल की उम्र में भी वे सक्रिय हैं। पिछले दिनों उनकी किताब ‘लेफ्टओवर्स’ आई थी और अब आ रही है ‘यहीं कहीं होती थी जिन्दगी’। साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित अजीत कौर आज भी नये लेखकों को प्रोत्साहित करने के साथ हर तरह से उनकी मदद को तैयार रहती हैं। अजीत कौर की रचनाओं को जितनी बार पढ़ा जाए, उतनी बार लगता है जैसे पहली बार पढ़ रहे हैं। यही तो महान रचनाओं का गुण है।

Tuesday 7 June 2016

जानिए क्यों हिंदी की लोक परंपरा के प्रतिनिधि कवि थे भगवत रावत/वीणा भाटिया

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भगवत रावत समकालीन हिंदी कविता में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। आज जब प्रगतिशीलता और जनवाद के नाम पर अधिकांश कविताएं जहां सपाटबयानी, जुमलेबाज़ी और कोरी भावुकता की अभिव्यक्ति मात्र रह गई हैं, भगवत रावत की कविता अपने कथ्य और रूप विधान में पूर्णत: यथार्थवादी है। इनकी रचनाशीलता का क्षेत्र अत्यंत ही व्यापक है। प्रकृति एवं समाज से कवि पूरी तरह एकात्म है। भाव-बोध के अत्यंत ही उच्च स्तर पर सृजित होने वाली उनकी कविताएं पाठकों-श्रोताओं को जटिल एवं संशलिष्ट यथार्थ के बहुविध पहलुओं से सामान्यीकृत कराती हैं। संवेदना के स्तर पर भगवत रावत की कविताएं पाठकों को झकझोरने के साथ ही उसके मन में ‘बजती’ हैं। स्वयं कवि का कहना है कि जो कविताएं पाठकों के मन में नहीं ‘बजे’ उन्हें कविता मानने में संदेह होता है।


रावत की कविताओं में जहां चुप्पी है, वह भी कुछ न कुछ कहती है...काव्य पंक्तियों के बीच की खाली जगहें, संकेत-चिह्न...सब कुछ अभिव्यक्ति को गंभीर अर्थ प्रदान करने वाले हैं। स्पष्ट है कि कवि अद्भुत शिल्प- विधान की रचना करता है जो काव्य अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्रयोग के नए प्रतिदर्श बन जाते हैं। पर इससे यह समझना ग़लत होगा कि रावत शिल्प पर ज़ोर देते हुए पूर्णत: प्रयोगधर्मी कवि हैं, सच तो यह है कि इनकी कविता विचारों की सान पर धारदार होती चली गई है।


सूक्ष्म और जटिल विधा है कविता : वैसे, कवि का मानना है कि लिखित होना आज कविता की नियति बन चुकी है, पर मूलत: यह उच्चरित ध्वनि है और अलग-अलग मन:स्थितियों में सुनने अथवा पढ़े जाने पर अलग छवियां दृश्यमान करती हैं। रावत कहते हैं, “आज हिंदी कविता कुछ इतनी लिखित होती जा रही है कि धीरे-धीरे सामान्य मनुष्य की भाषा, उसकी प्रकृति, बोली-बानी और रूप-रंग से दूर होती जा रही है।” स्पष्ट है कि आज कविता के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें काफी दोहराव और विवरणात्मकता है, जबकि कविता एक सूक्ष्म और जटिल विधा है।


सामूहिक चेतना जगाती है : कविता रावत यह भी कहते हैं, “अपने समय की घटनाओं, दुर्घटनाओं, छल, प्रपंच, पाखंड, प्रेम, करुणा, षड्यंत्र, राजनीति आदि से विमुख होकर आज की कविता संभव नहीं है। यही कारण है कि आज की कविता मात्र संवेदना नहीं जगाती, वह आंखें भी खोलती है। वह करुणा और प्रेम में ही नहीं डुबाती, व्याकुल भी बनाती है। इसलिए वह समाज की सामूहिक चेतना की रचनात्मकता का प्रतीक है। मुक्तिबोध की शब्दावली में वह हमारी ‘चेतना का रक्तप्लावित स्वर’ भी है। जीवन की तमाम जटिल अनुभूतियों और स्थितियों में जाते हुए वह कई बार जटिल भी हो जाती है। कविता को आवश्यकतानुसार इतना जटिल होने की छूट मिलनी चाहिए।” बावजूद भगवत रावत की कविताएं मुक्तिबोध की कविताओं का भांति इतनी जटिल नहीं कि आम पाठकों के पल्ले ही न पड़ें। अधिकांश कविताएं सहज संप्रेषणीय हैं। पर जैसा कि पहले कहा गया है, अलग-अलग मन:स्थितियों में कविता में अलग-अलग अर्थ छवियां संप्रेषित होती हैं। भगवत रावत इस दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कवि हैं कि इनकी कविता पूरी तरह लोक से जुड़ी हुई है। लोकचेतना से इनकी कविता किस हद तक संपृक्त है, इसे ‘हे बाबा तुलसीदास’,‘बोल मसीहा’, ‘बुन्देली में चार कविताएं’, ‘ईसुरी और रजऊ के नाम’, ‘बैलगाड़ी’,‘अथ रूपकुमार कथा’ और ‘सुनो हिरामन’ जैसी लंबी कविताओं में देखा जा सकता है। ‘वह मां ही थी’, ‘सोच रही है गंगाबाई’, ‘कचरा बीनती लड़कियां’ और‘भरोसा’ जैसी न जाने कितनी कविताएं हैं जो लोक से कवि की प्रतिबद्धता को दिखाती हैं।

हिंदी की लोक परंपरा का कवि  : वस्तुत: भगवत रावत हिंदी कविता की समृद्ध लोक परंपरा के श्रेष्ठ कवियों में एक हैं। काव्य की इस लोक परंपरा की जड़ें उत्तर मध्य काल के भक्ति आंदोलन में हैं। समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में कविता की लोकधारा उस जन से जुड़ जाती है जो कवि त्रिलोचन के शब्दों में ‘भूखा है दूखा है कला नहीं जानता...।’ इस सांस्कृतिक परिवेश में कवि ‘मानुष गंध’ की पहचान करने की कोशिश करता है। वह मानव संस्कृति को ख़तरे में डालने वालों से लोगों को सावधान करना ज़रूरी समझता है जो ‘आयुधों के यान पर सवार’ हो कर आ रहे हैं। वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक परिवेश में श्रमजीवियों के जैविकअस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरों से क्षुब्ध हो कर वह यह कहने को मजबूर हो उठता है कि ‘क्या इसी के लिए धारण की थी देह ?’ वहीं, अनेकानेक कविताओं में वह वर्तमान सभ्यता और संस्कृति के अंतर्विरोधों को बड़े ही सूक्ष्म स्तर पर उजागर करते हुए आज के उपभोक्ता समाज में जीवन की अर्थवत्ता पर सवाल खड़े करता है।

रावत की कविताओं में रूप-रंग- रस-गंध- नाद का वह निनाद है जो पाठकों को संतृप्त कर देता है। शमशेर की तरह रावत ध्वनि संकेतों से चित्र-रचना करते हैं। इस मायने में वे एक उच्च कोटि के कलाकार हैं। यह एक खास बात है कि रावत कविता को मूलत: एक श्रव्य माध्यम मानते हैं, ऐसा इसलिए कि वह लोक परंपरा के कवि हैं, उस सामाजिक परिवेश के कवि हैं, जिनमें त्रिलोचन की चंपा ‘काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती।’ कम से कम शब्दों में यही कहा जा सकता है रावत हिंदी की लोक परंपरा के, जिसकी धारा भक्ति काल से चली आ रही है, प्रतिनिधि कवि हैं।


‘साक्षात्कार’ का किया संपादन : भगवत रावत का जीवन प्रारंभ से ही संघर्षशील रहा। झांसी से एमए, बीएड करने के बाद इन्होंने प्राइमरी स्कूल में अध्यापन कार्य किया। फिर 1983 से 1994 तक रीडर पद पर कार्य किया। दो वर्ष तक मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक रहे। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिंदी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष रहे। वे साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् के निदेशक भी रहे और मासिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का संपादन किया।
कई भाषाओं में अनुदित हुई रचनाएंइनके प्रमुख कविता संग्रह हैं – समुद्र के बारे में (1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह (1988), सुनो हिरामन (1992), सच पूछो तो(1996), हमने उनके घर देखे (2001), ऐसी कैसी नींद (2004)। 1993 में इनकी ‘कविता का दूसरा पाठ’ शीर्षक से आलोचना की पुस्तक प्रकाशित हुई। इनकी रचनाएं मराठी, बांग्ला, उड़िया, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी एवं जर्मन भाषा में अनूदित हुईं।


इन्हें 1979 में दुष्यंत कुमार पुरस्कार, 1989 में वागीश्वरी पुरस्कार और 1997-98 का शिखर सम्मान प्राप्त हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में भी इनका उल्लेखनीय योगदान रहा। गुर्दे की बीमारी से पीड़ित भगवत रावत का निधन 26 मई, 2012 को भोपाल स्थित उनके घर पर हुआ। यह ठीक है कि भगवत रावत अब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी कविताएं हमें यह अहसास कराती रहेंगी कि वे हमारे आसपास ही मौजूद हैं।

जड़ों से कटती पत्रकारिता की भाषा - वीणा भाटिया

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एक समय था जब लोग कहते थे कि भाषा सीखनी हो तो अखबार पढ़ो। लेकिन आज एकाध अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश अखबारों में जो भाषा इस्तेमाल में लाई जा रही है, वह पूरी तरह जड़ों से कटी हुई है। अखबारों से भाषा सीखना आज संभव नहीं रह गया है। अखबारों की भाषा लगातार विकृत होती चली जा रही है। ऐसा लगता है, अखबारों के प्रबन्धन पर बाजारवाद इस कदर हावी हो गया है कि वे भाषा के साथ खिलवाड़ पर उतर आए हैं। भूलना नहीं होगा कि हिंदी के विकास में पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही है। आधुनिक हिंदी के निर्माता कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस पत्रकारिता की शुरुआत की, वह जन आकांक्षाओं और स्वातंत्र्य चेतना से जुड़ी हुई थी। यद्यपि उस समय हिंदी का वर्तमान स्वरूप बन नहीं पाया था, पर उसकी नींव भारतेंदु एवं उनके मंडल में शामिल लेखकों-पत्रकारों ने डाल दी थी। उस नींव पर हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसी भाषा विकसित हुई जिसमें वह ताकत थी कि वह गंभीर से गंभीर मुद्दों को सहजता के साथ अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम थी। हिंदी का सहज जातीय रूप अखबारों के माध्यम से सामने आया और आम लोगों तक इसकी पहुंच बनी। यह भाषा सर्वग्राह्य भी हुई।

हिंदी पत्रकारिता की एक खासियत रही है कि इस क्षेत्र में हिंदी के बड़े लेखक, कवि और विचारक आए। हिंदी के बड़े लेखकों ने संपादक के रूप में अखबारों की भाषा का मानकीकरण किया और उसे सरल-सहज रूप देते हुए कभी उसकी जड़ों से कटने नहीं दिया। लेकिन गत सदी के पिछले दशक से अखबारों की भाषा का चरित्र बदलने लगा और वह अपनी जड़ों से कटने लगी। यह नब्बे का दशक था, जब अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की प्रवृत्तियों का जोर बढ़ने लगा था। इस दौर में बाजारवाद का दबाव बढ़ने लगा और संभवत: इसी से अखबारों की भाषा में विकृतियां सामने आने लगीं। यद्यपि इस दौरान हिंदी में संपादकों की वह पीढ़ी मौजूद थी, जो बाजारवाद के दबाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। गौरतलब है कि विद्वान संपादकों की इस पीढ़ी ने भाषा के विकास, उसके मानकीकरण और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने के लिए उसे सक्षम बनाने में महती भूमिका निभाई थी। लेकिन जब बाजारवादी ताकतों की दखलन्दाजी बढ़ती गई और पूंजी का सत्ता विचार और चिंतन पर हावी हो गई तो लंबे संघर्ष के बाद स्तरीय जनभाषा का जो ढांचा विकसित हुआ था, उसे चरमरा कर ढहते भी देर नहीं लगी।

नब्बे के दशक से ही अखबारों की भाषा के हिंग्लिशीकरण का दौर शुरू हुआ और भाषा के संस्कार बिगड़ने लगे। अंग्रेजी और हिंदी शब्दों के मेल से एक अजीब तरह की विकृत खिचड़ी भाषा सामने आने लगी। इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि अखबारों में आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करना जरूरी है और आम लोगों की बोलचाल में अंग्रेजी शामिल हो गई है। लेकिन इस तर्क का कोई ठोस आधार नहीं था। अखबारों में पहले भी बोलचाल की हिंदी का ही प्रयोग हो रहा था, न कि तत्सम शब्दावली वाली क्लिष्ट हिंदी या सरकारी अनुवाद वाली हिंदी का। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो सहजता के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने में शामिल करती रही है और इस तरह से समृद्ध होती रही है। इसमें दो राय नहीं है कि गत दशकों में हिंदी पर अंग्रेजी का काफी प्रभाव पड़ा है और आम जनजीवन में घुल-मिल चुके अंग्रेजी के शब्द हिंदी लेखन में सहज तौर पर शामिल हो गए हैं। लेकिन हिंदी का हिंग्लिशीकरण अलग ही चीज है। इसमें जानबूझकर अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में ठूंसा जाने लगा है, जिससे उसका रूप अजीब ही होने लगा है और उसके सहज प्रवाह में बाधा पहुंची है। यह एक कृत्रिम भाषा है जिसे कतिपय अखबार जोर-शोर से आगे बढ़ा रहे हैं। इस तरह से वे भाषा का विजातीयकरण करने के साथ नई पीढ़ी के भाषा-संस्कार को विकृत करने की कोशिश भी कर रहे हैं। कुछ अखबार तो खबरों के शीर्षक के साथ अजीब प्रयोग करते हुए अंग्रेजी के शब्द रोमन में ही दे देते हैं। इस मामले में हाल के दिनों में आईं वेबसाइटें आगे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी के स्वरूप को बिगाड़ने का काम अखबारों से ज्यादा वेबसाइटों ने किया है। वाकई हिंदी के साथ अंग्रेजी का यह मेल अजीबोगरीब लगता है। लेकिन एक फैशन के रूप में इसे बढ़ावा दिया जा रहा है।

दूसरी तरफ, समय के साथ अखबारों की भाषा में अशुद्धियां भी बढ़ी हैं। लेखन में व्याकरण के नियमों की अवहेलना या तो जानबूझकर की जाती है या जानकारी के अभाव में। वाक्य-निर्माण में अशुद्धियां साफ दिखाई पड़ती हैं। विराम चिह्नों के प्रयोग को गैरजरूरी समझा जाने लगा है। खास बात यह भी है कि प्राय: सभी अखबारों ने अपनी अलग स्टाइल-शीट बना रखी है। एक ही शब्द अलग-अलग अखबार अलग-अलग तरीके से लिखते हैं और उसे औचित्यपूर्ण भी ठहराते हैं। इससे पाठकों में भ्रम की स्थिति पैदा होती है। भूलना नहीं होगा कि हमारी परंपरा में छपे हुए शब्द को प्रमाण माना जाता है। ऐसे में, नई पीढ़ी गलत को ही सही समझ ले तो उसका क्या दोष! भूलना नहीं होगा कि हिंदी पत्रकारिता का एक दौर वह भी रहा है जब संपादक अखबार में छपे हर शब्द की शुद्धता के प्रति स्वयं आश्वस्त होते थे और किसी प्रकार की गलती को गंभीरता से लिया जाता था। गलती के लिए भूल-सुधार प्रकाशित करने की परंपरा थी, पर अब वह संस्कृति लुप्त ही हो चुकी है। यह हिंदी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

हिंदी पत्रकारिता के साथ एक विडंबना यह भी है कि सरकारी कामकाज की तरह यहां भी हिंदी अनुवाद की ही भाषा बनी हुई है। जो सामग्री सहजता से हिंदी में उपलब्ध है, उसे भी अंग्रेजी से अनुवाद कर प्रकाशित किया जाता है। यह हिंदी भाषा और समाज के पिछड़ेपन की ही निशानी कहा जा सकता है। लगता है, अपने औपनिवेशिक अतीत से अभी तक हम उबर नहीं पाए हैं। भूलना नहीं होगा, प्रेमचंद ने अंग्रेजी को ‘गुलामी का तौक’ कहा था। यह एक बड़ा सवाल है कि अंग्रेजी की गुलामी या कहें उसके प्रति विशेष पर गैरजरूरी आकर्षण से हम कब उबर पाएंगे।

वीणा भाटिया की कविताएँ



http://www.rachanakar.org/2016/06/blog-post_27.html
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष



1.    पॉलिथीन
प्लास्टिक की थैलियां
रंग-बिरंगी आकर्षक थैलियां
सामान लाने-ले जाने में 
काम दिन भर आती थैलियां।

हमारे इस पर्यावरण को
नुकसान पहुंचाती थैलियां
थैली को जब गाएं खाएं
फिर तो वो मर ही जाएं।

अपने आप नहीं नष्ट होती
नाले-नालियां बंद कर देती
आओ एक अभियान चलाएं
पॉलिथीन को हम सब भगाएं।

हम बच्चे जिद पर अड़े हैं
पॉलिथीन से भिड़े हैं
कल हमारा हो सुंदर
यही प्रण लिए खड़े हैं।

2.    मित्रता का बिगुल बजाएं
दिन भर आंगन में आते
आवाजें मोहक निकालते
हम इंसानों से होते
हमसी बातें करते पक्षी।

अगर पक्षियों को देखना चाहें
अल सुबह उठ ही जाएं
सुबह से ही शुरू हो जाती
इनकी चीं-चीं काएं-काएं।

राष्ट्रीय पक्षी हो मोर अगर
तो दर्जी भी गौरैया है
बाज है अपना शक्तिशाली
प्यारी लगती सोनचिरैया है।

कठफोड़वा लकड़ी काट कऱ
लकड़हारा कहलाता है
बया हमसा ही बुनती
गिद्ध सफाई कर्मचारी है।

दाना-पानी रख कर 
वर्ड हाउस भी बनाएंगे
फल के पेड़ लगा कर
मित्रता का बिगुल बजाएंगे।

3.    नीम का पेड़
सीढ़ि‍याँ चढ़ कर आया मैं उपर 
खुली थी खिड़कियाँ हवा 
आ रही थी फर-फर 
झांका जब बाहर 
दिखा एक लहराता पेड़।

सुन्दर था 
स्वस्थ था 
चिड़ि‍यों का घर था। 
चहकती थी चिड़ि‍या 
फुदकती थी चिड़ि‍या 
गाती थी चिड़ि‍या 
खुश था नीम का पेड़।

आया पतझड़ 
उड़ गए पत्ते  
रह गई डालियाँ 
नहीं रही छाया 
नहीं रही शीतलता 
तब भी...
चहकती थी चि‍ड़ि‍या 
गाती थी चि‍ड़ि‍या 
और...
खुश था नीम का पेड़।