Tuesday 7 June 2016

जड़ों से कटती पत्रकारिता की भाषा - वीणा भाटिया

 vina bhatia


एक समय था जब लोग कहते थे कि भाषा सीखनी हो तो अखबार पढ़ो। लेकिन आज एकाध अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश अखबारों में जो भाषा इस्तेमाल में लाई जा रही है, वह पूरी तरह जड़ों से कटी हुई है। अखबारों से भाषा सीखना आज संभव नहीं रह गया है। अखबारों की भाषा लगातार विकृत होती चली जा रही है। ऐसा लगता है, अखबारों के प्रबन्धन पर बाजारवाद इस कदर हावी हो गया है कि वे भाषा के साथ खिलवाड़ पर उतर आए हैं। भूलना नहीं होगा कि हिंदी के विकास में पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही है। आधुनिक हिंदी के निर्माता कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस पत्रकारिता की शुरुआत की, वह जन आकांक्षाओं और स्वातंत्र्य चेतना से जुड़ी हुई थी। यद्यपि उस समय हिंदी का वर्तमान स्वरूप बन नहीं पाया था, पर उसकी नींव भारतेंदु एवं उनके मंडल में शामिल लेखकों-पत्रकारों ने डाल दी थी। उस नींव पर हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसी भाषा विकसित हुई जिसमें वह ताकत थी कि वह गंभीर से गंभीर मुद्दों को सहजता के साथ अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम थी। हिंदी का सहज जातीय रूप अखबारों के माध्यम से सामने आया और आम लोगों तक इसकी पहुंच बनी। यह भाषा सर्वग्राह्य भी हुई।

हिंदी पत्रकारिता की एक खासियत रही है कि इस क्षेत्र में हिंदी के बड़े लेखक, कवि और विचारक आए। हिंदी के बड़े लेखकों ने संपादक के रूप में अखबारों की भाषा का मानकीकरण किया और उसे सरल-सहज रूप देते हुए कभी उसकी जड़ों से कटने नहीं दिया। लेकिन गत सदी के पिछले दशक से अखबारों की भाषा का चरित्र बदलने लगा और वह अपनी जड़ों से कटने लगी। यह नब्बे का दशक था, जब अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की प्रवृत्तियों का जोर बढ़ने लगा था। इस दौर में बाजारवाद का दबाव बढ़ने लगा और संभवत: इसी से अखबारों की भाषा में विकृतियां सामने आने लगीं। यद्यपि इस दौरान हिंदी में संपादकों की वह पीढ़ी मौजूद थी, जो बाजारवाद के दबाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। गौरतलब है कि विद्वान संपादकों की इस पीढ़ी ने भाषा के विकास, उसके मानकीकरण और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने के लिए उसे सक्षम बनाने में महती भूमिका निभाई थी। लेकिन जब बाजारवादी ताकतों की दखलन्दाजी बढ़ती गई और पूंजी का सत्ता विचार और चिंतन पर हावी हो गई तो लंबे संघर्ष के बाद स्तरीय जनभाषा का जो ढांचा विकसित हुआ था, उसे चरमरा कर ढहते भी देर नहीं लगी।

नब्बे के दशक से ही अखबारों की भाषा के हिंग्लिशीकरण का दौर शुरू हुआ और भाषा के संस्कार बिगड़ने लगे। अंग्रेजी और हिंदी शब्दों के मेल से एक अजीब तरह की विकृत खिचड़ी भाषा सामने आने लगी। इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि अखबारों में आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करना जरूरी है और आम लोगों की बोलचाल में अंग्रेजी शामिल हो गई है। लेकिन इस तर्क का कोई ठोस आधार नहीं था। अखबारों में पहले भी बोलचाल की हिंदी का ही प्रयोग हो रहा था, न कि तत्सम शब्दावली वाली क्लिष्ट हिंदी या सरकारी अनुवाद वाली हिंदी का। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो सहजता के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने में शामिल करती रही है और इस तरह से समृद्ध होती रही है। इसमें दो राय नहीं है कि गत दशकों में हिंदी पर अंग्रेजी का काफी प्रभाव पड़ा है और आम जनजीवन में घुल-मिल चुके अंग्रेजी के शब्द हिंदी लेखन में सहज तौर पर शामिल हो गए हैं। लेकिन हिंदी का हिंग्लिशीकरण अलग ही चीज है। इसमें जानबूझकर अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी में ठूंसा जाने लगा है, जिससे उसका रूप अजीब ही होने लगा है और उसके सहज प्रवाह में बाधा पहुंची है। यह एक कृत्रिम भाषा है जिसे कतिपय अखबार जोर-शोर से आगे बढ़ा रहे हैं। इस तरह से वे भाषा का विजातीयकरण करने के साथ नई पीढ़ी के भाषा-संस्कार को विकृत करने की कोशिश भी कर रहे हैं। कुछ अखबार तो खबरों के शीर्षक के साथ अजीब प्रयोग करते हुए अंग्रेजी के शब्द रोमन में ही दे देते हैं। इस मामले में हाल के दिनों में आईं वेबसाइटें आगे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी के स्वरूप को बिगाड़ने का काम अखबारों से ज्यादा वेबसाइटों ने किया है। वाकई हिंदी के साथ अंग्रेजी का यह मेल अजीबोगरीब लगता है। लेकिन एक फैशन के रूप में इसे बढ़ावा दिया जा रहा है।

दूसरी तरफ, समय के साथ अखबारों की भाषा में अशुद्धियां भी बढ़ी हैं। लेखन में व्याकरण के नियमों की अवहेलना या तो जानबूझकर की जाती है या जानकारी के अभाव में। वाक्य-निर्माण में अशुद्धियां साफ दिखाई पड़ती हैं। विराम चिह्नों के प्रयोग को गैरजरूरी समझा जाने लगा है। खास बात यह भी है कि प्राय: सभी अखबारों ने अपनी अलग स्टाइल-शीट बना रखी है। एक ही शब्द अलग-अलग अखबार अलग-अलग तरीके से लिखते हैं और उसे औचित्यपूर्ण भी ठहराते हैं। इससे पाठकों में भ्रम की स्थिति पैदा होती है। भूलना नहीं होगा कि हमारी परंपरा में छपे हुए शब्द को प्रमाण माना जाता है। ऐसे में, नई पीढ़ी गलत को ही सही समझ ले तो उसका क्या दोष! भूलना नहीं होगा कि हिंदी पत्रकारिता का एक दौर वह भी रहा है जब संपादक अखबार में छपे हर शब्द की शुद्धता के प्रति स्वयं आश्वस्त होते थे और किसी प्रकार की गलती को गंभीरता से लिया जाता था। गलती के लिए भूल-सुधार प्रकाशित करने की परंपरा थी, पर अब वह संस्कृति लुप्त ही हो चुकी है। यह हिंदी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

हिंदी पत्रकारिता के साथ एक विडंबना यह भी है कि सरकारी कामकाज की तरह यहां भी हिंदी अनुवाद की ही भाषा बनी हुई है। जो सामग्री सहजता से हिंदी में उपलब्ध है, उसे भी अंग्रेजी से अनुवाद कर प्रकाशित किया जाता है। यह हिंदी भाषा और समाज के पिछड़ेपन की ही निशानी कहा जा सकता है। लगता है, अपने औपनिवेशिक अतीत से अभी तक हम उबर नहीं पाए हैं। भूलना नहीं होगा, प्रेमचंद ने अंग्रेजी को ‘गुलामी का तौक’ कहा था। यह एक बड़ा सवाल है कि अंग्रेजी की गुलामी या कहें उसके प्रति विशेष पर गैरजरूरी आकर्षण से हम कब उबर पाएंगे।