Monday 26 June 2017

वेश्या एविलन रो का उपाख्यान : ब्रेख़्त की कविताएँ - मनोज कुमार झा




वेश्या एविलन रो ब्रतोल्त ब्रेख़्त की एक प्रसिद्ध कविता है। दरअसल, यह एक उपाख्यान है। इस काव्यात्मक उपाख्यान में स्त्री की पीड़ा उसकी मुक्ति की आकांक्षा के स्वरों में सामने आती है। वेश्या एविलन रोपुस्तक में ब्रतोल्त ब्रेख़्त की 20 कविताएँ हैं। ब्रेख़्त की कविताओं और उनके नाटकों का हिन्दी में काफी अनुवाद हुआ है। ब्रेख़्त एक ऐसे कवि हैं जिनसे हिन्दी लेखकों-कवियों की कई पीढ़ियाँ बेहद लगाव महसूस करती रही हैं और उनसे रचनात्मक ऊर्जा हासिल करती रही हैं। लेकिन आम पाठकों तक ब्रेख़्त की कविताएँ कम ही पहुँच पाई हैं। इस संग्रह के आने से यह उम्मीद बँधी है कि ब्रेख़्त की कविताएँ आम पाठकों तक पहुँच सकेंगी और युवा पीढ़ी इन कविताओं से परिचित हो सकेगी।


ब्रेख़्त की कविताओं, कहानियों और नाटकों का दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।  हिन्दी के पाठकों के लिए विजेंद्र , अरुण माहेश्वरी, नीलाभ, सुरेश सलिल, मोहन थपलियाल, उज्ज्वल भट्टाचार्य जैसे साहित्यकारों ने  ब्रेख्त की कविताओं और कहानियों के अनुवाद किए हैंl गुलज़ार ने भी ब्रेख्त के नाटक ही हू सेज़ यस एंड ही हू सेज़ नो  का  बच्चों के लिए अगर और मगरनाम से अनुवाद किया है। बहरहाल, वीणा भाटिया द्वारा किया गए इस अनुवाद का महत्त्व कुछ अलग है तो इसलिए, क्योंकि ब्रेख़्त की ये कविताएँ पहली बार हिन्दी पाठकों के सामने आई हैं। इन चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद 1983-84 के दौरान किया गया। खास बात यह है कि अनुवाद के लिए कविताओं का चुनाव गोरख पाण्डेय ने किया था। इसके बारे में वीणा भाटिया ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है, एक दिन गोरखजी आए तो मैं ब्रेख़्त की कविताएँ पढ़ रही थी। उन्होंने मुझसे ब्रेख़्त की कविताद ब्रेड एंड द चिल्ड्रन पढ़ने को कहा। मैंने कविता पढ़ी और बाद में उसका अनुवाद भी किया। कुछ दिनों बाद मिलने मैंने वह अनुवाद दिखाया। मेरे किए अनुवाद को देख कर गोरख पाण्डेय मुस्कुराते हुए बोले – वाह साथी! और फिर उन्होंने अनूदित कविता पर अपनी कलम चलाई। इसके साथ ही चल पड़ा अनुवाद का सिलसिला। ये कविताएँ गोष्ठियों में पढ़ी जाती रहीं, सुनी-सुनाई जाती रहीं।


पुस्तक गोरख पाण्डेय की स्मृति में प्रकाशित हुई, यह एक खास बात है। बहरहाल, अनुवाद के लिए ब्रेख़्त की जिन कविताओं का चयन गोरख पाण्डेय ने किया, उससे पता चलता है कि उन्होंने चौतरफा संकट से घिरे, अस्तित्व के लिए जूझते और संघर्ष करते लोगों की गाथा सामने लाने की कोशिश की थी। ब्रेख़्त का रचना-कर्म बहुत ही व्यापक और बहुआयामी है। उनमें से प्रासंगिक चयन गोरख पाण्डेय जैसे क्रान्तिकारी कवि ही कर सकते थे। वेश्या एविलन रो का उपाख्यान ही पाठकों को बेचैन कर देगा। पूँजीवादी व्यवस्था में श्रमिक वर्ग के साथ स्त्री का उत्पीड़न एक ऐसा सच है, जिससे मुँह नहीं चुराया जा सकता। इस संग्रह में शामिल कई कविताओं में यह सच उभर कर सामने आया है। ब्रेख़्त की इन कविताओं से गुज़रना बहुत आसान नहीं है। यह एक यंत्रणादायी प्रक्रिया है। जहाँ शब्द नश्तर बन जाते हैं, जहाँ उदासी लगता है मानो धरती से आकाश तक छा गई है, जहाँ अंतहीन बेचैनियाँ हैं, तो ये कविताएँ पाठकों को एक भयानक संसार में लेकर जाती हैं। वहाँ सवाल हैं, सवाल हैं भूखे बच्चों के, नुची लड़कियों की पीड़ा है। इस पेचीदी दुनिया में प्रिया के वास्ते गीत है तो माँ के लिए शोकगीतबुढ़िया का विदागीत है तो बच्चों की रोटी का भी सवाल है। शहर के बाहर जमा आठ हज़ार ग़रीबों का हुजूम है तो भव्य तोरण के नीचे अज्ञात सैनिक का व्याख्यान भी हो रहा है। वहीं, तीन सौ हलाक कुलियों का अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के नाम प्रतिवेदन है। ब्रेख़्त की कविताओं में लोरियाँ हैं, क्रान्ति के अनजान सिपाही की समाधि का पत्थर है तो देशवासियों से जनता की रोटी का सवाल भी है।


ये ब्रेख़्त के विपुल रचना-संसार से एक अति संक्षिप्त चयन है, पर उनके जैसे क्रान्तिकारी कवि की रचनधर्मिता का पूरा आस्वाद कराने वाला। अनुवाद दरअसल पुनर्रचना है। कविता की पुनर्रचना असंभव-सी बात होती है। पर यह ज़रूरत है। वीणा भाटिया ने अनुवादक के धर्म का ईमानदारी से निर्वाह किया है, इसका पता कविताओं के पाठ से चलता है। उनमें जो सहज प्रवाह है, उससे कविता हमारे समय से और हमारी निजता से भी अनायास जुड़ जाती है। इस संग्रह की कुछ कविताएँ पहले पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुकी हैं।


संग्रह में गोरख पाण्डेय पर एक परिशिष्ट है, जिसमें उनके दो साथियों के लेख हैं। मनोज कुमार झा ने स्वप्न और क्रान्ति के कवि गोरख पाण्डेय लेख में उनकी रचनाधर्मिता और सरोकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है, साथ ही प्रगतिशील-जनवादी साहित्य आन्दोलन से जुड़े कुछ ज्वलंत सवाल भी उठाए हैं। उनके दूसरे साथी प्रोफेसर ईश मिश्र ने सामाजिक बदलाव के कवि गोरख में लिखा है कि गोरख पाण्डेय की कविताएँ आम जन को अनंत काल तक जागाती रहेंगी।

कहा जा सकता है कि ब्रेख़्त की इन कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत कर के वीणा भाटिया ने अपनी लिटटरी एक्टिविस्ट की भूमिका का निर्वाह किया है। इससे निस्संदेह नई पीढ़ी को मानसिक खुराक और ऊर्जा मिलेगी।

पुस्तक – वेश्या एविलन रो – ब्रतोल्त ब्रेख़्त की कविताएँ
अनुवाद : वीणा भाटिया
प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
मूल्य : 70 रुपए





Tuesday 23 May 2017

Congrats Dolly

डॉली वर्मा फेमस जूलरी डिज़ाइनर हैं। इन्होंने सबसे ज़्यादा कमाई (लगभग 1500 करोड़) करने वाली  फिल्म 'बाहुबली-द कन्क्लूजन' की जूलरी डिज़ाइन की है। दर्शक इनकी जूलरी डिज़ाइनिंग से काफी इम्प्रेस हुए। फ़िल्म में इनकी जूलरी डिज़ाइनिंग काफी सराही गई। हम उम्मीद करते हैं कि आने वाली फ़िल्मों में भी इनका काम देखने को मिलेगा। डॉली को शुभकामनाएँ।  

Monday 22 May 2017

दुनिया इन दिनों' में सरला माहेश्वरी से साक्षात्कार - वीणा भाटिया मुझे दक्षिणपंथ के रुझान ने विचलित किया है - सरला माहेश्वरी





सरला माहेश्वरी राजनीति, साहित्य और सांस्कृतिक आन्दोलनों के क्षेत्र में काफी जानी-मानी हैं। दो बार राज्यसभा सदस्य रह चुकीं सरला जी लगातार मेहनतकश जनता के संघर्षों से जुड़ी रहीं। साथ ही समाज, राजनीति, संस्कृति आदि से जुड़े सवालों पर लगातार लिखती रही हैं। इधर कुछ वर्षों से सरला जी लगातार कविताएँ लिख रही हैं। ये कविताएँ सोशल मीडिया पर भी आती हैं। पिछले दो वर्षों में इनकी कविताओं के तीन संकलन प्रकाशित हो चुके हैं – ‘आसामान के घर की खुली खिड़कियाँ’, ‘तुम्हें सोने नहीं देगी’ और इस साल आई ‘लिखने दो’। इसके अलावा इनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें प्रमुख हैं – नारी प्रश्न, विकास और पर्यावरण के प्रश्न, आर्थिक प्रश्नों पर, नई आर्थिक नीति पर, मीडिया पर, समान नागरिक संहिता, महंगाई और उपभोक्ता संरक्षण आदि। अग्निबीज डिरोजियो, शहीदे आजम भगत सिंह, खेतू बागदी औक गोपाल कहार (अनूदित नाटक), जूलियल सीजर के अंतिम दिन (अनूदित नाटक) प्रमुख किताबें हैं। इन्होंने ज्योति बसु पर किताब का संपादन किया है और हवाला घोटाला-शेयर घोटाला जैसे विषयों पर भी लिखा है। हाल ही में वीणा भाटिया ने इनसे कई मुद्दों पर बातचीत की। प्रस्तुत हैं महत्त्वपूर्ण अंश।
1. आजकल आप क्या पढ़ रही हैं? पढ़ने के लिए चयन करने का आपका तरीका क्या है?
सरला माहेश्वरी : पढ़ने में चयन करने की ज़रूरत तभी पड़ती है, जब आप अपने पुस्तकालय से दूर जा रहे हों, वरना जब घर में हों तो आपके सामने अपनी पसंदीदा किताबों का पूरा संसार है। जब जो मन चाहा बस खींचकर वही किताब निकाल लो। हाँ, कभी एक किताब नहीं, एक साथ कई किताबें चलती रहती हैं। चूँकि काम भी विभिन्न विषयों पर चलता रहता है तो किताबें भी उसी तरह बदलती रहती हैं। वैसे रवीन्द्रनाथ पर काफी दिनों से काम चल रहा है। अब तक तीन सौ से ज़्यादा पृष्ठ लिखे जा चुके हैं। लेकिन महासागर है। सोचा मैं और अरुण साथ मिलकर करते हैं। देखें क्या होता है।
2. आपकी कविताएँ एकदम ही भिन्न किस्म की हैं। बहुत ही ठोस धरातल पर लिखती हैं आप, न अमूर्तन, न विशेष बिंब-विधान, जो कहना होता है, साफ़-साफ़ कहती हैं और बहुत ही संप्रेषणीय व प्रभावोत्पादक तरीके से। कविता लिखने की प्रेरणा आपको कैसे मिलती है?
सरला माहेश्वरी : कविता लिखने की प्रेरणा का जहाँ तक सवाल है, इतना ही कहना चाहूँगी कि एक राजनीतिक कार्यकर्ता, एक अख़बार में रोज लिखना, विभिन्न विषयों पर वक्तव्य, आलेख आदि ...तो लिखना हमेशा चलता ही रहा। कविता का मामला ऐसा है कि परिवेश ही कवितामय रहा। पिता इतने बड़े कवि-गीतकार रहे। उनके गीतों को हमेशा गुनगुनाते, दूसरे कवियों को भी हमेशा सुनते-सुनाते रहे। तो कविता तो हमेशा जीवन से जुड़ी रही। कोई भाषण, कोई लेख बिना कविता के कभी पूरा ही नहीं होता था। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी बिना कविता के मेरी बात पूरी नहीं होती थी। एक बार इसी तरह के एक मंच पर जब मैंने मुक्तिबोध को उद्धृत किया तो लोकसभा के महासचिव ने ख़ुश होते हुए कहा कि आप तो मुक्तिबोध को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी ले आईं।
जहाँ तक मेरे कविता लिखने का सवाल है तो इस विषय में इतना ही कहना चाहूँगी कि ख़ुद मुझे भी पता नहीं चला। पहले जो कविता कभी-कभार किसी विशेष ज़रूरत के लिए लिखी जाती थी, अब वही आज हमारे लिए अपनी बात को व्यक्त करने का मुख्य माध्यम बन गयी है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि कविता को अपनी अभिव्यक्ति का एक प्रमुख माध्यम बना कर हमने उसे अपने सामाजिक सरोकारों का अभिन्न अंग बना लिया है।
3. कवि, कविता की भाषा और आलोचक के विषय में आपकी क्या मान्यता है?
सरला माहेश्वरी : आपके तीसरे प्रश्न का कुछ जवाब तो आपको दूसरे प्रश्न में ही मिल गया होगा। कविता की भाषा का जहाँ तक प्रश्न है, ओक्तावियो पॉज की पंक्ति का स्मरण हो आता है, 'कविता पढ़ना आंखों से उसे सुनना होता है। कविता सुनना आंखों से उसे देखना होता है।' कविता जो पाठक के दिल और दिमाग़ को झकझोरे, उससे बात कर सके।
जहाँ तक आलोचक का सवाल है, मैं तो यही मानती हूँ कि आलोचक भी रचनाकार ही है। कविता या किसी भी रचना का असली आलोचक तो पाठक ही है। हाँ, कभी-कभी आलोचक रचना से इतर किन्हीं अन्य दुराग्रहों से संचालित हो सकता है और ऐसा सिर्फ आलोचक के साथ ही नहीं, रचनाकार के साथ भी हो सकता है। ऐसी दुर्घटनाएँ अक्सर घटती हैं। और इसीलिए हर बार जब हम पाठ का पुनर्पाठ करते हैं तो बात बदल-बदल जाती है। वैसे देखा जाए तो सही आलोचना रचनाकार को और उसी क्रम में आलोचक को भी संशोधित-संवर्द्धित करती है।
4. कविता नैसर्गिक प्रतिभा से आती है या कवि के निजी जीवन और सामाजिक आलोड़नों से?
सरला माहेश्वरी : कविता का नैसर्गिकता से कोई संबंध है या नहीं ? अब मार्केस की तरह इतना तो कह सकती हूँ कि लिखना शायद कहीं न कहीं मेरे डीएनए से जुड़ा था। लेकिन ये भी तो एक बड़ा सच है कि आप के अंदर कोई बीज तो हो सकता है, लेकिन उसे फलने-फूलने का उपयुक्त वातावरण न मिले तो बीज नष्ट हो जाता है। कुम्हार के बच्चे को भी माटी को चाक पर चलाना सीखना पड़ता है। उसके साथ अपनी जिंदगी के तारों को जोड़ना पड़ता है।और फिर बहुत कुछ जीवन की परिस्थितियाँ तय करती हैं।
कई बार सोचती हूं - मुक्तिबोध कहते हैं -‘‘कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ /वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता।’’
‘कविता में कहने की आदत नहीं’- क्या तात्पर्य है इस बात का ? क्या कविता का ढांचा हमसे कुछ और ही बुलवाता है, जो हमारे मन का नहीं होता ! सीधी-सच्ची बात क्या कविता में नहीं कही जाती ! या ऐसा जता कर भी वे कुछ और ही गूढ़ बात कहना चाहते हैं ! क्या वे कह रहे हैं कि जो बात इतनी सर्वज्ञात है, फिर भी मजबूरीवश उसे ही कहना पड़ रहा है। सर्वज्ञात को ज्ञात कराने की व्यर्थता की पीड़ा को जाहिर कर रहे हैं ! न चाहते हुए भी कहने, दोहराते जाने जाने की मजबूरी !
5. आपकी दृष्टि में साहित्य के मूल सरोकार क्या हैं या होने चाहिए?
सरला माहेश्वरी : साहित्य के मूल सरोकार जीवन के ही सरोकार हैं। मीर ने लिखा था -
‘‘क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता
और चुप भी रहा नहीं जाता।’’
आज हम जिन दबावों में हैं, हम मजबूर हैं, सदियों से कही जा रही राम-रहीम की बातों को ही दोहराने के लिए। जो बिल्कुल प्रत्यक्ष है, उसे ही कविता में भी बार-बार बयान करने के लिए। अपनी सत्ता को ही शायद बार-बार टटोल कर देख लेने के लिए !
यह समय चुप नहीं रहने दे रहा है। रोज झकझोरता है, रातों की नींद उड़ा देता है। लिखना जीने की शर्त-सा बन गया है। स्वतंत्रता के अहसास को जिंदा रखना है तो लिखना ही होगा, चुप रहना, मतलब है खुद से अपने को गुलामी की जंजीरों से जकड़ लेना है।
6. कहा जाता है कि साहित्यकारों का राजनीति में जाना फलता-फूलता नहीं है। आपके बारे में यह सच नहीं है फिर भी, फिर भी बताएँ कि साहित्यकारों के राजनीति में आने के बारे में आप क्या सोचती हैं?
सरला माहेश्वरी : साहित्यकार और राजनीति दोनों ही एक तरह से पूरा वक्ती कार्यकर्ता की माँग करते हैं। दोनों का संबंध ही व्यापक सामाजिक सरोकारों से है, हाँ काम का तरीक़ा अलग है। लेकिन आज की राजनीति का जो रूप है, वहाँ तो ये दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े नज़र आते हैं। जहाँ तक मेरा सवाल है तो इस संबंध में मैं कुछ भाग्यशाली रही हूँ कि मेरा पारिवारिक परिवेश राजनीतिक और साहित्यिक रहा। राजनीति में रहते हुए भी हमेशा यही ख़याल रहता कि अपने सरोकारों को किस तरह बेहतर ढंग से आम लोगों तक पहुँचाएँ, चाहे माध्यम लेखनी हो या वाणी। हाँ, राजनीति आपके ऊपर बहुत से अनचाहे बोझ डाल देती है, मेरा मतलब है आपकी निजता को वहाँ बहुत कम समय मिलता है। और साहित्य को निजता की बहुत ज़रूरत होती है। बार-बार मुझे ये चीज़ कचोटती थी। अपनी इच्छानुसार चीज़ों को पढ़ने का वक़्त नहीं और अनचाही चीज़ों को साधने की मजबूरी। फिर भी ज्ञान आखिर ज्ञान ही होता है। इस बहुविध अध्ययन का मुझे भरपूर लाभ मिला है। फिर भी काफी भाग-दौड़ भी रहती थी। पूरे देश में पार्टी के वक़्ता के रूप में आज यहाँ कल वहाँ। पता नहीं, कुछ चीज़ें आपके वश में नहीं होती। बचपन में कहाँ से साहित्य के बदले विज्ञान पढ़ना पड़ा और तब अपनी बड़ी बहन को साहित्य को विषय के तौर पर पढ़ते देखकर ईर्ष्या होती।
7. आप काफी समय से लिखती रही हैं। अपनी शुरुआती रचनाएँ आपको कैसी लगती हैं? क्या उनके बारे में कोई आत्म-विश्लेषण करना चाहेंगी?
सरला माहेश्वरी : बहुत अच्छा सवाल है। लिखने का सिलसिला तो काफी अर्से से चल रहा है। लेकिन पहले अधिकांशत: राजनीतिक और पत्रकारितामूलक लेखन ही हुआ करता था। शोधपरक कामों में मैंने स्त्रियों के बारे में कुछ काम किया जो मेरी किताब ‘नारी प्रश्न’ में संकलित है। इसी प्रकार, एक शोधमूलक पुस्तिक लिखी ‘समान नागरिक संहिता’ पर। और लगातार पार्टी के अखबार में लिखा करती थी। लेकिन उन दिनों कविताएं बहुत ही कम लिखी। बीच-बीच में, खास-खास मौकों पर ही मूलत: राजनीतिक कविताएं लिखा करती थी। आज भी जब उन्हें देखती हूं तो अच्छा ही लगता है। वह मेरी मूल भूमि है। जहां तक उनको लेकर किसी आत्म-विश्लेषण का सवाल है, मेरा मानना है कि हर लेखक कभी न कभी अपने किए कामों पर सोचता ही है। यह बहुत स्वाभाविक है। जैसे हर पाठ का पुनर्पाठ होता है, हर रचना भी चाहती है कि उसे भी कुछ सहला दिया जाए। और पुरानी ही क्यों, नई रचना भी चाहती है। जिंदगी की तरह रचना भी कोई शिलालेख नहीं है। लेकिन हर रचना का अपना एक काल-संदर्भ होता है। इसलिए उनमें किसी प्रकार की छेड़-छाड़ की मुझे कोई ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होती है।
8. आज साहित्य में नारीवाद का स्वर अधिक मुखरित हो रहा है। क्या आप नारीवाद का समर्थन करती हैं, यदि करती हैं तो किस रूप में?
सरला माहेश्वरी : साहित्य में ही नहीं, आज जीवन के हर क्षेत्र में नारी विमर्श की प्रमुखता से कोई इनकार नहीं कर सकता है। जैसा कि मैंने पहले ही जिक्र किया है, ‘नारी प्रश्न’ पर मेरी किताब है जिसमें नारीवाद की विभिन्न धाराओं पर व्यापक चर्चा की गयी है। हमें समाज के व्यापक जनतंत्रीकरण के साथ ही नारीवाद के संदर्भ को समझना चाहिए। जहाँ तक नारी मुक्ति का प्रश्न है, इसे पूरे समाज की मुक्ति के बिना तो हासिल किया ही नहीं जा सकता, और ख़ुद पुरुष तथा स्त्री, दोनों को पितृसत्ता के संस्कारों से मुक्त होने की लड़ाई को लगातार लड़ते रहना है। इसके बिना कभी भी इतिहास के केंद्र में स्वातंत्र्य के भाव को प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकेगा।
9.इस दौर में आत्मकथा-लेखन की प्रवृत्ति बढ़ी है और कई कारणों से आत्मकथाएँ चर्चित भी हुई हैं। इस विधा की सीमा और शक्ति के बारे में आपकी क्या राय है? क्या आपने आत्मकथा लिखने के बारे में सोचा है?
सरला माहेश्वरी : जिनके पास अपने जीवन के बारे में कहने-बताने के लिये काफी कुछ हो, उन्हें निश्चित तौर पर आत्मकथाएँ लिखनी चाहिए। इस दिशा में कलम उठाने के पहले आदमी में अपनी उपलब्धियों के बारे में एक गहरे आत्म-बोध की जरूरत होती है। मैं नहीं सोचती कि हमने ऐसी कोई उपलब्धि की है, जिसे बताने के लिये आत्मकथा लिखी जाए। अभी तक के अपने किए-धरे को मैं यथेष्ट नहीं मानती कि उसके बयान से किसी को कोई खास बात बता सकूं। दो-दो बार सांसद रहने पर भी मुझमें कुछ खास होने का बोध कभी भी पैदा नहीं हुआ और आज लगता है कि शायद इसीलिए अपनी मनुष्यता को कुछ हद तक बचा कर रख पाई हूँ।
10. इधर कुछ आत्मकथाएँ पढ़ी होंगी आपने। उनके बारे में आपकी क्या राय है?
सरला माहेश्वरी : आत्मकथाएँ कई आई हैं, पढ़ी भी हैं। आत्मकथा लिखने का काम मुझे लगता है कि सचमुच यह एक आग का दरिया है और डूब के जाना है जैसा है। इसके अलावा साहित्य मात्र ही व्यापक जीवन की एक आत्मकथा ही है। इस विशाल संसार में आपकी निजी अस्मिता अगर कोई मायने न रखे तो इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इसके अलावा, यह भी समान रूप से सच है कि आदमी के आत्म-संसार की सच्चाई भी कम विकट नहीं है। यह पूरी तरह से आपकी रुचि और तैयारियों का विषय है। इस पर किसी भी प्रकार की मेरी निश्चयात्मक राय नहीं हो सकती है। सारी दुनिया के कितने लोगों की आत्मकथाओं से हम हमेशा कितना अधिक सीखते रहे हैं। गोर्की का ‘अपने विश्वविद्यालय’ उनकी आत्मकथा ही है। हर आत्मकथा में लेखक सिर्फ खुद को नहीं, अपने पूरे परिवेश को लिखता है। और उन पर भी उसी प्रकार विचार किया जा सकता है, जैसे बाकी साहित्य की विधाओं पर होता है।
11. कविता के भविष्य पर किस तरह के दुष्प्रभावों की संभावनाएँ देखती हैं आप?
सरला माहेश्वरी : मुझे ये सारी बातें, कविता की वापसी और कहानी की वापसी की तरह की बातों में विशेष तत्व नहीं लगता है। समय के साथ रचना के स्तर में नाना प्रकार के परिवर्तन आते हैं, आ सकते हैं। लेकिन कविता के ढांचे में जिस प्रकार वस्तु संसार की संगति में आदमी के अंतर के सच के अनंत आयाम जाहिर होते हैं, आदमी उसे कभी त्याग नहीं सकता। कविता के अंत की बात को इसीलिए मैं कभी-कभी मनुष्यता के अंत की तरह से देखती हूं। आदमी के चैतन्य में ज्ञान-तत्व और क्रिया-तत्व, दोनों का जो गुंफित रूप निहित होता है, उसकी अभिव्यक्ति ही मुझे कविता लगती है। इसीलिए कविता के क्रियात्मक पहलू की मैं कभी उपेक्षा नहीं कर सकती। जब तक आदमी जिंदा है, कविता जिंदा रहेगी।
12. इंटरनेट और मोबाइल के बढ़ते प्रभाव का असर क्या साहित्य पर पड़ रहा है, यह किस रूप में है?
इसमें शक नहीं कि आज का युग संस्कृति के माध्यमीकरण का युग माना जाता है। हमारे सारे सामाजिक और निजी व्यवहार पर इसका निश्चित असर है। इसके रचनात्मक साहित्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में भी काफी चर्चाएं हो रही है। लेकिन अभी तक तो यही लग रहा है कि इसने सूचनाओं की प्राप्ति को सुगम बना कर आदमी की ज्ञान चर्चा के स्तर को ऊंचा किया है। इससे कल्पनाशीलता को भी उड़ान की नई संभावनाएं मिलेंगी। इससे कम से कम बहुत ही यांत्रिक और ढर्रेवार किस्म के लेखन का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। अन्यथा सामान्य तौर पर रचनाशीलता पर मैं इससे कोई खतरा महसूस नहीं करती हूँ।
13. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घटने वाली किसी ऐसी घटना के बारे में बताइए, जिसने आपको बेहद विचलित किया हो।
सरला माहेश्वरी : अभी तो हमारे देश में मोदी के सत्ता में आने के बाद के घटनाक्रम और सारी दुनिया में नजर आ रहे दक्षिणपंथ की ओर रुझान ने निश्चित तौर पर विचलित किया है, क्योंकि इससे एक ऐसे विश्वयुद्ध का खतरा तक पैदा हो गया है जो मानव मात्र के अस्तित्व के लिये घातक साबित हो जाए। नाजीवाद, फासीवाद और द्वितीय विश्वयुद्ध के भयंकर अनुभवों के इतिहास को जानने के बाद किसी भी प्रकार के युद्धोन्माद से मैं बहुत विचलित होती हूँ।
14. एक प्रोपेगैंडा है कि हिंदी हिंदुओं की ज़बान है और उर्दू मुसलामानों की, क्या वास्तव में जनमानस में यह बात है, क्या नज़रिया है आपका?
सरला माहेश्वरी : एक ही सरजमीं से पैदा होने वाली इन दो भाषाओं को परस्पर विरोध में खड़ा करना एक सुचिंतित राजनीति है। हिंदी हिंदुओं की और उर्दू मुसलमानों की बात जरा भी सच नहीं है। इस मामले में हम लोग अपने को प्रेमचंद का वंशज कहते हैं। इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि अंग्रेजों के शासन काल तक इरान हमारा एक पड़ोसी मुल्क हुआ करता था। अरबी-फारसी की दुनिया से भारत के जीवंत संबंध हजारों साल पुराने हैं। ऐसे में, अरबी फारसी के शब्दों का हमारे यहां बहुतायत में प्रयोग होना किसी भी मायने में अस्वाभाविक नहीं कहा जाएगा। जैसे संस्कृत और अपभ्रंश के स्रोत से आए शब्दों को हम स्वाभाविक तौर अपनाते हैं, वैसे ही हमारे यहां अरबी-फारसी के शब्दों को भी अपनाने की समृद्ध परंपरा रही है। लेकिन इधर के सालों में, राष्ट्रवाद के इस नये दौर में, जब लोग कहते हैं, दुनिया छोटी हुई है, हम तो देख रहे हैं, हमारी सीमाएं कहीं ज्यादा सिकुड़ गई है। और वैसे आज के भारत की यह सच्चाई है कि मुसलमान हिंदी को ही अपनी भाषा मानते हैं और हिंदू देवनागरी में लिखी गई उर्दू को खूब अपनाते हैं। हिंदी फिल्मों की भाषा की लोकप्रियता भी इसी बात की गवाह है।
15. क्या आप किसी राष्ट्रीय नेता के प्रति आस्थाशील रही हैं?
सरला माहेश्वरी : नहीं, आज भी यदि किसी राष्ट्रीय नेता को आदर्श के रूप में देखते हैं तो वे गांधीजी ही नजर आते हैं। कई कम्युनिस्ट नेताओं, मसलन बी टी रणदिवे, ईएमएस नंबुदिरिपाद, ए के गोपालन आदि ने प्रभावित जरूर किया। उन सबके प्रति मन में गहरी श्रद्धा है। फिर भी, जिसमें अपनी सारी संभावनाओं को पूर्ण रूप में देख सकूँ, वैसा नहीं है। भारत में उस मामले में गांधीजी अकेले अलग नजर आते हैं। नेहरू जी के प्रति भी अगाध आस्था जगती है।
16. आप राज्यसभा में रही हैं। चुनावों में जो हिंदी काम में आती है, संसद में क्यों नहीं आती? विश्व हिंदी सम्मेलनों के बारे में क्या कहना चाहेंगी आप?
सरला माहेश्वरी : संसद में हमेशा हिंदी में ही बोलती रही और तमाम लोग उसे पसंद करते। उन्हें आश्चर्य भी होता कि ये हर विषय को हिंदी में कैसे व्यक्त कर पाती हैं। मुझे बहुत अटपटा लगता था कि हिंदी के विशेषज्ञ अक्सर कई विषयों पर अंग्रेज़ी में अपनी बात रखते थे। उन्हें लगता था कि वे अंग्रेज़ी में ही अपनी बात को अच्छी तरह पहुँचा सकते हैं, जबकि मुझे ऐसा नहीं लगता था। और ऐसा भी होता था कि वे मुझसे आकर कहते कि अरे इस विषय को आपने इतनी गंभीरता के साथ हिंदी में रखा, मतलब हिंदी में गंभीर और गूढ़ बातें सरलता से कही जा सकती है, इस पर उन्हें विश्वास नहीं था, या अभ्यास नहीं था।
17. वर्तमान हालात में देश में कैसे राजनीतिक विकल्प की संभावना आप महसूस करती हैं?
सरला माहेश्वरी : आज तो एक नई वैकल्पिक राजनीति की संभावनाएं सबसे ज्यादा उज्ज्वल है, क्योंकि इन सत्तर सालों में अब देश की सभी राजनीतिक पार्टियों का मूल सच सबके सामने पूरी तरह से आ चुका है। अब राजनीति पुराने ढर्रे पर आगे ज्यादा नहीं चल पाएगी। पार्टियों के नाम भले न बदलें, लेकिन उनके कामों की दिशा को पूरी तरह से बदलना ही होगा।
18. सांस्कृतिक स्तर पर आज हमारे सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? नये सांस्कृतिक आंदोलन की क्या कुछ संभावनाएँ बन सकती हैं? 
सरला माहेश्वरी : कुछ लोग है जिन्होंने अतीत की पूजा और उसके गौरवगान को ही संस्कृति का पर्याय मान लिया है। उनके लिए संस्कृति एक पवित्र, सनातन और शाश्वत किस्म की कोई ऐसी वस्तु है जो ईश्वरीय सत्य की तरह अपरिवर्तनीय है। ऐसे लोग मनुष्य रूपी तुच्छ जीव को इसमें हस्तक्षेप की कोई अनुमति नहीं देना चाहते। संस्कृति के क्षेत्र के ये पहरेदार अभिशप्त हैं जड़ीभूत हो कर पूरी तरह से अप्रासंगिक होने के लिए। सामयिक तौर पर तत्ववाद की किसी लहर के चलते ऐसे अतीतजीवी प्रेत-पूजकों को कुछ मौलिक सुखों का लाभ जरूर मिल सकता है। लेकिन परिवर्तनशील जीवन की अबाध धारा में इन्हें प्रासंगिकता या मूल्यवत्ता का प्रमाणपत्र कभी नहीं मिल सकता। इसलिए हम खुद को ऐसे अतीतोन्मुखी संस्कृति के ठेकेदारों की संस्कृति के बारे में खोखली और पवित्र किस्म की अवधारणाओं से कोसों दूर रखते हैं।
19. मैं चाहूँगी कि हरीश भादानी जी के साथ अपने कुछ निजी अनुभवों को साझा करें।
सरला माहेश्वरी : जहां तक पिता जी का संबंध है, हम उनके प्रभाव से कभी मुक्त नहीं हो सकते। उन पर मेरा एक लेख है - ‘मेरे पिता’। उसमें एक जगह पर मैंने लिखा है - ‘‘घर से आमतौर पर अनुपस्थित रहने वाले अपने पिता को घर के बजाय बाहर के विराट से ही ज्यादा जाना। कभी-कभार जब पिता के साथ बाहर, शहर में निकलने का मौका मिलता तो बस यही देखते कि उनसे मिलने वाले लोग कदम-कदम पर उन्हें रोक कर दुआ-सलाम करते; घर से बाजार तक की 10-15 मिनट की दूरी हम कभी आध घंटे तो कभी 45 मिनट में तय करते हुए बाजार तक पहुँचते जहां से हमें तांगा लेना होता था। हम बहनें उनके पीछे चलती हुई यह सब देखती रहतीं। तांगे वाले भी उन्हें देखते ही मनुहार करते और वे बिना कुछ पूछे तांगे पर सवार होकर उनसे खैरियत पूछते हुए बतियाते रहते। मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी किसी तांगे वाले से उन्होंने दाम ठहराये हों, हमेशा कुछ ज्यादा ही दाम देकर उतर पड़ते। उनके साथ कभी-कभार बाहर निकलने और घर में उनके बंधु-बांधवों के अनवरत आगमन ने हमें इतना जरूर समझा दिया था कि हमारे पिता एक आम-फहम इंसान नहीं हैं, वे एक बड़े आदमी हैं जिनकी लोग इतनी इज्जत करते हैं।’’
ये हमारे बचपन की यादें हैं। बाद के दिनों में तो उन्हें हमेशा अपने साथ ही पाया था।
20. एक निजी सवाल। ऐसा कोई सुख, शौक, पश्चाताप जिसकी याद अक्सर आकर अभी भी दस्तक देती हो।
सरला माहेश्वरी : मुझे पश्चाताप शायद किसी चीज का नहीं है। अपनी शर्तों पर ही मैंने अपना जीवन जिया है। दुख की वह घड़ी जरूर सबसे अधिक सताती है जब मुझे पता चला था कि मुझे कैंसर है। जब एम्स में कराये गये परीक्षण की खबर मेरे पास आई थी, उस समय मैं अकेली, श्रीनगर में संसदीय राजभाषा कमेटी के कार्यक्रम में थी। निश्चित तौर पर कैंसर और उसके इलाज से गुजरने ने मेरे जीवन को बदल दिया। आज मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं, लेकिन इन दस सालों में बहुत सारी चीज सुदूर अतीत की बन कर रह गई है। उस लिहाज से मेरा उस भाग-दौड़ और नाम-गाम के जीवन के प्रति कोई मोह नहीं रह गया है।
21. लेखन और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में अरुण माहेश्वरी जी के साथ का लाभ आपको किन रूपों में मिला?
सरला माहेश्वरी : अरुण मेरे जीवन में एक अनिवार्य उपस्थिति की तरह है। अपने संसदीय जीवन के दिनों में भी दिल्ली में वह मेरे साथ ही रहता था तो कुछ साथी मजाक भी किया करते थे कि ये दोनों काया और छाया की भांति है और हमें कभी भी ऐसे मजाक बुरे नहीं लगे। बल्कि हमने इसका सुख ही लिया। इससे ज्यादा और क्या कहूं।

'दुनिया इन दिनों' के कोलकाता विशेषांक में प्रकाशित... स्मृति में एक हज़ार चौरासवें की माँ - वीणा भाटिया



महाश्वेता देवी का जीवन और लेखन एक जलती मशाल की तरह है। महाश्वेता देवी सिर्फ़ एक रचनाकार ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता भी रही हैं। शोषितों-उत्पीड़ितों और वंचित तबकों के साथ संघर्ष के मोर्चे पर उनके साथ आवाज उठाने वाले ऐसे साहित्यकार कम ही हुए हैं। महाश्वेता देवी ने रवीन्द्रनाथ से लेकर प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए समकालीन युवा साहित्यकारों से भी लगातार संवाद बनाए रखा और उनकी रचनाशीलता को धार देने में भूमिका निभाई। अपनी कृतियों में महाश्वेता देवी ने आधुनिक भारत के उस इतिहास को जीवंत किया है, जिसकी तरफ कम साहित्यकारों का ध्यान गया। वह है देश का आदिवासी समाज। आदिवासी समाज के ऐतिहासिक संघर्षों की गाथा लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने उनके बीच अपना काफी समय बिताया। महाश्वेता देवी मानती हैं कि धधकते वर्ग-संघर्ष को अनदेखा करने और इतिहास के इस संधिकाल में शोषितों का पक्ष न लेनेवाले लेखकों को इतिहास माफ नहीं करेगा। असंवेदनशील व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश और एक समतावादी शोषणविहीन समाज का निर्माण ही उनके लेखन की प्रेरणा रही।
अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ जो हिंदी में ‘जंगल के दावेदार’ के नाम से प्रकाशित हुआ है, लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने काफी लंबा समय रांची और उसके आसपास के इलाके में बिताया। तथ्य संग्रह करने के साथ ही उन्होंने वहां के आदिवासियों के जीवन को नजदीक से देखा और उनके संघर्षों से जुड़ गईं। उन्होंने साहित्य के माध्यम से जन-इतिहास को सामने लाने का वह काम किया जो उनके पहले नहीं हुआ था। ‘जंगल के दावेदार’ उनकी ऐसी कृति है, जिसे 1979 में जब साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला तो आदिवासियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी। जगह-जगह ढाक बजा कर आदिवासियों ने कहा था कि उन्हें ही साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है। किसी लेखक से लोगों का ऐसा जुड़ाव दुर्लभ है। ‘पथ के दावेदार’ के बारे आलोचक कृपाशंकर चौबे ने लिखा है, “यह उपन्यास आदिवासियों के सशक्त विद्रोह की महागाथा है जो मानवीय मूल्यों से सराबोर है। महाश्वेता ने मुख्य मुद्दे पर उंगली रखी है। मसलन बिरसा का विद्रोह सिर्फ अंग्रेजी शासन के विरुद्ध नहीं था, अपितु समकालीन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भी था। बिरसा मुंडा के इन पक्षों को सहेज कर साहित्य और इतिहास में प्रकाशित करने का श्रेय महाश्वेता को ही है।” महाश्वेता देवी सिर्फ आदिवासियों के विद्रोह पर ही लिख कर नहीं बैठ गईं, बल्कि उनके जीवन के सुख-दुख में शामिल हुईं। उनके हक-हकूक के लिए उनके साथ खड़े हो कर उन्होंने आवाज बुलंद की। यही बात उन्हें दूसरे लेखकों से अलग और विशिष्ट बनाती है।
महाश्वेता देवी का जन्म 14 जनवरी, 1926 को ढाका में हुआ था। साहित्यिक संस्कार बचपन से उन्हें मिले। 12 वर्ष की उम्र में ही वे बांग्ला के श्रेष्ठ साहित्य से परिचित हो चुकी थीं। अपनी दादी की लाइब्रेरी से किताबें लेकर पढ़ने का जो चस्का उन्हें बचपन में लग गया था। उनकी मां भी उन्हें साहित्य और इतिहास की चुनिंदा किताबें पढ़ने को देती थीं। बचपन में ही जब वे शान्तिनिकेतन शिक्षा प्राप्त करने के लिए गईं तो उन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर के साक्षात्कार का मौका मिला। सातवीं कक्षा में गुरुदेव ने उन्हें बांग्ला में एक पाठ पढ़ाया। 1936 में शान्तिनिकेतन में बंकिम शतवार्षिकी समारोह में उन्हें रवीन्द्रनाथ का व्याख्यान सुनने का मौका मिला। उस समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वहां हिन्दी पढ़ाते थे। ऐसे माहौल में महाश्वेता देवी के साहित्यिक संस्कार विकसित होते गए। बाद में पारिवारिक कारणों से शान्तिनिकेतन उन्हें छोड़ना पड़ा और वे कलकत्ता चली गईं। वहां उन्होंने ‘छन्नहाड़ा’ नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली।
महाश्वेता देवी के पिता मनीष घटक भी साहित्यकार थे। उनकी माँ धारित्री देवी भी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। चाचा ऋत्विक घटक महान फिल्मकार हुए। कहने का मतलब पूरा परिवार ही साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ा हुआ था। ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि में महाश्वेता देवी ने बहुत कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था। उनका पहला उपन्यास ‘झांसी की रानी’ 1956 में प्रकाशित हुआ। इसे लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने झांसी और 1857 की जनक्रान्ति से जुड़े इलाकों की यात्रा की और गहन शोध किया। उन्होंने झांसी. जबलपुर, ग्वालियर, कालपी, पूना, ललितपुर की यात्रा की और तमाम दस्तावेजों की छानबीन कर, पुराने लोगों की यादों को जुटा कर उपन्यास लिखा। इसे 1857 की जनक्रान्ति का साहित्यिक दस्तावेज कहा जा सकता है। कोई रचना लिखने के लिए संबंधित इलाके की यात्रा करना, तथ्य जुटाना और वहां के लोगों से जीवंत संपर्क कायम करना महाश्वेता देवी की अपनी विशेषता रही है। यही कारण है कि इनके उपन्यास इतिहास की थाती बन चुके हैं और उनसे आने वाली पीढ़ियों को अपने इतिहास को समझने में मदद मिलेगी।
महाश्वेता देवी ने लेखन की शुरुआत कविता से की थी, पर बाद में कहानी और उपन्यास लिखने लगीं। ‘अग्निगर्भ’, ‘जंगल के दावेदार’, ‘1084 की मां’, ‘माहेश्वर’, ‘ग्राम बांग्ला’ सहित उनके 100 उपन्यास प्रकाशित हैं। बिहार के भोजपुर के नक्सल आन्दोलन से जुड़े एक क्रान्तिकारी के जीवन की सच्ची कथा उपन्यास के रूप में उन्होंने ‘मास्टर साहब’ में लिखी। इसे उनकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति माना गया। महाश्वेता देवी वामपंथी विचारधारा से जुड़ी रहीं, पर पार्टीगत बंधनों से अलग ही रहीं। महाश्वेता देवी ने हमेशा वास्तविक नायकों को अपने लेखन का आधार बनाया। ‘झांसी की रानी’ से लेकर ‘जंगल के दावेदार’ में बिरसा मुंडा और भोजपुर के नक्सली नायक पर आधारित उपन्यास ‘मास्टर साहब’ में इसे देखा जा सकता है। ‘1084 की मां’ उनका बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जिस पर फिल्म भी बनी। यह दरअसल, संघर्ष और विद्रोह की वह कहानी है जिसे इतिहास-लेखन में भी स्थान नहीं मिला। कहा जा सकता है कि महाश्वेता देवी का समग्र लेखन उत्पीड़ित-वंचित तबकों के संघर्षों को सामने लाने वाला है, उसमें वह इतिहास-बोध है जो संघर्षों की दिशा को तय करने वाला है। महाश्वेता देवी के लिए उनका लेखन कर्म जीवन से पूरी तरह आबद्ध है। यही कारण है कि वे लेखन के साथ ही सामाजिक आन्दोलनों में एक कार्यकर्ता की तरह शामिल होती रहीं। कार्यकर्ता-लेखक का एक नया ही रूप महाश्वेता देवी में दिखता है, जो आज के समय में दुर्लभ ही है।
महाश्वेता देवी ने शान्तिनिकेतन से बीए करने के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री ली और अंग्रेजी की व्याख्याता के रूप में काम किया। साथ ही, लगातार यात्रा करते हुए उन्होंने घुमंतू पत्रकार की भूमिका भी निभाई और बांग्ला अखबारों-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग करती रहीं। महाश्वेता देवी के काम का क्षेत्र बहुत व्यापक रहा है। उन्हें 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पर ऐसी लेखिका के लिए पुरस्कार कोई मायने नहीं रखते। दरअसल, महाश्वेता देवी ज़मीनी लेखिका रही हैं, जो हमेशा किसी भी तरह के प्रचार और चकाचौंध से दूर लेखन और आन्दोलनात्मक गतिविधियों से ही जुड़ी रहीं।

फिल्म रिव्यू : शबाना नहीं तापसी पन्नू है - वीणा भाटिया


बॉलीवुड में फिल्मों का सीक्वल बनाने का ट्रेन्ड रहा है, पर ‘नाम शबाना’ को अक्षय कुमार की फिल्म ‘बेबी’ का प्रीक्वल कहा जा रहा है, यानी इस फिल्म की कहानी ‘बेबी’ के पहले की है।

अपनी तरह की एक अलग ही फिल्म है‘नाम शबाना’ ।

यह पूरी तरह से तापसी पन्नू की फिल्म है। ‘बेबी’ में तापसी पन्नू का किरदार कलाइमैक्स के अंतिम 20 मिनट के दृश्यों में था, पर इस फिल्म में अक्षय कुमार का किरदार ही 20 मिनटों में मानो सिमट कर रह गया है।

ऐसा लगता है कि पुरुष केन्द्रित समाज और सिनेमा में अब कुछ महिलाएँ सेंध मार रही हैं और सेंध मारने के नियम को भी तोड़ रही हैं। सेंध मारने के प्रशिक्षण के समय सिखाया जाता था कि सेंध मारकर पहले पैर भीतर डालना चाहिए, क्योंकि सिर डालने पर घर का कोई जागा हुआ सदस्य बाल पकड़कर भीतर खींच सकता है और पकड़े जा सकते हैं।

वीणा भाटियामनोज बसु के उपन्यास ‘रात के मेहमान’ में सेंध मारने की विधा पर यथेष्ट प्रकाश डाला गया है, परन्तु उस क़िताब में यह नहीं लिखा है कि अगर व्यवस्था ही सेंध मारे तो क्या करना है? वह हमारे ‘अच्छे दिनों’ की किताब है।

तापसी पन्नू, कंगना रनोट, स्वरा भास्कर जैसी अभिनेत्रियों को दीपिका पादुकोण या प्रियंका चोपड़ा की तरह करोड़ों रुपए का मेहनताना नहीं मिलता, परन्तु इनकी प्रतिभा से सिनेमा का परदा खूब रौशन हो रहा है।

ढाई घंटे की इस फिल्म में जो बीस मिनट तापसी पन्नू परदे पर नहीं होती हैं, वे काटे नहीं कटते। उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व का लाभ भव्य बजट की फिल्म बनाने वाले संभवतः इसलिए नहीं लेते कि वे अपने अभिनय से नायक को बौना साबित कर सकती हैं।

पटकथा लेखक व फिल्मकार ने हमें ‘वेडनसडे’ में आश्चर्यचकित किया था और ‘बुधवार’ से शुरू होकर वे ‘इतवार’ तक पहुँच गए हैं।

थ्रिलर विधा दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पेरिस में प्रारंभ हुई, जब नाज़ी कब्ज़े में रहते हुए फ्रांस में देशप्रेम व मानवीय मूल्यों वाली फिल्में थ्रिलर की तरह बनाई जाती थीं। थ्रिलर विधा में हर किस्म के दर्शक की रुचि होती है। उनका सनसनीखेज स्वरूप दर्शकों को बांधे रखता है।

इस फिल्म की बुनावट और कसावट कुछ ऐसी है कि इसमें मध्यान्तर का व्यवधान खल जाता है। कोई अनावश्यक दृश्य नहीं है और संवाद इतने प्रभावोत्पादक हैं कि तालियां बजाने से आप स्वयं को रोक नहीं पाते। मसलन एक प्रशिक्षक कहता है कि मरने के लिए तैयार हो तो शागिर्द व्यंग्य से कहती हैं,

“सर, आप इतने मोटिवेशनल कैसे हैं।”

सभी देशों के अपने गुप्तचर विभाग होते हैं। देश के भीतर गुप्तचरी करने से अधिक जोखिम का काम शत्रु देश में या उसके खिलाफ किसी अन्य देश में काम करना है। सलमान खान अभिनीत ‘टाइगर’ में जो काम पुरुष करते हैं, वही काम इस फिल्म में एक औरत करती है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय माताहारी नामक एक विख्यात महिला गुप्तचरी के शिखर पर पहुंची थी। 

इस फिल्म की नायिका ने अपने बचपन में अपने शराबी पिता को मार दिया था, क्योंकि वह उसकी मां को बिना किसी वजह के रोज मारता था। इसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है और वह अपने प्रेमी की सहायता से उस प्रभाव से मुक्त होने का प्रयास करती है तो कुछ मदांध राजनेता के सुपुत्र उसके प्रेमी को मार देते हैं। ये त्रासद घटनाएं उसके दिल में पिघला इस्पात भर देती हैं और वह चलता-फिरता बम बन जाती है।

तापसी पन्नू ने अपने अभिनय से उन क्षणों को जीवंत कर दिया है, जब टास्क फोर्स चीफ रणबीर (मनोज बाजपेयी) की मदद से शबाना अपने प्रेमी के कातिल को उसके अंजाम तक पहुंचाती है।

शबाना टास्क फोर्स का हिस्सा बन जाती है। उसे एक खास मिशन के लिए ट्रेन्ड करने के बाद मलेशिया भेजा जाता है, जहां उसका सामना दुनिया के कई आतंकी संगठनों को खतरनाक हथियारों की सप्लाई करने वाले टोनी उर्फ मिखाइल (पृथ्वीराज सुकुमारन) से होता है। यहां शबाना की मदद के लिए टास्क फोर्स का जांबाज अफसर अजय (अक्षय कुमार) और शुक्ला जी (अनुपम खेर) भी हैं।

शबाना की चाल से ही उसके चरित्र का यह इस्पात नज़र आता है। फिल्म में उनके लिए पोशाक भी बड़ी सावधानी से चुनी गई है। अब तापसी पन्नू मांडेस्टी ब्लेज़ के पात्र को अभिनीत करने के लिए पूरी तरह तैयार है। उसकी एक झलक ही उसके फौलादी इरादों का परिचय देती है।

इस थ्रिलर में गुप्तचर विभाग के आला अफ़सर को अन्य देश में खतरों से भरा कारनामा करने का आदेश देना है और नियमानुसार उसे उसके लिए अपने मंत्री से आज्ञा लेनी है। वह मंत्री के सचिव को फोन करता है और अपनी आदत के अनुसार वह कहता है कि मंत्री जी व्यस्त है और कोई अत्यंत महत्वपूर्ण बात है तो वह मंत्री जी से संपर्क करा सकता है। वह अफ़सर अपने मंत्री के निकम्मेपन को जानता है और कह देता है कि कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है, लेकिन अगले ही क्षण अपने गुप्तचर को आदेश देता है कि दुश्मन देश के गुप्तचर के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। उसने आवश्यक आदेश व अनुमति प्राप्त कर ली है। यह दृश्य हमारे मंत्रियों की जहालत व निकम्मेपन को उजागर करता है। कई बार ऐसा लगता है कि जाहिल मंत्रियों के बिना भी देश का काम चल सकता है और महत्वपूर्ण निर्णय लिए जा सकते हैं।

इस फिल्म के खलनायक का व्यक्तित्व प्रभावशाली है। लेकिन उसका प्रस्तुतिकरण सामान्य मनुष्य की तरह किया गया है और वह प्राण, अमजद खान या अमरीश पुरी से बिल्कुल जुदा सामान्य व्यक्ति लगता है। प्रायः खलनायक के परदे पर आते ही पार्श्व संगीत उसकी मौजूदगी को रेखांकित करता है। यह फिल्म बड़े सधे ढंग से बनाई गई है। अक्षय कुमार ने यह जानते हुए यह फिल्म स्वीकार की कि वे फिल्म के आधे से भी कम भाग में परदे पर नज़र आएंगे। यह पूरी तरह से तापसी पन्नू की फिल्म है। निर्देशक शिवम नायर ने तापसी के किरदार पर खूब मेहनत की है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि फिल्म ‘पिंक’ के बाद तापसी पन्नू ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि अपनी बेजोड़ अभिनय प्रतिभा के दम पर वह अकेले  फिल्म को सफलता दिला सकती हैं।

कलाकार : तापसी पन्नू, अक्षय कुमार, मनोज बाजपेयी

निर्देशक : शिवम नायर

अजीत कौर की आत्मकथा 'ख़ानाबदोश' पर लेख - वीणा भाटिया

Sunday 21 May 2017

फिल्म रिव्यू वसंत विहार की झुग्गी बस्ती : हिन्दी मीडियम वीणा भाटिया

वसंत विहार की झुग्गी बस्ती : हिन्दी मीडियम

वीणा भाटिया

बॉलीवुड में कभी-कभी ही कोई ऐसी फिल्म बनती है जो किसी ज्वलंत समस्या पर विचार करने को मजबूर कर देती है। हिन्दी मीडियम एक ऐसी ही फिल्म है।

साकेत चौधरी निर्देशित यह फिल्म भारतीय मध्य वर्ग के जीवन की ऐसी विसंगति को उजागर करती है, जिस पर शायद ही किसी का ध्यान गया हो।

दरअसल, आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी अंग्रेज़ी एक भाषा से ज्यादा स्टेटस सिंबल ही है। इंग्लिश मीडियम स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना हर व्यक्ति की चाहत होती है। इसी को देखते हुए आज बड़े शहर हों या छोटे कस्बे, हर जगह इंग्लिश मीडियम स्कूल खुल गए हैं। दरअसल, यह औपनिवेशिक गुलामी वाली मानसिकता का परिणाम है।

आज अंग्रेजी पढ़ना-लिखना और बोलना ही शिक्षित होने का पर्याय बन गया है। उच्च शिक्षा संस्थानों में अंग्रेजी पूरी तरह हावी है। प्रशासन, न्यायपालिका, संसद हर जगह अंग्रेजी का ही सिक्का चलता है। सामान्य परिवारों के बच्चे प्रतिभाशाली होते हुए भी सिर्फ अंग्रेजी की अच्छी जानकारी नहीं होने के कारण पिछड़ जाते हैं।

उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिए जाने का विरोध किया था, पर आजादी के बाद भी अंग्रेजी का प्रभाव हर क्षेत्र में बना रहा। कहा जा सकता है कि अंग्रेजी के प्रति आकर्षण उस मानसिक गुलामी को दर्शाता है जो दो सौ वर्षों के औपनिवेशिक शासन का परिणाम है। यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे आंखें नहीं चुराई जा सकती। इससे कई तरह की विडंबनाएं पैदा हुई हैं, जो कई बार बहुत ही त्रासद तो हास्यास्पद भी हो जाती हैं।

इसी विडंबना को दिखाने की कोशिश ‘हिन्दी मीडियम’ में की गई है।

कहा जा सकता है कि यह अपने तरह की खास ही फिल्म है जो दर्शकों को गुदगुदाने, उनका मनोरंजन करने के साथ ही अपना संदेश देने में पूरी तरह सफल रही है।    

फिल्म की कहानी दिल्ली के चांदनी चौक में रहने वाले कपड़ों के विक्रेता राज बत्रा (इरफान खान) की है जिसने हिन्दी मीडियम से पढ़ाई  की और उसे टूटी-फूटी अंग्रेजी भी आती है। लेकिन उसकी पत्नी मीता (सबा कमर) को अच्छी अंग्रेजी आती है और वह चाहती है कि उसकी बच्ची पिया टॉप के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाई करे। उसके एडमिशन के लिए राज और मीता बहुत कोशिश करते हैं और एडमिशन से पहले माता-पिता के इंटरव्यू के दौरान उन्हें बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। इस सबके बावजूद जब पिया का नाम किसी कॉन्वेंट स्कूल की लिस्ट में नहीं आता तो राज फर्जी डॉक्युमेंट के सहारे बीपीएल कोटे से पिया का एडमिशन कराने की कोशिश शुरू करता है और वसंत विहार जैसे पॉश जगह से एक झुग्गी बस्ती में शिफ्ट हो जाता है। मीता वहां गरीबों की तरह रहती है और राज फैक्ट्री में काम करने के लिए जाने लगता है।

ये सब कुछ केवल इंग्लिश मीडियम में बच्चे की पढ़ाई के लिए। जाहिर है, यह अतिरंजना भी विडंबना को सामने लाने के लिए ही दिखाई गई है।

झुग्गी बस्ती में दीपक डोबरियाल सामने आते हैं। वे भी बीपीएल कोटे से अपने बेटे का एडमिशन उसी स्कूल में कराना चाह रहे हैं जिसमें राज की बेटी ने फॉर्म भर रखा है। फिल्म में फैक्ट्री वर्कर श्याम के तौर पर उनकी भूमिका कमाल की है।

इरफान और दीपक डोबरियाल का अभिनय बहुत ही सधा हुआ है। सहज और स्वाभाविक अभिनय के साथ वे जो हास्य पैदा करते हैं, वह दर्शकों को बांध लेने वाला है।

अभिनय में पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर जरा भी उनसे पीछे नहीं हैं। भारतीय परिवेश में अपने किरदार को सबा कमर ने बहुत अच्‍छी तरह निभाया है।

यह फिल्‍म इरफान की अदाकारी, कॉमिक और संवाद अदायगी के लिए यादगार रहेगी। साधारण संवादों में सिर्फ अपने खास अंदाज से वे हास्‍य और व्‍यंग्‍य पैदा करते हैं। उनका हास्य और व्यंग्य बेध कर रख देने वाला है। वे हर उस पिता का प्रतिनिधित्व करते लगते हैं जो अपने बच्चे को अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाने का दबाव झेल रहा है।

कहा जा सकता है कि ‘हिन्दी मीडियम' एक ऐसी जरूरी फिल्‍म है, जिसे अवश्य देखा जाना चाहिए। फिल्म में व्यंग्य के छींटे किस कदर पड़ते हैं, उसकी एक बानगी देखें। राज बत्रा कहता है – “इंग्लिश इज इंडिया एंड इंडिया इज इंग्लिश। ह्वेन फ्रांस बंदा, जर्मन बंदा स्‍पीक रौंग इंग्लिश, वी नो प्राब्‍लम। एक इंडियन बंदा से रौंग इंग्लिश, तो बंदा ही बेकार हो जाता है जी।“

कहा जा सकता है कि अंग्रेजी के अनपेक्षित प्रभाव के मुद्दे को उठा कर इस फिल्म ने एक बड़ी ऐतिहासिक-सामाजिक विसंगति को जाहिर तो किया ही है, एक बड़ा सवाल भी दर्शकों के सामने रखा है। जाहिर है, इस सवाल से संवेदनशील दर्शकों को ही जूझना है।

कलाकार : इरफान खान, सबा कमर, स्वाति दास, दिशिता और दीपक डोबरियाल

निर्देशक : साकेत चौधरी
http://www.hastakshep.com/hindinews/hindi-medium-film-review-14182

अरुणा शानबाग की याद में वीणा भाटिया



http://www.hastakshep.com/hindiopinion/aruna-shanbaug-rape-alive-zombies-indian-society-culture-roots-of-rape-1416218 मई, 2015 को 62 साल की अरुणा रामचंद्र शानबाग की 42 वर्षों तक लगातार कोमा में रहने के बाद मृत्यु हो गई थी। वे कोई असाधारण महिला नहीं थीं। पर उनके जीवन और मौत में कुछ तो असाधारणता थी, जिसने संवेदनशील लोगों, बुद्धिजीवियों और महिला अधिकार के लिए लड़ने वाले लोगों के दिलो-दिमाग में एक जुंबिश पैदा की। अरुणा की मौत ने एक बार फिर उन सवालों को जलते अंगारों के रूप में सामने रखा, जिनसे आंखें चुरा पाना संभव नहीं।
44 साल पहले मुंबई के केइएम अस्पताल में कार्यरत नर्स अरुणा के साथ अस्पताल के ही बेसमेंट में बर्बर बलात्कार हुआ था। वह उस समय 25 वर्ष की थीं और जल्दी ही उनकी शादी होने वाली थी। अरुणा के साथ बलात्कार अस्पताल के ही एक वार्ड ब्वॉय सोहन लाल ने किया था जो पहले से ही उन पर बुरी नज़र रखता था। बलात्कार किए जाने के पहले उसने अरुणा के गले में कुत्ते की चेन बांध दी थी, जिससे उनके मस्तिष्क में ऑक्सीजन का प्रवाह रुक गया और वह कोमा में चली गईं। सोहन लाल को गिरफ़्तार कर लिया गया, पर सबूतों के अभाव में उस पर बलात्कार का मुकदमा नहीं चल सका। कोमा में चली जाने के कारण अरुणा कोई बयान दे पाने में असमर्थ थीं। मेडिकल जांच में बलात्कार की पुष्टि नहीं हो सकी। पता नहीं, डॉक्टरों पर किस तरह का दबाव था। पर बाद में की गई मेडिकल जांच में अरुणा के साथ बलात्कार की पुष्टि हुई, लेकिन अभियुक्त सोहन लाल पर सिर्फ़ हत्या के प्रयास और लूट का मामला दर्ज हुआ। उसने अरुणा की सोने की चेन और सगाई की अंगूठी छीन ली थी।
सोहन लाल को महज़ सात साल की सजा हुई। और अरुणा शानबाग अगले 42 वर्षों तक जिंदा लाश बनी केइएम अस्पताल के वार्ड नंबर-4 में जीवन और मौत से अनभिज्ञ पड़ी रही। इन 42 वर्षों के दौरान केइएम अस्पताल की नर्सों ने अरुणा शानबाग की जो सेवा की, वह मेडिकल इतिहास में बेमिसाल है। उनकी मृत्यु के बाद वहां की नर्सों को एक अजीब-से खालीपन ने घेर लिया था। यद्यपि अरुणा शानबाग के कोमा में होने के कारण उनका अस्तित्व महज भौतिक रूप में ही था, पर इतना भी वहां की नर्सों को संबल प्रदान करता था और उनके अपने अस्तित्व को भी रेखांकित करता था।
अरुणा शानबाग के नहीं रहने पर अब सिर्फ़ उनकी यादें हमारे साथ मौजूद हैं। बहरहाल, इतने साल गुज़र जाने के बावजूद आज भी समाज में स्त्रियों की दोयम दर्जे वाली स्थिति बरक़रार ही है। यह स्थिति निम्न वर्ग से लेकर तमाम वंचित वर्ग की स्त्रियों के साथ है। मध्य और उच्च वर्ग की महिलाओं के साथ बर्बर बलात्कार की वारदात कम ही होती है कुछ अपवादों के सिवा। यह अलग बात है कि यौन शोषण के मामले हर वर्ग और समुदाय की स्त्रियों के साथ कमोबेश होते ही हैं, पर निम्न और वंचित वर्ग की स्त्रियां बलात्कारियों की आसान शिकार होती हैं। स्त्रियों को अपना शिकार बनाने वाले भेड़िये तरह-तरह के रूप में घूमते नज़र आते हैं। ये आवारागर्द तत्वों से लेकर दबंग अपराधी और अय्याश अमीरजादे तक होते हैं जिन्हें न पुलिस का भय होता है, न ही न्यायालय का, क्योंकि अपने अनुभवों और पूर्व उदाहरणों से ये भली-भांति समझ जाते हैं कि कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, अगर वे किसी भी तरह उसे अपने पक्ष में प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।
अरुणा शानबाग के मामले में कानून अपना काम कर पाने में असफल रहा। वह एक बर्बर अपराधी के पक्ष में झुक गया। ऐसा क्यों? इसलिए कि ऐसी लोमहर्षक घटना को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। न अस्पताल प्रशासन, न पुलिस और न ही न्यायालय ने इस मामले में संवेदनशीलता दिखाई। सबूत इकट्ठे नहीं किए गए। मेडिकल जांच में डॉक्टरों ने कोताही बरती, क्योंकि अरुणा एक सामान्य नर्स थी। दूर-दराज के किसी गांव से नौकरी करने मुंबई जैसे महानगर में आई थी। हज़ारों-लाखों ऐसी औरतें गांवों से पलायन कर रोज़ी-रोज़गार के लिए महानगरों में आती हैं। कौन उनकी इज़्ज़त की परवाह करता है!
इतना ही नहीं, स्त्रियों की इज़्ज़त की जो गलत अवधारणा भारतीय मानस में गहराई से जड़ जमाये हुए है, वह भी बलात्कार की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए ज़िम्मेदार है। बलात्कार या यौन शोषण का मामला सामने आने पर परिवार के लोग उसे दबाना चाहते हैं। उनका मानना होता है कि मामला प्रकाश में आ जाने पर परिवार की बेइज़्ज़ती होगी। यही कारण है कि बलात्कार के अधिकांश मामलों में पुलिस में रिपोर्ट होती ही नहीं।अरुणा शानबाग मामले में भी उसके होने वाले पति ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराए जाने का विरोध किया था। दूसरी तरफ, पुलिस में मामला दर्ज कराए जाने के बावजूद न्यायिक प्रक्रिया की विसंगतियों के कारण शायद ही पीड़िताओं को न्याय मिल पाता है।
बलात्कार के बाद अरुणा शानबाग के जिंदा लाश में बदल जाने के बाद ‘ऐच्छिक मृत्यु’ का मुद्दा जोर-शोर से उठा और उसे न्यायालय से वैधता भी मिली। ये अलग बात है कि अरुणा शानबाग की सेवा में लगी नर्सों ने इसे उन पर लागू किए जाने से इनकार कर दिया।
भारतीय समाज और संस्कृति में बलात्कार की जड़ें बहुत ही गहरी हैं। अभिजात वर्ग बलात्कार को अपना परमाधिकार समझता रहा है। सामंती समाज से लेकर आज भी बलात्कार स्त्रियों पर अत्याचार का औज़ार बना हुआ है।
बलात्कार की हर घटना के बाद जब इसका बड़े पैमाने पर विरोध होता है तो लगता है कि इस प्रवृत्ति पर कुछ लगाम लगेगी। लेकिन बलात्कार के मामलों पर कानून सख्त किए जाने की जितनी बात होती है, बलात्कार की घटनाएं और भी बढ़-चढ़ कर सामने आने लगती हैं, मानो बलात्कारी कानून और शासन व्यवस्था को खुलेआम चुनौती देना चाहते हों। 2012 में दिल्ली निर्भया गैंगरेप की घटना के बाद बलात्कार संबंधी कानूनों की पुनर्समीक्षा की गई और इस संबंध में नए सिरे से कानूनों को परिभाषित किया गया। लेकिन कानून के भय से बलात्कार की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई, बल्कि ये घटनाएं बढ़ी ही हैं।
अब निर्भया गैंगरेप के दोषियों की फांसी की सजा सुप्रीम कोर्ट ने बहाल रखी है, पर इसके बावजूद बलात्कार की घटनाएं रुक नहीं रहीं। अपराधियों में कानून का ख़ौफ नहीं है।
इससे स्पष्ट होता है कि बलात्कार की समस्या कानून-व्यवस्था से जुड़ी समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज व्यवस्था से जुड़ी समस्या है। अमीरी-गरीबी और शोषण-दमन पर आधारित इस व्यवस्था में बलात्कार को मिटा पाना संभव नहीं है।
पुरुष वर्चस्व और हर स्तर पर स्त्री उत्पीड़न शोषणमूलक व्यवस्था का अपरिहार्य गुणधर्म है। यह व्यवस्था हज़ारों वर्षों से बदस्तूर कायम है। कानूनी उपायों और सुधारवादी प्रयासों से बलात्कार और स्त्री उत्पीड़न के विविध रूपों को समाप्त नहीं किया जा सकता है। स्त्री की वास्तविक आजादी एक समतावादी समाज में ही संभव है। शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में स्त्री का स्थान दोयम दर्जे का है और रहेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यह ऐतिहासिक तथ्य है। स्त्री उत्पीड़न के रूप पूरी दुनिया में कमोबेश एक ही हैं। इसलिए स्त्री मुक्ति का संघर्ष सामाजिक व्यवस्था के बदलाव के संघर्ष से अलहदा नहीं हो सकता।
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Saturday 21 January 2017

नदी की धारा में : वीणा भाटिया



When I met him in Delhi university law faculty he gifted me his books and said " array vina you're working according to your name".
My poem dedicated to him. May his soul rest in peace.

नदी की धारा में
हाथ डालना
छूना महसूस करना
कितनी बातें करती है
नदी हमसे
जाने कब से है धरती पर
कहाँ-कहाँ से गुज़र कर
कितने तट कितने रास्ते
पार करती बहती जा रही है
सबसे सरल सृजन है
बचपन के बनाए चित्रों में
जो सहजता से
बन जाती है
वो है नदी।

- वीणा भाटिया



                                      http://epaper.dainiktribuneonline.com/c/15674593

पुस्तक समीक्षा : वहाँ पानी नहीं है : दर्द को जुबान देती कविताएँ- वीणा भाटिया





‘वहाँ पानी नहीं है’ दिविक रमेश का नवीनतम कविता-संग्रह है। इसके पूर्व इनके नौ कविता-संग्रह आ चुके हैं। ‘गेहूँ घर आया है’ इनकी चुनी हुई कविताओं का प्रतिनिधि संग्रह है। गत वर्ष ‘माँ गाँव में है’ संग्रह आया और बहुचर्चित हुआ। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने दिविक रमेश को वृहत्तर सरोकार का कवि बताते हुए लिखा है कि लेखन के क्षेत्र में वे अभी भी एक युवा की तरह ही सक्रिय हैं। इनकी कविताओं के बारे में शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा है कि ये उस गहरी वास्तविक चिंता को व्यक्त करती हैं, जिसका संबंध मानव-मात्र के जीने-मरने से है। त्रिलोचन ने हमेशा इन्हें जन-जीवन से जुड़ा लोकवादी कवि माना। इन्होंने पिटे-पिटाए ढर्रे पर रचना नहीं की, हमेशा काव्य में नये प्रयोग किए और हिन्दी की उस प्रगतिशील जातीय चेतना को आगे बढ़ाया, जिसके वाहक निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, मुक्तिबोध और शमशेर रहे हैं।
कविता संग्रह ‘वहाँ पानी नहीं है’ को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि इसमें शामिल कविताएँ कवि की दशकों की काव्य-यात्रा का एक नया ही पड़ाव है, जहां हिन्दी कविता अंतर्वस्तु और रूप-विधान, दोनों ही दृष्टि से लोक में समाहित हो गई है। संग्रह में कुल चौंसठ कविताएँ हैं। हर कविता अपने कथ्य, संवेदना और शिल्प में भिन्न है। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कवि का लोगों से, पूरे परिवेश और प्रकृति से बहुत ही गहरा और आत्मीय रिश्ता है। कवि अपनी जानी-पहचानी दुनिया में विचरता है और संवाद करता है, वह संवेदना के अति सूक्ष्म स्तर पर अपना सरोकार बनाता है। संग्रह में शामिल कविताएँ पहले की कविताओं से इस रूप में भिन्न हैं कि इनमें काव्य-संवेदना और कला का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। एक खास बात है कि दिविक रमेश की इधर की कविताओं में माँ बार-बार आती है। पिछले साल जो संग्रह आया, उसका शीर्षक ही है ‘माँ गाँव में है’। माँ के प्रति यह विशेष लगाव और आकर्षण निश्चय ही इस समाज में माँ की बदलती जा रही स्थिति को इंगित करता है। संग्रह की पहली ही कविता है – माँ के पंख नहीं होते। “माँ के पंख नहीं होते / कुतर देते हैं उन्हें / होते ही पैदा / खुद उसी के बच्चे। माँ के पंख नहीं होते।” यह उस माँ की कविता है जो पिटती थी और जब-जब पिटती थी माँ…लगभग गाती और रोती थी माँ। माँ को लेकर हिन्दी में न जाने कितनी कविताएँ लिखी गई होंगी, पर यह माँ पर ऐसी कविता है जो यथार्थ है और ऐसी विडम्बना को सामने लाती है जो इस अति आधुनिक समाज का नंगा कड़वा सच है। दूसरी कविता है ‘आवाज आग भी तो हो सकती है’। किस सांकेतिकता के साथ कहा है कवि ने – ‘आवाज आग भी तो हो सकती है/ भले ही वह/ चूल्हे ही की क्यों न हो, ख़ामोश’। ‘तू तो है न मेरे पास’ कविता में फिर माँ है। ‘सोचता हूँ क्या था कारण -/ माँ को ही नहीं लेना आया सपना / या सपने की ही नहीं थी पहुँच माँ तक।’ इस विडम्बनात्मक सच को कवि जब कविता में सामने लाता है तो जाहिर है, इसकी रचना-प्रक्रिया बहुत ही दर्द भरी रही होगी। सूक्ष्म संवेदनाओं की बुनावट वाली कई कविताएँ इस संग्रह में हैं, वहीं राजनीतिक पतनशीलता पर बहुत ही सूक्ष्म प्रहार करती और इतिहास के सवालों से टकराती कविताएँ भी हैं। संग्रह की प्रतिनिधि कविता ‘वहाँ पानी नहीं है’ एक ऐसी कविता है जिसमें आज के समग्र यथार्थ का ही उद्भेदन हुआ है। यह कविता शोषण पर आधारित समाज-व्यवस्था पर ऐसी गहरी चोट करती है और जो सवाल करती है, वह मर्मभेदी है। यद्यपि पानी पर बहुत से कवियों ने कविताएँ लिखी हैं। रघुवीर सहाय की कविता ‘पानी पानी’ तो बहुचर्चित रही है। पर ‘वहाँ पानी नहीं है’ हिन्दी कविता की एक नई उपलब्धि है। निश्चय ही, यह युग सत्य को सामने लाने वाली कविता है। इसका पहला और अंतिम अंश उद्धृत करना आवश्यक लग रहा है।
“वहाँ पानी नहीं है।”
सुन कर या पढ़ कर
क्यों नहीं उठता सवाल
कि वहाँ पानी क्यों नहीं है।

“वहाँ पानी नहीं है।”
सुन कर या पढ़ कर
अगर कोई हँस रहा है
तो वह है इक्कीसवीं सदी।
इस शुरुआत और अंत के बीच जिस विडम्बना को प्रस्तुत किया गया है, उसका बोध तो पूरी कविता को पढ़ने के बाद ही हो सकता है। निस्संदेह यह कविता हिन्दी की श्रेष्ठ कविताओं में एक है। ‘उनका दर्द-मेरी जुबान’ भी गहरी त्रासदी को सामने लाने वाली कविता है। संग्रह में कुछ बहुत ही कोमल संवेदनाओं की भी कविताएँ है – प्रेम कविताएँ, पर उनका फ़लक बहुत ही विस्तृत है। ‘शब्द भर होता प्यार’, ‘तुम्हारी नाव के लिए’, ‘करना प्रतीक्षा’, ‘सबसे निजी और खूबसूरत’, ‘बस बजता रहूँगा’, ‘अपने पक्षी की तलाश में’ बहुत ही सघन संवेदना और अनुभूतियों की कविताएँ हैं। ‘प्रियवर का फोन’ में साहित्य की राजनीति पर प्रहार है। ऐसे तो संग्रह में शामिल सभी कविताएँ उल्लेखनीय हैं, पर ‘जिसे चाहता हूँ भाषा में’ कविता का जिक्र जरूरी है। यह गहन अर्थबोध की कविता है और बहुआयामी है।
कहा जा सकता है कि दिविक रमेश के इस संग्रह में जो कविताएँ शामिल हैं, वो कथ्य, रूप-विधान, शिल्प और अर्थबोध की व्यापकता की दृष्टि से हिन्दी साहित्य की उपलब्धि हैं। दिविक रमेश कविताओं में जिस तरह शब्दों को बरतते हैं, उससे एक सांगीतिक रचना भी होती है। उनकी कविताओं में जो संगीत-तत्व है, उसे इस संग्रह को पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है। उनकी कविताएँ हृदय में संगीत-ध्वनियों की तरह बजने वाली हैं।

पुस्तक – वहाँ पानी नहीं है (कविता संग्रह), दिविक रमेश
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर
प्रथम संस्करण – 2016
मूल्य – 125 रुपए
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