Monday 22 May 2017

'दुनिया इन दिनों' के कोलकाता विशेषांक में प्रकाशित... स्मृति में एक हज़ार चौरासवें की माँ - वीणा भाटिया



महाश्वेता देवी का जीवन और लेखन एक जलती मशाल की तरह है। महाश्वेता देवी सिर्फ़ एक रचनाकार ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता भी रही हैं। शोषितों-उत्पीड़ितों और वंचित तबकों के साथ संघर्ष के मोर्चे पर उनके साथ आवाज उठाने वाले ऐसे साहित्यकार कम ही हुए हैं। महाश्वेता देवी ने रवीन्द्रनाथ से लेकर प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए समकालीन युवा साहित्यकारों से भी लगातार संवाद बनाए रखा और उनकी रचनाशीलता को धार देने में भूमिका निभाई। अपनी कृतियों में महाश्वेता देवी ने आधुनिक भारत के उस इतिहास को जीवंत किया है, जिसकी तरफ कम साहित्यकारों का ध्यान गया। वह है देश का आदिवासी समाज। आदिवासी समाज के ऐतिहासिक संघर्षों की गाथा लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने उनके बीच अपना काफी समय बिताया। महाश्वेता देवी मानती हैं कि धधकते वर्ग-संघर्ष को अनदेखा करने और इतिहास के इस संधिकाल में शोषितों का पक्ष न लेनेवाले लेखकों को इतिहास माफ नहीं करेगा। असंवेदनशील व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश और एक समतावादी शोषणविहीन समाज का निर्माण ही उनके लेखन की प्रेरणा रही।
अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ जो हिंदी में ‘जंगल के दावेदार’ के नाम से प्रकाशित हुआ है, लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने काफी लंबा समय रांची और उसके आसपास के इलाके में बिताया। तथ्य संग्रह करने के साथ ही उन्होंने वहां के आदिवासियों के जीवन को नजदीक से देखा और उनके संघर्षों से जुड़ गईं। उन्होंने साहित्य के माध्यम से जन-इतिहास को सामने लाने का वह काम किया जो उनके पहले नहीं हुआ था। ‘जंगल के दावेदार’ उनकी ऐसी कृति है, जिसे 1979 में जब साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला तो आदिवासियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी। जगह-जगह ढाक बजा कर आदिवासियों ने कहा था कि उन्हें ही साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है। किसी लेखक से लोगों का ऐसा जुड़ाव दुर्लभ है। ‘पथ के दावेदार’ के बारे आलोचक कृपाशंकर चौबे ने लिखा है, “यह उपन्यास आदिवासियों के सशक्त विद्रोह की महागाथा है जो मानवीय मूल्यों से सराबोर है। महाश्वेता ने मुख्य मुद्दे पर उंगली रखी है। मसलन बिरसा का विद्रोह सिर्फ अंग्रेजी शासन के विरुद्ध नहीं था, अपितु समकालीन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भी था। बिरसा मुंडा के इन पक्षों को सहेज कर साहित्य और इतिहास में प्रकाशित करने का श्रेय महाश्वेता को ही है।” महाश्वेता देवी सिर्फ आदिवासियों के विद्रोह पर ही लिख कर नहीं बैठ गईं, बल्कि उनके जीवन के सुख-दुख में शामिल हुईं। उनके हक-हकूक के लिए उनके साथ खड़े हो कर उन्होंने आवाज बुलंद की। यही बात उन्हें दूसरे लेखकों से अलग और विशिष्ट बनाती है।
महाश्वेता देवी का जन्म 14 जनवरी, 1926 को ढाका में हुआ था। साहित्यिक संस्कार बचपन से उन्हें मिले। 12 वर्ष की उम्र में ही वे बांग्ला के श्रेष्ठ साहित्य से परिचित हो चुकी थीं। अपनी दादी की लाइब्रेरी से किताबें लेकर पढ़ने का जो चस्का उन्हें बचपन में लग गया था। उनकी मां भी उन्हें साहित्य और इतिहास की चुनिंदा किताबें पढ़ने को देती थीं। बचपन में ही जब वे शान्तिनिकेतन शिक्षा प्राप्त करने के लिए गईं तो उन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर के साक्षात्कार का मौका मिला। सातवीं कक्षा में गुरुदेव ने उन्हें बांग्ला में एक पाठ पढ़ाया। 1936 में शान्तिनिकेतन में बंकिम शतवार्षिकी समारोह में उन्हें रवीन्द्रनाथ का व्याख्यान सुनने का मौका मिला। उस समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वहां हिन्दी पढ़ाते थे। ऐसे माहौल में महाश्वेता देवी के साहित्यिक संस्कार विकसित होते गए। बाद में पारिवारिक कारणों से शान्तिनिकेतन उन्हें छोड़ना पड़ा और वे कलकत्ता चली गईं। वहां उन्होंने ‘छन्नहाड़ा’ नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली।
महाश्वेता देवी के पिता मनीष घटक भी साहित्यकार थे। उनकी माँ धारित्री देवी भी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। चाचा ऋत्विक घटक महान फिल्मकार हुए। कहने का मतलब पूरा परिवार ही साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ा हुआ था। ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि में महाश्वेता देवी ने बहुत कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था। उनका पहला उपन्यास ‘झांसी की रानी’ 1956 में प्रकाशित हुआ। इसे लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने झांसी और 1857 की जनक्रान्ति से जुड़े इलाकों की यात्रा की और गहन शोध किया। उन्होंने झांसी. जबलपुर, ग्वालियर, कालपी, पूना, ललितपुर की यात्रा की और तमाम दस्तावेजों की छानबीन कर, पुराने लोगों की यादों को जुटा कर उपन्यास लिखा। इसे 1857 की जनक्रान्ति का साहित्यिक दस्तावेज कहा जा सकता है। कोई रचना लिखने के लिए संबंधित इलाके की यात्रा करना, तथ्य जुटाना और वहां के लोगों से जीवंत संपर्क कायम करना महाश्वेता देवी की अपनी विशेषता रही है। यही कारण है कि इनके उपन्यास इतिहास की थाती बन चुके हैं और उनसे आने वाली पीढ़ियों को अपने इतिहास को समझने में मदद मिलेगी।
महाश्वेता देवी ने लेखन की शुरुआत कविता से की थी, पर बाद में कहानी और उपन्यास लिखने लगीं। ‘अग्निगर्भ’, ‘जंगल के दावेदार’, ‘1084 की मां’, ‘माहेश्वर’, ‘ग्राम बांग्ला’ सहित उनके 100 उपन्यास प्रकाशित हैं। बिहार के भोजपुर के नक्सल आन्दोलन से जुड़े एक क्रान्तिकारी के जीवन की सच्ची कथा उपन्यास के रूप में उन्होंने ‘मास्टर साहब’ में लिखी। इसे उनकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति माना गया। महाश्वेता देवी वामपंथी विचारधारा से जुड़ी रहीं, पर पार्टीगत बंधनों से अलग ही रहीं। महाश्वेता देवी ने हमेशा वास्तविक नायकों को अपने लेखन का आधार बनाया। ‘झांसी की रानी’ से लेकर ‘जंगल के दावेदार’ में बिरसा मुंडा और भोजपुर के नक्सली नायक पर आधारित उपन्यास ‘मास्टर साहब’ में इसे देखा जा सकता है। ‘1084 की मां’ उनका बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जिस पर फिल्म भी बनी। यह दरअसल, संघर्ष और विद्रोह की वह कहानी है जिसे इतिहास-लेखन में भी स्थान नहीं मिला। कहा जा सकता है कि महाश्वेता देवी का समग्र लेखन उत्पीड़ित-वंचित तबकों के संघर्षों को सामने लाने वाला है, उसमें वह इतिहास-बोध है जो संघर्षों की दिशा को तय करने वाला है। महाश्वेता देवी के लिए उनका लेखन कर्म जीवन से पूरी तरह आबद्ध है। यही कारण है कि वे लेखन के साथ ही सामाजिक आन्दोलनों में एक कार्यकर्ता की तरह शामिल होती रहीं। कार्यकर्ता-लेखक का एक नया ही रूप महाश्वेता देवी में दिखता है, जो आज के समय में दुर्लभ ही है।
महाश्वेता देवी ने शान्तिनिकेतन से बीए करने के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री ली और अंग्रेजी की व्याख्याता के रूप में काम किया। साथ ही, लगातार यात्रा करते हुए उन्होंने घुमंतू पत्रकार की भूमिका भी निभाई और बांग्ला अखबारों-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग करती रहीं। महाश्वेता देवी के काम का क्षेत्र बहुत व्यापक रहा है। उन्हें 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पर ऐसी लेखिका के लिए पुरस्कार कोई मायने नहीं रखते। दरअसल, महाश्वेता देवी ज़मीनी लेखिका रही हैं, जो हमेशा किसी भी तरह के प्रचार और चकाचौंध से दूर लेखन और आन्दोलनात्मक गतिविधियों से ही जुड़ी रहीं।